शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

धूप भरकर मुठ्ठियों में : कृति समीक्षा क्षितिज जैन

कृति चर्चा में क्षितिज जैन जी की समीक्षा
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     संग्रह : धूप भरकर मुट्ठियों में 
     नाम- धूप भरकर मुट्ठियों में
     लेखक- मनोज जैन 
प्रकाशक- निहितार्थ प्रकाशन, गाज़ियाबाद
मूल्य- 250-/-

संवेदना की रश्मियों से प्रकाशित नवगीत

                   वरिष्ठ नवगीत श्री मनोज जैन जी का दूसरा प्रकाशित नवगीत संग्रह ‘धूप भरकर मुट्ठियों में’ पढने का अवसर इन दिनों प्राप्त हुआ. फेसबुक के माध्यम से मनोज जी के गीतों को पढ़कर उनके रचना कर्म से परिचित होने का अवसर मिला है किन्तु यह संग्रह उनके साहित्यिक चिंतन के सभी पक्षों को एक उभार के साथ पाठक के समक्ष लाता है। 
       अपने साहित्यिक नाम ‘मधुर’ के समान ही मनोज जी सरल और मधुर शैली में नवगीतों की रचना करते हैं जिनका कथ्य और शिल्प सहज होने के साथ साथ विशिष्ट व्यंजनाओं से युक्त होता है। कवि की सहज शैली का अनुमान इस गीत से हो जाता है जहाँ वे सरल शब्दों में गंभीर बात कर देते हैं-
हम धनुष से झुक रहे हैं 
तीर-स तुम तन रहे हो 
हैं मनुज हम, तुम भला फिर 
क्यों अपरिचित बन रहे हो।
           हर घड़ी शुभ है चलो, मिल 
           नफरतों की गाँठ खोलें।
मनोज जी के नवगीत उनके दार्शनिक चिंतन से विशिष्ट हो जाते हैं। जहाँ कुछ लोग भारतीय दर्शन से युक्त सृजन को पिछड़ा कहकर नकृति के भाव में रहते हैं, वहीँ मनोज जी का चिंतन स्पष्टतया भारतीय दर्शन में रचा पगा है।
           यह भावना संग्रह के दूसरे गीत में दिखती है-
जिन्हें प्रकृति ने करुणा करके
नीर-क्षीर का ज्ञान दिया 
‘ब्रह्मानंद-सहोदर’ संज्ञा से 
जिनको अति मान दिया।
       इस एक बंद से कवि की आध्यात्मिक प्रवृत्ति का स्पष्ट प्रमाण मिलता है जो उनके गीत ‘बूँद का मतलब समंदर है’ का कथ्य बन जाता है. जैन दर्शन का कवि के ह्रदय पर गहरा प्रभाव है और वे अपने लेखन में इस अध्यात्म को लाकर निश्चय ही विशेष प्रयोग करते हैं-
ब्रह्म-वंशज हम सभी हैं 
ब्रह्ममय हो जाएंगे 
बैन सुनकर अरिहंत भाषित 
शिव अवस्था पाएंगे।
         जीतकर खुद को हमें 
         बनना सिकंदर है।
अगले गीत में यह भावना और भी मुखर हो जाती है और निश्चय ही कवि इस गीत को रचते समय साहित्यिक नहीं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि में विचरण कर रहें हैं-
भव -भ्रमण की वेदना से
मुक्ति पाना है 
अब हमें निज गह 
शिवपुर को बनाना है।
          मनोज जी के अनेक गीत श्रृंगार की कोमल भावनाओं से ओत-प्रोत हैं, लेकिन इससे यह निष्कर्ष कदापि नहीं निकला जाए कि वे सुकुमारिता के कवि हैं. मनोज जी की रचनाओं में एक दृढ आत्म-विश्वास है, जग को चुनौती देने का दुस्साहस है और गर्व भरा संकल्प है जिससे वे कहते हैं- 
लहर मिलेगी, कूल मिलेंगे 
सब रस्ते प्रतिकूल मिलेंगे 
लीक छोड़कर चलने वाले 
तुझको पग-पग शूल मिलेंगे.
               संघर्षों में राह बनाने वाला 
               मेरा मन अगुआ है।
साथ ही, कवि के मन में सहज स्वाभिमान है जो उन्हें किसी भी स्थिति में झुकने नहीं देता। इसी भाव को ये पंक्तियाँ दर्शातीं हैं-
वहम से आरम्भ होकर
अहम पर आकर खड़ी है
बात छोटी-सी नहीं है
बात सचमुच ही बड़ी है।
               तुम अभी जीते नहीं हो 
               और मैं हारा नहीं हूँ।
मनोज जी के नवगीतों को पढ़ते हुए पाठक को अनुभव होगा कि उनमे सृजनात्मक उत्साह और शक्ति भरी हुई है। अपनी रचनाधर्मिता का शिव संकल्प लेकर वे कुछ सार्थक रचने की बात करते हैं, एक साहित्यकार होने के कर्तव्यों के पालन की बात करते हैं. उनका नवगीत ‘करना होगा सृजन,बंधुवर! इसी भाव को दर्शाता है-
छंदों में हो आग समय की 
थोड़ा-सा हो पानी 
हंसती दुनिया संवेदन की 
अपनी बोली-बानी।
          कथ्य आँख में आलोचक की 
          रह-रह कर जो खटके।
मनोज जी की इन रचनाओं का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष उनकी जन-संवेदना है जो आज की परिस्थितियों को देख-बूझ कर सृजन करती है और विसंगतियों पर प्रहार करती है. साहित्यिक क्षेत्र में प्रचलित ‘जनवादी कविता’ का प्रयोग करके मैं इन कविताओं को किसी लेबल या टैग के नीचे नहीं रखना चाहूंगा पर निश्चय ही कवि ने अपने समय की बात कहकर और जनता के पक्ष में आवाज़ उठाकर साहित्यकार होने का कर्तव्य पूरा किया है. उनके मन का संचित आक्रोश इन पंक्तियों में दिखता है-

