रविवार, 31 अक्तूबर 2021

मैं हूं दर्द आदमी कब हूं----- ===================== डॉ.कारेन्द्र देव त्यागी "मक्खन मुरादाबादी"

मैं हूं दर्द आदमी कब हूं-----
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                          डॉ.कारेन्द्र देव त्यागी
                          "मक्खन मुरादाबादी"

        सन् 1973-74 की बात है,जब मैं हास्य-व्यंग लेखकत्रयी ( हरीशंकर पारसाईं , शरद
जोशी व रवीन्द्र नाथ त्यागी ) में से रवीन्द्र नाथ त्यागी से मेरठ स्थित उनके सरकारी कार्यालय में मिला था। मेरा पूरा परिचय पा लेने के बाद उन्होंने मुझसे पूछा था , 'रामावतार त्यागी को जानते हो।' मैं नहीं जानता था,' नहीं कह दिया।'
उन्होंने कहा था , ' तुम्हें उनसे अवश्य मिलना चाहिए।' मुझमें रामावतार त्यागी जी से मिलने की उत्कंठा वहीं से पनप गई थी।
        इसके चार - पांच महीने बाद ही हल्द्वानी एक कवि सम्मेलन में जाना हुआ। शाम को तैयार होकर हुल्लड़ मुरादाबादी मुझे होटल के उस कमरे में ले गए जिसमें रामावतार त्यागी ठहरे थे। मेरा परिचय कराया गया। पूरा परिचय मुझसे भी जानबूझ कर उन्होंने कहा था कि तुम तो घर के ही बालक हो। कवि सम्मेलन में ले जाने के लिए आयोजक बंधु आ गये थे। रामावतार त्यागी ने हुल्लड़ मुरादाबादी से कहा कि तुम अन्य कवियों को लेकर चलो, मैं थोड़ी देर में अपने बालक के साथ आता हूं। सब चले गए थे और वह मुझसे बतियाते हुए अपने कार्य में लगे रहे। कार्य निपटा कर बोले,'अब चलो।' कार्यक्रम होटल के बगल में ही था।हम लोग टहलते हुए ही पंडाल में प्रवेश कर जैसे ही मंच पर पहुंचे तो मंच  तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था,यह था रामावतार त्यागी का अद्भुत स्वागत। मेरे कविता-पाठ पर
उन्होंने मेरी मन भरकर प्रशंसा की थी और खूब आशीर्वाद दिया था।जब वह कविता पाठ के लिए उठे तो फिर तालियां। पढ़ना शुरू किया तो पंडाल तालियों से गूंज उठा था। कई गीत पढ़े थे, उन्होंने। मैं हतप्रभ था। मुझे वहीं उनके दो - तीन गीतों की पंक्तियां याद हो गईं थीं। रामावतार त्यागी यहीं से मेरे भीतर बैठ गये। तत्पश्चात वह कई बार मुरादाबाद मेरे संयोजन में हुए कार्यक्रमों में आये और अन्यत्र बीसियों काव्य- मंचों पर उनका सान्निध्य और आशीर्वाद मुझे खुले मन से प्राप्त हुआ। मैं सौभाग्यशाली रहा कि मुझे ऐसी गीत विभूति के श्रीचरणों में प्यार भरा स्थान मिला। उनसे परिचित होने की मेरी इतनी भर कहानी है।

रामावतार त्यागी का जन्म जिस समय में हुआ,वह भयंकर वाली आर्थिक तंगी का रहा होगा, क्योंकि उनके जन्म के 26 साल बाद सन् 1951 में मेरे जन्म के चार-छ:साल बाद भी, जब मुझे कुछ समझ हुई ,तब भी तंगी ही तंगी पसरी हुई थी। खेती-बाड़ी से कमाये गये दानों का ही आाासरा था। पढ़ाई महत्त्वपूर्ण नहीं थी। विरले ही पढ़ते थे। तंगहाली में भी पुरखों को बालकों की नौकरियों का लालच नहीं था। कितने ही परिवार अपने बालकों की लगी-लगाई नौकरियां छुड़वाकर घर के काम में लगा लेते थे। परिवारों में बस यही भाव बसा हुआ था कि अपनी आंखों का तारा अपनी आंखों सेअलग न हो , आंखों के सामने ही रहे। इस भाव में तो पारिवारिक प्रेम ही नहीं अपितु प्रेम की पराकाष्ठा थी। फिर भी रामावतार त्यागी इससे वंचित रहे , क्यों ? क्योंकि उनमें बचपन से ही मनमानी भी थी और मनमानी में जिद भी। तत्कालीन सामाजिक ढांचागत व्यवस्थाओं ने कहीं न कहीं उन्हें उद्वेलित करके रख दिया था। इसीलिए उनके भीतर रूढ़ीगत राह के विपरीत बहने और डंडाठोक अपने मन की कहने के बेझिझक साहस में निडरता बचपन से ही भर गई थी। सच के दर्शन को कहने में ऐसी ही निडरता जीवन में काम आती है और वही एकमात्र उनके जीवन में काम आई भी। उसी ने उन्हें जीवन भर न झुकने दिया और न ही रुकने दिया, अपितु एक ऐसे गीत कवि के रूप में तराश कर हीरा बनाया, जिसके गीतों ने उदित होते ही तहलका मचा दिया। ऐसे ही नहीं, अपितु उनके गीतों ने दुख भरी जिंदगी की कितनी ही शर्मिंदगियों को ज़िन्दगी दे दी। पूरे दुख- दर्शन को मात्र तीन पंक्तियों में ऐसे कह गए रामावतार त्यागी जैसे कि त्रिदेव को अभिव्यक्त कर गये हों------------------------
     ज़िन्दगी से मरा, मौत से जी गया।
    आंधियों में पला,सांस से बुझ गया।।
    मैं जनम को मरण को बहुत जानता हूं----उनकी ये पंक्तियां उन्हीं का तो सकल निचोड़ हैं-------
जन्म लेने का भी,जीवन जीने का भी और मरण को जानने- पहचानने का भी। मुझे लगता है,इस निचोड़ जाने बिना ही बुद्ध तक मृत्यु के रहस्य को जानने के लिए निकल लिए। रामावतार त्यागी ने पलायन को नहीं अपितु समायन के साथ अपने पूरे खपायन को जिया।
मनुष्य का जन्म प्राप्त करना किसी परम सत्ता की कृपा पर निर्भर हो सकता है, किन्तु उसका मनुष्यत्व के गुणों को अपने भीतर प्रस्फुटित करने की क्षमता प्राप्त कर लेना अर्थात मनुष्य हो जाना अथवा मनुष्यत्व पाने की दिशा में अग्रसर होने की शक्ति जुटा लेना, बहुत कठिन है। इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्यत्व का मार्ग देवत्व के मार्ग से जटिल है।वह इसलिए कि उसके साधन और क्षमताएं सीमित हैं और देवत्व के अपरिमित।
  फिर भी रामावतार त्यागी ने जनम और मरण को जाना है, इसलिए मुझे मरण का अर्थ मृत्यु नहीं लगता। यदि मरण मृत्यु नहीं तो फिर और क्या है? रामावतार त्यागी को पढ़ कर मुझे तो यही समझ में आया है कि सांसें चलती भी न हों और सांसें रुकती भी न हों अर्थात न मनुष्य जीता सा लगे और न ही मरता सा, यही मरण है- जीवन और मृत्यु से साथ- साथ जूझते रहना ही। रामावतार त्यागी इससे जूझे हैं, इसीलिए वह जाने भी हैं। इसी जूझन को उन्होंने गीत बनकर और गीत बनाकर जिया है। मृत्यु को तो केवल वही जानता है,जो मरता है और उसे वही बता भी सकता  है, जबकि बताने के लिए वह बचता नहीं है। अतः मृत्यु को किसी के भी जानने का प्रश्न ही नहीं उठता। ऊपर वाला ही जानता होगा। नचिकेत प्रयास से भी उसके रहस्य भर को ही जाना जा सका है,उसको नहीं। इसीलिए तो त्यागी जी भी मरण को ही जाने हैं। उसे वह केवल जाने ही नहीं बल्कि उससे आंख मिलाकर सीना तानके साफ-साफ कह भी गए हैं----- 
