शनिवार, 5 मार्च 2022

वीरेन्द्र जैन जी के नवगीत

वागर्थ प्रस्तुत करता है
वरिष्ठ साहित्यकार वीरेन्द्र जैन जी के पाँच नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ
एक
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खुलकर हँसे हुए

अब तो सुबह शाम रहते हैं
जबड़े कसे हुए
जाने कितने साल हो गये
खुल कर हंसे हुए

हर अच्छे मजाक की कोशिश
खाली जाती है
हंसी नाटकों में पीछे से
डाली जाती है
कांटे कुछ दिल से दिमाग तक
गहरे धंसे हुए
जाने कितने साल हो गये
खुल कर हंसे हुए

खा डाले खुदगर्जी ने
गहरे याराने भी
'आप-आप' कहते हैं अब तो
दोस्त पुराने भी
मेहमानों से लगते रिश्ते
घर में बसे हुए
जाने कितने साल हो गये
खुल कर हंसे हुए

दो

ठीक नहीं लगता
___________________

पीसा सारी रात मगर 
बारीक नहीं लगता।
जाने कैसा कैसा लगता 
ठीक नहीं लगता।

जीवन की गाड़ी कुछ 
भारी भारी चलती है।
ऐसे  चलती है जैसे  
लाचारी  चलती  है।

जो दिल में आ बैठा 
वो नजदीक नहीं लगता।

जाने कैसा कैसा लगता  
ठीक  नहीं लगता।

ना 'हां' लिक्खा, ना 'ना' लिक्खा,
मेरी अर्जी पर।
सारा आगत रुका हुआ है , 
उनकी मर्जी  पर।

सुर में बजता जीवन का 
संगीत नहीं लगता।
जाने कैसा कैसा लगता 
ठीक नहीं लगता।

तीन

सबसे सम्बन्ध हुआ
____________________

सूरज चांद 
पहाड़ नदी 
सबसे सम्बन्ध हुआ

जब तक घर था
मैं  निर्भर था
अब निर्बन्ध हुआ

सूरज चाँद
पहाड़ नदी
सब से सम्बन्ध हुआ

सीमित था जब तक जीवित था
रिश्तों को ढोकर
फैल गया मैं कितना कितना
अपनों को खोकर
शीशी फूटी, इत्र फैल 
सर्वत्र सुगन्ध हुआ

सूरज चाँद
पहाड़ नदी 
सबसे सम्बन्ध हुआ

अब आया ये समझ,
हवा इतना इठलाती क्यों
अब मैंने जाना ये नदिया
कल कल गाती क्यों
तभी हो सका आनन्दित 
जिस रोज अनन्त हुआ

सूरज चाँद
पहाड़ नदी 
सबसे सम्बन्ध हुआ

चार
कलैंडर बदला बदला है
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नया नया क्या है
शाम वही थी 
सुबह वही है 
नया नया क्या है।
दीवारों पर बस कलैंडर बदला बदला है

उजड़ी गली, 
उबलती नाली, कच्चे कच्चे घर
कितना हुआ 
विकास लिखा है सिर्फ पोस्टर पर

पोखर नायक 
के चरित्र सा गंदला गंदला है
दीवारों पर बस कलैंडर बदला बदला है

दुनिया वही, 
वही दुनिया की है दुनियादारी
सुखदुख वही, 
वही जीवन की, है मारामारी
लूटपाट, चोरी मक्कारी धोखा घपला है
दीवारों पर बस कलैंडर बदला बदला है

शाम खुशी लाया 
खरीदकर ओढ ओढ कर जी
किंतु सुबह ने शबनम सी चादर समेट रख दी
सजा प्लास्टिक के फूलों से हर इक गमला है
दीवारों पर बस कलैंडर बदला बदला है

पाँच

हमने बहुत बहुत सोचा था
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हमने बहुत बहुत सोचा था
कुछ भी नहीं हुआ
हार गये हम सारा जीवन
निकला एक जुआ

धारा का ऐसा प्रवाह था
पकड़न फिसल गयी
चमत्कार की सब उम्मीदें
झूठी निकल गयीं
सीढी जिसे समझते थे हम
निकला एक कुँआ
हमने बहुत बहुत सोचा था
कुछ भी नहीं हुआ