पाँव पटकते ही मगहर में 
हिल जाती क्यों काशी 
सबके हिस्से का जल पीकर 
सत्ता है क्यों प्यासी
           कथनी करनी में क्यों अंतर 
           है बातों में झोल
समसामयिक विसंगतियों पर कवि की पैनी नज़र है और वे इस दृष्टि से आधुनिक प्रजातंत्र के नेताओं को देख उनपर भरपूर प्रहार करते हैं-
पल-भर में राई को पर्वत 
पर्वत को कर डाले राई 
जो इसके कद को बढ़ाता
उसको दिखाता ये खाई.
             समझा कब इसको किसी ने 
             द्वापर रहा हो या त्रेता।
सत्ता के ठेकेदारों के इसी दोहरे चरित्र पर कवि राजा को प्रतीक बनाकर तीखा व्यंग्य करते हैं और दिखलाते हैं कि कैसे सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे होकर प्रजा का शोषण करते हैं-

क्षत्रप सब राजा के
संग-संग नाचे
परजा के हाव-भाव 
एक-एक जाँचे
        आया जी चमचों का 
        कैसा यह दौर.
आम आदमी के दुखों को मनोज जी की जन-संवेदना बहुत अच्छे से समझती है और उसे व्यक्त करती है। कवि का यह कथ्य झूठ-मूठ का दिखावा नहीं वरन् स्वयं अनुभव किया होता है-

सुरसा जैसा मुंह फैलाया 
महंगाई ने अपना 
हुई सुदामा को हर सुविधा 
ज्यों अंधे को सपना।
            शकुनी सरीखी नया सुशासन
            चलकर चाल गया.
कवि के कथ्य की विवेचना के अंत में, उनके शिव संकल्पों युक्त ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की भावना का उल्लेख करना अनिवार्य हो जाता है जो उनकी गीत ‘दीप जलता रहे’ में उभर कर आई है. कवि सब के कल्याण के साथ साथ सत्य की प्रबलता की कामना करते हैं जो भारतीय संस्कृति के मूल्यों से ओत-प्रोत है-
शीश पर सिंधुजा का 
वरद हस्त हो 
आसुरी शक्ति का 
हौसला पस्त हो.
       शुभ लाभ की घरों में    
       बहुलता रहे।
कवि ने कहीं कहीं कठोर संज्ञाओं यथा ‘होता है कितना कमीना’ या ‘चिंदीचोर विधायक के घर’ का प्रयोग किया है जो पाठक को खटक सकती है लेकिन, अवसर के अनुसार सुई या तलवार का प्रयोग करना आना भी आवश्यक है. हाँ, मेरा व्यक्तिगत मानना है कि शायद कोई अन्य व्यंग्यात्मक उपमाएं बेहतर रहतीं।
मनोज जी की विशेषता उनकी ईमानदारी है जिससे वे ‘जैसे को तैसा’ कहने में और अपने मन की बात करने में हिचकते नहीं। जहाँ एक ओर उनका मन हमारी संस्कृति में रमा हुआ है तो वहीँ, उनकी दृष्टि समसामयिक पृष्ठभूमि पर है. इसी कारण पाठक उनके रचना-कर्म में विविधता आसानी से देख सकता है।
                   मनोज जी का नवगीत संग्रह यथार्थत: विविध संवेदनाओं की रश्मियों से आलोकित है और मै कामना करता हूँ कि ‘दीप जलता रहे’ की भांति उनका सृजन भी ऐसे ही आलोकित रहे. उत्कृष्ट नवगीत संग्रह के लिए कवि को हार्दिक बधाई एवं बहुत बहुत शुभकामनाएं!

क्षितिज जैन
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जयपुर

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