मैं तो अपने बचपन में ही इन महलों से रूठ 
 गया / मैंने मन का हुक्म न टाला चाहे जितना टूट गया / रोटी से ज्यादा अपनी आज़ादी को सम्मान दिया।
        जिसे घर-परिवार का लाड़,प्यार और दुलार न मिला हो, जिसे अपने मित्रों और जीवन में आए करीबी हुए विचित्रों से अपनत्व भरा संसार न मिला हो, जिसे जीवन साथी के सौंदर्य सुख का व्यापार न मिला हो, जिसे जीवन के सपने सच करने का आधार न मिला हो,वह व्यक्ति चलती-फिरती लाश से अलग और अधिक क्या होता है? यही तो मरण है - बंदरिया की भांति मरे हुए बच्चे को पेट से चिपकाए फिरना। ऐसी सघन पीड़ाओं से भरे जीवन का डटकर मुकाबला करना ही  तो उनकी कविता का बेमिसाल कमाल है। फिल्म आंधी और  तूफान का चर्चित गीत ज़िन्दगी से याचना नहीं करता अपितु उसे ललकार कर साहस के साथ चुनौती देता हुआ ही प्रतीत होता है----------------------
मैंने चाहा था कि आंचल का मुझे प्यार मिले
मैंने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले
तेरे दामन में बता मौत से ज्यादा क्या है
मेरी कश्ती तेरा तूफान से वादा क्या है
ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है।।---------
          ज़िन्दगी से जुड़े अनर्थ और बुरे भावों के जितने भी शब्द व्यवहार में हैं, उन सभी को उनके दुख- भाव के बदले में रामावतार त्यागी से विछावन हुए सत्कार के साथ अभिनव अभिव्यक्ति मिली है। उनकी कविता में उन सबके भाव का प्रभाव तो है और उनको लेकर अपने भीतर पश्चाताप भी,पर कहीं भी निराशा नहीं है, अपितु उनके प्रति मन का अपनत्व भाव ही उमड़ा पड़ा है ------
दर्द तुम भी दूसरों के काव्य में रहने लगे हो
अब तुम्हें मेरे भजन इतने बुरे लगने लगे।।
इतना ही नहीं उन्हें तो आपदाओं को उत्सव बना लेने की वह कला भी खूब आती है, जो भारतीय संस्कृति का अपना अद्भुत गुण है। वर्तमान में हमने कोरोना जैसी आपदा से उत्सव निकाल कर ही तो जिया है-------
छोड़ो कि कौन हममें कितना विशेष घायल
आओ बबूल वन में मिलकर गुलाब बोयें------
उन्होंने बबूल वन की जगह गुलाब बोने की बात कही है। कांटे बबूल में भी होते हैं और गुलाब में भी। भले ही गुलाब के रंग-विरंगे फूलों का सौंदर्य मन को सर्वाधिक भाता हो,पर बबूल के पीले फूलों का आकर्षण भी कम नहीं होता। दोनों में बस उनके कंटकों की अलग-अलग प्रकृति का ही विशेष अंतर है। गुलाब के कांटो में ज़िन्दगी बसती है, क्योंकि उसके कांटे ही फूल कर टहनियां बनते हैं, जिन पर मनमोहक फूल आते हैं। यह मेरा बारीकी से देखा-भाला सत्य है। दुख-दर्दों में भी आशाओं के अंकुर फुटा लेना रामावतार त्यागी की अपनी कविता कला का वैशिष्ट्य है, एकदम गुलाब के रंगों और सुगंधों जैसा ही।