वैसे वही किया जीवन भर
जो मन में ठाना
पुरूषारथ के आगे कोई
भाग्य नहीं माना
पर नारे पड़ गये अकेले
लगने लगे दुआ
हमने बहुत बहुत सोचा था
कुछ भी नहीं हुआ 
वीरेन्द्र जैन

परिचय
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नाम : वीरेन्द्र जैन
शिक्षा : विज्ञान स्नातक एवं अर्थशास्त्र में एम.ए.
जन्मतिथि : 12 जून 1949  
कार्य लेखक, राज्यस्तरीय अधिमान्यता प्राप्त पत्रकार  29 वर्ष पंजाब नैशनल बैंक में अधिकारी पद पर कार्य करने के बाद सामाजिक कार्य करने की दृष्टि से सन 2000 में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति  
लेखन सन 1969 से 
साहित्यक-वैचारिक पत्रिकाओं में निरन्तर जारी अब तक एक हजार पाँच सौ से अधिक आलेख प्रकाशित।
प्रकाशन : व्यंग्य की चार पुस्तकें प्रकािशत
 1.एक लुहार की  
(पराग प्रकाशन दिल्ली)
 2. देखन में छोटे लगें  
 (एकता प्रकाशान दतिया)
 3.हम्माम के बाहर भी  
 (आलेख प्रकाशन दिल्ली)
 4.अस्पताल का उद्घाटन  
(आलेख प्रकाशन दिल्ली)
 कई राष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ ।  
सामाजिक कार्य- साक्षरता कार्यक्रमों समेत भारत ज्ञानविज्ञान समिति,जनवादी लेखकसंघ समेत अनेक गैर सरकारी संगठनों के कार्यों में सहयोग। साम्प्रदायिकता का सक्रिय व मुखर विरोध हेतु अनेक प्रर्दशनों  व सेमिनारों में सक्रिय भागीदारी। जनवादी लेखक संघ भोपाल इकाई के पूर्व अध्यक्ष 
मूल निवास : पुरानी जेल के पीछे दतिया मप्र 475661
फोन 07522-233212   
पत्र व्यवहार का वर्तमान
पता 2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड 
 अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र 462023 
फोन 0755-2602432 मोबाइल 9425674629 
Email- j_virendra@yahoo.com

7 टिप्‍पणियां:

  1. वीरेंद्र जैन जी के सराहनीय नवगीत ।बहुत सुंदर प्रस्तुति ।

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  2. बहुत सुन्दर !
    जैन साहब, आपकी कविताओं में सहजता है. आप बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहने में सिद्द-हस्त हैं.
    यह बात सोलहो आने सही है कि इंसानी फ़ितरत कभी भी तारीखों की तरह नहीं बदलती.

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  3. वाह ! वीरेंद्र जैन के नवगीत दिल को कितनी सहजता से स्पर्श करते हैं, सूरज, चाँद, पहाड़,नदी से जब कवि जुड़ जाता है तब सारी दुनिया का दर्द भी उसके हिस्से में आ जाता है

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  4. आपके नवगीतों में लक्षणात्मक शैली, यथार्थ से जुड़ाव, प्रकृति का स्पंदन नवीन बिंब जो व्यंजनाओं से सुसज्जित है जो सहजता से आम आदमी से जुड़े से लगते हैं।
    सभी पाँचों नवगीत बहुत सुंदर।

    फैल गया मैं कितना कितना
    अपनों को खोकर
    शीशी फूटी, इत्र फैल
    सर्वत्र सुगन्ध हुआ।
    जैसी पंक्तियाँ बताती है कि परिधी से निकल सकल विस्तार में समाहित होना चाहते हैं कवि।
    अभिनव सृजन।

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  5. आप सभी टिप्पणीकारों का समूह वागर्थ स्वागत करता है।

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  6. आदरणीय जैन जी की उत्कृष्ट रचनाएँ हृदय स्पर्शी हैं।

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  7. सभी रचनाएँ.अत्यंत सराहनीय हैं।
    आभार
    सादर।

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