सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी का एक
गीत
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सदियों तक हम शिला रहेंगे
हमने शाप बटोरे इतने,
सदियों तक हम शिला रहेंगे।
कहाँ गये अपने हिस्से के
मोरों वाले जंगल सारे,
उल्लासों की लाल पतंगें
ख़ुशियों के नीले ग़ुब्बारे!
चीख़-चीख़कर इस अरण्य में
किससे अपनी व्यथा कहेँगे?
जिनको गुँथना था माला में,
वे गुलाब कितने बासे थे!
कागों को क्या पता कि घर के
सारे नल ख़ुद ही प्यासे थे!
कब तक मृग बनने की धुन में
हर दिन सौ-सौ बाण सहेंगे!
हाँ, क़न्दीलों ने बुझ-बुझकर
और घनी कर दी हैं रातें।
देखो कमरे में घुस आयीं
तिरछी हो-होकर बरसातें।
चट्टानों से भरी नदी में
हम तुम कितनी दूर बहेंगे!
अपने ख़ुशबूदार झकोरे
रख आयी हैं कहाँ बयारें !
बैठी हैं नंगे तारों पर
चिड़ियों की मासूम क़तारें।
दस्तानों में दुबके हैं सब,
हम किसकी उँगलियाँ गहेंगे!
हैं पाँवों के पास बाँबियाँ,
यह किन बीनों की साज़िश है!
क्यों सिर पर रूमाल बाँधकर
ज़ख़्म छिपाने की कोशिश है।
कट-कटकर हम-तुम कगार-से
कब तक यूँ चुपचाप ढहेंगे!
सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी
सत्येन्द्रजी के नवगीत समकालीन परिस्थितियों पर गहरी और पैनी नजर रखते हैं और पूरी संवेदना के साथ उन्हें एक अपेक्षित निर्णय तक पहुँचाते है. यह गीत भी उभी तर्ज पर आकार लेता है.
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