 रामावतार त्यागी के गीतों में जो पीड़ा छलछलाई है वह यूं ही नहीं छलछलाई,अपितु परिवेशगत भोगी- भागी जो उनमें समाई थी, वही निकल कर बाहर आई है।          उनकी अपनी आंखों के सामने प्रतिदिन हर पल उनका मन मरा था, आकांक्षाएं मरी थीं, संभावनाएं मरी थीं, कल्पनाएं मरी थीं, अल्पनाएं मरी थीं, यहां तक कि मरते-मरते उनके वर्तमान में ही उनका भविष्य मरा था। संसार में सबसे बड़ा दुख पुत्र की अर्थी को कंधा देना माना गया है, किन्तु उनका दुख तो इससे भी बहुत सघन था। उनके ऐसे मरण को लेकर उनके पास रही मरा-मरा की निरंतरता ने ही उनमें रामांश का संचार किया, क्योंकि नाम से तो वह रामावतार ही थे न। उनमें बैठे इसी भावांश ने ही उनको वह शक्ति और साहस दे दिया जो दिल्ली में क्षेम चन्द्र सुमन की अध्यक्षता में हो रहे कवि सम्मेलन में उनसे मुखर होकर उनकू पहले-पहले काव्य-पाठ से काव्य जगत में एक सुरसुरी पैदा कर गया -----
पुरातन व्यवस्था बदलती नया युग
नया खून लेकर चला आ रहा हूं।
नयी नाव जर्जर पुराने पुलिन पर
मिलन को उतरना नहीं चाहती है।
नयी वायु सूखे हुए उपवनों में
ठहर कर गुजरना नहीं चाहती है।।
विद्रोह का यह स्वर, काव्य में क्रांति का स्वरलेख लिख गया, जिसने बता दिया था कि रामावतार त्यागी भी इस पटल पर प्रवेश कर गया है------ 
तुम समझोगे मैं बागी हूं विद्रोही हूं
तुम कहकर मुझको पागल एक पुकारोगे।
तुम महा नास्तिक कहकर गाली भी दोगे
हो सका अगर तो मुझ पर पत्थर मारोगे।।
पर मैं तो बन्धन तोड़ ज़माने भर के
इस एक बगावत को सुलगाने आया हूं।
मैं चमचम करते फाड़ समाजी परदे को
अन्दर सड़ती तस्वीर दिखाने आया हूं।।
          अपनी कंगाली में इस तेवर के बादशाही
 मिजाज वाले रामावतार त्यागी के बारे में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने उनकी कृति 'आठवां स्वर 'की भूमिका में यह कह कर उन्हें धन्य ही तो किया है ------
" ऐसे विरल लम्बे अंतराल में जन्म लेते हैं और कभी तो फिर नहीं भी लेते। ×××××× गीत का
ज़माना हमेशा बरकरार रहेगा। महादेवी वर्मा और बच्च्न ने जो परंपरा चलाई वह जनता को आज भी पसंद है। यही परंपरा नीरज, त्यागी, वीरेन्द्र,राही आदि में प्रसार कर रही है----

महत्त्वपूर्ण यह है कि उन्होंने यहीं पर रामावतार त्यागी की ही गीत पंक्तियां उद्धृत की हैं,जोकि एक गहरा संदेश है जिसे दिनकर जी शांत मन-भाव से कह कर अपने दायित्व के धर्म का निर्वाह कर गये --------
इस सदन में मैं अकेला दिया हूं,                   
मत बुझाओ!
जब मिलेगी रोशनी मुझसे मिलेगी ।
एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूं,                    
मत बुझाओ!
जब जलेगी आरती मुझसे जलेगी ।।×××××
उसके रोने, उसके हंसने, उसके बिदकने और चिढ़ने, यहां तक कि उसके गर्व में भी एक अदा है जो मन को मोह लेती है।" और क्या कहते दिनकर जी? रामावतार त्यागी के लिए कहने को उन्होंने अपने पास जब बचाया ही कुछ नहीं। किसी भी रचनाकार की ऐसे क्षणों से बड़ी अन्य कोई धन्यता नहीं होती।
         पद्मसिंह शर्मा कमलेश ने अपने कथन से रामावतार त्यागी की रचना धर्मिता के मानदंड निर्धारित करके हिन्दी रचना संसार के सामने स्पष्टत: उघाड़ कर रख दिए,जो रामावतार त्यागी के प्रति दुरावी साहित्यिक समाज को आईना दिखाने के लिए पर्याप्त हैं-------- "अछूती उपमाएं, ताज़ी सूक्तियां, और मौलिक प्रयोग त्यागी जी की कविता के ऐसे गुण हैं जो गीतकारों के लिए ही नहीं, प्रयोगवादियों के लिए भी आदर्श हो सकते हैं।"
डॉ. हरिवंश राय बच्चन के शब्दों में----------
"रामावतार त्यागी आज की पीढ़ी के कवियों में भारत भर में अकेला है। वह तो गीतों का बादशाह है।"और बाल स्वरूप राही तो स्पष्ट यह घोषणा ही करने में अपना गौरव मानते हैं-------"कि आधुनिक गीत साहित्य का इतिहास रामावतार त्यागी के गीतों की विस्तार पूर्वक चर्चा किए बिना लिखा ही नहीं जा सकता।" इस कथन में यह बात ध्यान देने योग्य है कि उन्होंने रामावतार त्यागी को 'सम्मलित किए बिना' नहीं कहा अपितु उन्होंने उनके गीतों की विस्तार पूर्वक चर्चा किए बिना' कहा है। साहित्य में इसका अर्थ सामान्य से बहुत अलग होकर बहुत गहरा होता है।
         क्षेम चन्द्र सुमन कहते हैं----" त्यागी ने अपने जीवन में जितनी पीड़ा, वेदना और कसक झेली है यदि इतनी किसी और ने झेली होती तो कदाचित वह पागल हो जाता।×××××
त्यागी से आंख मिलाये बगैर गीत काव्य से परिचय करना संभव नहीं है।" यह कथ्य भी साधारण से बहुत परे अपने में असाधारण ही है क्योंकि साहित्य में ' आंख मिलाये बगैर " के अर्थ बहुत गूढ़ और गहरे होते हैं। सुमन जी ने 'आज के लोकप्रिय कवि: रामावतार त्यागी' कृति  की भूमिका में जो लिख दिया वह रामावतार त्यागी पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण गद्यकाव्य है। उनका यह महत्त्वपूर्ण शिलालेख इस अंक में समाहित है ही, इसलिए मुझे उनका कहा और अधिक कहने की आवश्यकता यहां पर नहीं लगती।
   पद्मसिंह शर्मा कमलेश द्वारा रामावतार त्यागी की अछूती उपमाओं, ताज़ा सूक्तियों और 
उनके मौलिक प्रयोगों को प्रयोगवादियों के लिए भी आदर्श बताया जाना इसलिए महत्त्वपूर्ण है , क्योंकि निराला की आह्वान्वित नवता का प्रथम भंडार तो रामावतार त्यागी के ही पास है। बिंबों प्रतीकों,उपमाओं और भाषा की नवता में रामावतार त्यागी जैसी निजता उनके बाद किशन सरोज के अतिरिक्त गीत जगत में अभी तक तो अन्यत्र किसी के पास नहीं ही मिलती। जबकि नवगीत इन दो नामों के उल्लेख भर से भी थरथराता सा ही लगता रहा है -------------
 डॉ. सुरेश गौतम एवं वीणा गौतम ने सन्      
1985 में " नवगीत : इतिहास और उपलब्धि " नामक शोधात्मक आलोचना का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हिन्दी आलोचना को देकर निश्चित ही समालोचना-शास्त्र की श्रीवृद्धि की थी किन्तु नवगीत मठों नेउसे इसलिए दरकिनार कर दिया क्योंकि उसमें रामावतार  त्यागी सहित कुछ अन्य उन समर्थ गीत कवियों को समाहित किया गया था, जिन्हें डॉ. शम्भुनाथ सिंह ने किन्हीं कारणों से नवगीत दशक में स्थान नहीं दिया था। नवगीत के तात्कालिक लंगड़ेपन ने अपने से समर्थ गीत कवियों को टंगड़ी मारकर अपने यूनाइटेड बल पर ही अपना हित साधने का मार्ग प्रशस्त किया और स्व- हित साधक इसके बहुत से अनेक कारणों में से ठुकराए गये कवियों की एक आदत को दोषी ठहरा कर खुद अपना काफिला लेकिन सफ़र पर बढ़ लिए।
       नवगीत कवि,विवेचक और विश्लेषक स्वयं
 रामावतार त्यागी के गीतों की बराए मेहरबानी इन पंक्तियों पर भी ईमानदारी से दृष्टि डालें--- 'ग़ज़ल जब पिट रही हो तो रूबाई को ज़रा चल
दूं ,' ' हमारी राह का कोई सिरा मंज़िल नहीं होता,' ' हमें हस्ताक्षर करना न आया चैक पर माना,मगर दिल पर बड़ी कारीगरी से नाम लिखते हैं,' ' बूंदों की तकदीर पी गईं,ये कैसी जलभरी घटाएं।' कोकिल का संगीत डस लिया,
कलियां हैं या विष कन्याएं,' 'जीवन का अमृत निचोड़कर कर,प्यासे यम को पिला दिया,' पीड़ा को गालियां नहीं दो,यह मेरे गीतों की मां है,' ' मैं हूं दर्द आदमी कब हूं,' ' सह भी लिया  दर्द
यदि मैंने, अपने संबंधी सपनों का। बोलो क्या जवाब दूंगा मैं,चादर के अबोध प्रश्नों का।', ' मैंने दुख को आमंत्रित नहीं किया, लेकिन उसकी आदत का क्या कहना।,' ' कर ली पूर्ण अधूरी माला, दुख में उसने मुझे पिरोकर,' 'हम पंडित जी की नज़रों में व्यक्ति नहीं हैं, सामग्री हैं,' ' तुमने तो समुद्र के हाथों पहनी थी सुहाग की चूड़ी,' 'जैसी गीत-गीत में नवनीत पंक्तियां भरी पड़ी हों तो कोई कैसे कह सकता है कि नवगीत रामावतार त्यागी में नहीं पड़ा हुआ था?
           नई कविता की भांति नवगीत का उद्गम स्रोत भी निराला जी की सरस्वती वन्दना में प्रयुक्त नव  पद ही है। निराला का नव मात्र नव नहीं अपितु नव पर नव है - डॉ.मनोहर अभय। यह 
उचित ही प्रतीत होता है। रामावतार त्यागी में नवता और मौलिकता का मनोहारी समन्वय निरंतर विद्यमान है।    निराला जी को लेकर बड़े संस्मरण प्रचलित हैं। उनमें से एक यह है जो मैंने कइयों से सुना है- ' निराला, महादेवी को बहन मानते थे। एक बार रक्षाबंधन के दिन वह बग्घी में बैठकर महादेवी के घर पहुंचे और महादेवी से कहा,' दो रुपए दो।' महादेवी ने पूछा,' 'किसलिए ?' तो उन्होंने  कहा कि एक रुपया इस बग्घी वाले को देना है और एक रुपया राखी बंधाई का तुमको। क्षेमचंद्र सुमन के अनुसार--' हद दरजे के किसी ग़मगीन आदमी की शक्ल यदि किसी ने न देखी हो तो वह रामावतार त्यागी के चेहरे को देख ले ×××× ××××××× किन्तु आपकी किसी भी परेशानी में वह आहिस्ता से आपके कंधे पर हाथ रख कर कहेगा-- ' मैं जानता हूं आपको क्या चाहिए,मेरे पास एक ही है, पर आपकी जरूरत मुझसे ज्यादा है, इसलिए इसे आप ले लें।तब उसके चेहरे की वह बदसूरती किसी जादुई प्रभाव से अचानक गायब हो जायेगी और वह आपको संसार का सबसे सुन्दर इंसान दिखाई देगा। निराला और रामावतार त्यागी से जुड़े हुए ये दोनों अलग-अलग संस्मरण वैसे तो विपरीत ध्रुवों वाले हैं किन्तु दोनों में दोनों का  धाकड़पन एक जैसा होकर न्यौछावर होने लायक है। बड़े लोगों के ये ऐसे गुण होते हैं जो सामान्यतः ढूंढें नहीं मिलते। दोनों में ही अपने- अपने निश्छल मन का अपनत्व घुला हुआ है, जो सभी को कुछ न कुछ शिक्षा देता है।
       शिव ने विषपान किया और कंठ में ही उसे सोख भी लिया। अपने इस सत्कर्म से ही वह नीलकंठ हो गये। निराला ने पीड़ाओं को ओढ़ा-
बिछाया और उनकी छाया में ही जीवन काटकर महाप्राण हो गये। रामावतार त्यागी पीड़ाओं को जीकर उन्हें आत्मसात कर गये और पीड़ाओं के महागायक होकर उभरे तथा हिन्दी गीत के महानायक हो गये। पीड़ाओं को दुलार-पुचकार
कर सजाने और संवारने का जो साहित्यिक कर्म उन्होंने कर दिखाया वह अन्यत्र दुर्लभ ही नहीं , अपितु खोजे से भी हाथ नहीं लगने वाला। उन्होंने जीवन भर अपने को संपूर्ण खपाकर गीत प्रसाधनों से पीड़ाओं का मोहक श्रृंगार किया है। वर्तमान की भाषा में कहें तो वह पीड़ाओं का सर्वोत्तम व्यूटी पार्लर हैं।
    प्रत्येक मनुष्य में स्वयं को प्रस्तुत करने का अपना अलग तेवर होता है। पीड़ाओं से जूझकर मनुष्य भले ही अपना सबकुछ बचा ले जाय, किन्तु यह तेवरी भाव नहीं बचता। फिर भी रामावतार त्यागी की कहन में यह भाव बेधड़क होकर जीवित रह पाया है, वह इसलिए कि उन्होंने जीवन भर पीड़ाओं की सेवा उनमें रमकर की है। रामावतार त्यागी के भाग्य पड़ा यह सेवाफल उन्हीं पीड़ाओं की देन है। पीड़ाएं 
उनकी पीर-भक्ति से प्रसन्न होकर जीवन भर उनके आगे-पीछे वैसे ही लगी रही हैं जैसे कि किसी बहुत सुन्दर युवक के आगे-पीछे सुंदरियां लगी रहती हैं। रामावतार त्यागी ने पीड़ाओं को गाया अथवा पीड़ाओं ने रामावतार त्यागी को। मुझे तो यह विभेद करना भी बहुत कठिन लग रहा है--------
छल को मिली अटारी सुख की
मन को मिला दर्द का आंगन ।
नवयुग के लोभी पंचों ने
ऐसा ही कुछ किया विभाजन।।
शब्दों में अभिव्यक्ति देह की
सुनती रही शौक से दुनिया,
मेरी पीड़ा अगर गा उठी
दूषित सारे छंद हो गये।××××××× उनकी पीड़ा का यह गान तब ही मुखर हुआ है जब वह ऐसी ही पीड़ाओं की गलियों से गुजरे----
सारी रात जागकर कर मन्दिर
कंचन को तन रहा बेचता,
मैं पहुंचा जब दर्शन करने
तब दरवाजे बंद हो गये।×××××ऐसी द्रवित हुई -हुई सी बहती जाती पीड़ाओं की धाराओं को आठवां स्वर देने वाले कालजयी गायक ने इनमें से ही एक ऐसा जीवन दर्शन निकाल कर अपने समाज को सौंप दिया, जिससे आत्मबल प्राप्त करके आत्महत्या को तैयार बैठा भी कोई अपने दुर्विचार को त्यागकर जीवन की पगडंडियों पर आगे बढ़ लिया और वह रामावतार त्यागी तथा उनके गीतों का होकर रह गया। ऐसी जीवनदायिनी प्रभावोत्पादक कविता तो बस रामावतार त्यागी में ही मिलती है---------
खड़ी हैं बांह फैलाए हुए मजबूत चट्टानें
गुजरती आंधियां अपनी कमानें हाथ में तानें
ग़ज़ब का एक सन्नाटा कहीं पत्ता नहीं हिलता
किसी कमजोर तिनके का समर्थन तक नहीं मिलता
कहीं उन्माद हंसता है कहीं उम्मीद रोती है
यहीं से, हां यहीं से, ज़िन्दगी आरंभ होती है।।
       रामावतार त्यागी गीत के ऐसे महोदधि हैं,
जिसमें उठती हुई लहर-लहर पीड़ा है। इन्हीं पीड़ाओं के
गहन ताप से सारा सागर जल खौल उठने को 
विवश है। अंततः उसे खौलना ही पड़ता है और क्रिया वाष्पीकरण से उन बादलों में तब्दील होता है जिनसे बरसती हैं वह अमृत बूंदें जो मन मिट्टी को शीतलता देती हैं। पीड़ा को खुशी और सुखी रखकर उन्होंने दुख को सुख में पिरोने का
अनूठा कार्य किया है। पीड़ाओं को उन्होंने गाया ,पर यह सच है कि कड़वे को बहुत मीठा गाया है।' मैं हूं दर्द आदमी कब हूं ' गाने वाला जब यह गाता है कि
' पीड़ा को गालियां नहीं दो,यह मेरे गीतों की मां है ' तब वह आदमी हो न हो पर आदमियत का सबसे बड़ा पैरोकार होकर उभरता है।' यह मेरे गीतों की मां है'
से पीड़ा के प्रति जो सम्मान भाव उभरता है वह उन्हें सच्चा पीर-भक्त सिद्ध करता है।उनकी इस पीर- भक्ति के परिणाम स्वरूप रोते हुए शब्दों में भी अर्थ को गाना पड़ा क्योंकि अर्थ को वहां तक पहुंचाना होता है जहां तक उसे पहुंचना चाहिए-' शब्द रोता रहा अर्थ गाना पड़ा।'
    उन्होंने अपनी संगी-साथी पीड़ाओं से पिंड छुड़ाने का कोई भी कृत्य कभी नहीं किया अपितु अपने लाड़, प्यार, दुलार और पुचकार से उनकी परवरिश की है। रोते हुए शब्दों के अर्थ गौरव के लिए वह उन सबको जीवन भर अपनी वाणी से ललकारते रहे हैं जिनके भी भीतर उनके प्रति कोई खुसर-फुसर बसती थी---' मेरी पीड़ा गा उठी तो दूषित सारे छंद हो गये।
       कालजयी सूक्तपंक्तियों के कालजयी गीत कवि रामावतार त्यागी ने जिस आत्माभिमान और आत्म सम्मान को जीया उसे जीने में मैंने ही बड़े-बड़ों को टूटते और बिखरते देखा है।वह न टूटे और न ही बिखरे बल्कि अडिग बढ़ते रहे अपनी राह पर, निरंतर।उनकी राह की मंज़िल का सिरा तो होता ही नहीं।बह चले जाते रहे हैं, बस इस भाव के साथ-----
' प्यार आंसू मन सृजन को छोड़कर मैं
जो झुका तो देवता के ही चरण में।
मैं कलंकित क्योंकि मैं यह कह न पाया
जी रहा हूं मैं तुम्हारी ही शरण में।।

           मैंने रामावतार त्यागी की पीर-भक्ति का जिक्र किया है। यद्यपि हमारी कविता का भक्ति
काल कविता की दृष्टि से सर्वाधिक संपन्न है, फिर भी यह धारा अपने क्षीणकाय रूप में ही सही,आगे भी अन्य कवियों की भाव-भूमि में संचरित होती रही है। पीड़ा को मां कहकर उसकी भक्ति का जो उद्रेक रामावतार त्यागी ने अपने काव्य में पैदा किया है वह हिन्दी कविता की बड़ी पूंजी है, क्योंकि वह अन्यत्र नहीं ही हो सका है। धूम-धाम से इसके गायक तो अकेले वही हैं। संगीत के सात सुरों से परे जाकर उन्होंने पीड़ा गान का आठवां स्वर उसमें जोड़ा हु। ऐसी उथल-पुथल कर देने वाले 
अधिसंख्य नहीं होकर विरले ही होते हैं।जिनका
फिर से आना शायद ही संभव होता है। इसको राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने त्यागी जी के भीतर बहुत पहले ही पहचान लिया था।उनका वही कथ्य यहां दोहराना आवश्यक प्रतीत होता है-
' रामावतार त्यागी गीत के बड़े कवि हैं। ऐसे विरल अंतराल में जन्म लेते हैं और कभी-कभी 
फिर नहीं भी लेते।' क्योंकि---------------
मेरे पीछे इसीलिए तो धोकर हाथ पड़ी है दुनिया
मैंने किसी नुमाइश घर में सजने से इंकार कर दिया ।
चाहा मन की बाल अभागिन
पीड़ा के फेरे फिर जाएं ,
उठकर रोज़ सबेरे मैंने
देखी हाथों की रेखाएं ,
जो भी दंड मिलेगा कम है, मैं उस मुरली का गुंजन हूं,
जिसने जग के आदेशों पर बजने से इन्कार कर दिया ।

                            
                          
झ-28, नवीन नगर
कांठ रोड, मुरादाबाद(उ.प्र.)
 संपर्क: 931908679
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