मंगलवार, 16 अगस्त 2022

परिचय धीरज श्रीवास्तव प्रस्तुति वागर्थ


1

रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील

रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील!
उसकी खुशियाँ उसके सपने वक्त गया सब लील!

बिन पानी के मछली जैसे
तड़प रहा वह आज!
बिटिया अपनी ब्याहे कैसे
और बचाये लाज!

संघर्षों में सूख चली है आँखों की भी झील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

शहर दिखाये ले जाकर जब
दो हजार हों पास!
संगी साथी कौन दे रहा
नहीं किसी से आस!
ठोक रही बीमारी माँ की छाती में बस कील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

कर्म भाग्य का नहीं संतुलन
बनी गरीबी गाज!
देखे जो लाचारी इसकी
ताक लगाये बाज!

व्यंग्य कसे मुस्काये अक्सर खाँस-खाँस कर चील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

फिर भी हिम्मत क्यों हारे वो
जीना है हर हाल।
पटरी पर ला देगा गाड़ी
आते-आते साल।

रोज-रोज आशाएँ दौड़ें जाने कितने मील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

2

 रिक्शे वाले

फटे पाँव हाथों में छाले।
मगर मस्त हैं रिक्शे वाले।

रोज थिरकतीं मदहोशी में,
सांझ ढले आशाएं भोली।
स्वप्न अधूरे ठर्रा पीकर,
नमक चाट कर करें ठिठोली।
फुटपाथों पर नग्न गरीबी
पड़ी अगौंछा मुँह पर डाले।

सेंक रही है बैठ विवशता
ईंटों के चूल्हे पर रोटी।
प्यासा गला ढूंढता फिरता
सड़क किनारे नल की टोटी।
भूख निगलती प्याज तोड़कर
हरी मिर्च के साथ निवाले।

अक्सर करते जाम सड़क को,
रैली ,धरने बैनर झंडे।
खिसियाई खाकी बरसाती,
रिक्शे के कूल्हों पर डंडे।
भद्दी भद्दी गाली खाकर,
अपमानों के पीते प्याले।

ठंड गिराती आसमान से,
साथ ओस के भाई-चारा।
एक फटे कम्बल में करते,
राधे-जुम्मन साथ गुजारा।
भिड़ें अजानें शंखों के संग ,
या मस्ज़िद से लड़ें शिवाले।

3

फूटकर अम्मा रोयीं

आँगन में दीवार पड़ गयी सन्नाटा है द्वारे पर।
फूट फूटकर अम्मा रोयीं चाचा से बँटवारे पर।

साँझ लगाती मरहम कैसे
भला भूख के कूल्हे पर !
दुख की चढ़ी पतीली हो जब
आशाओं के चूल्हे पर !

हमने ढलते आँसू देखे तुलसी के चौबारे पर।
फूट फूटकर अम्मा रोयीं चाचा से बँटवारे पर।

तनिक दया भी नहीं दिखायी
सुख जैसे मेहमानों ने !
हृदय दुखाया पल पल जी भर
चाची के भी तानों ने !

एक एककर हवन हो गयीं सब खुशियाँ अंगारे पर।
फूट फूटकर अम्मा रोयीं चाचा से बँटवारे पर।

भाग्य गया वनवास भोगने
हँसी उड़ायी लोगो ने !
नाव हमेशा रही भँवर में
फँसा दिया संयोगो ने !

देख देख बस हँसे जमाना बैठा सिर्फ किनारे पर।
फूट फूटकर अम्मा रोयीं चाचा से बँटवारे पर।

4

छील रही थी घास


एक अचम्भा देखा हमने
आज गाँव के पास।
आसमान से परी उतरकर
छील रही थी घास।

सुंदरता को देख देवियाँ
रहीं स्वयं को कोस !
श्रम की बूँदें यों माथे पर
ज्यों फूलों पर ओस !

चूड़ी की खन खन सँग उसके
नृत्य करे मधुमास।
आसमान से परी उतर कर
छील रही थी घास।

चटक धूप में कोमल काया
दिखे कुंदनी रूप !
धूल सने हाथों से गढ़ती
पावन दृश्य अनूप !

करती जाती कठिन तपस्या
साथ लिए विश्वास।
आसमान से परी उतर कर
छील रही थी घास।

डलिया, खुरपा हरी धरा पर
छेड़ रहे थे तान !
अंग अंग से छलक रहा था
मेहनत का अभिमान !

साथ हवा के करती जाती
मधुर हास-परिहास।
आसमान से परी उतरकर
छील रही थी घास।

5

 सँवरकी

आज अचानक हमें अचम्भित,
सुबह-सुबह कर गयी सँवरकी।
कफ़ ने जकड़ी ऐसे छाती,
खाँस-खाँस मर गयी सँवरकी।

जूठन धो-धोकर,खुद्दारी,
बच्चे दो-दो पाल रही थी।
विवश जरूरत जान बूझकर,
बीमारी को टाल रही थी।
कल ही की तो बात शाम को
ठीक-ठाक घर गयी सँवरकी।

लाचारी पी-पीकर काढ़ा
ढाँढस रही बँधाती मन को।
आशंकित थी, दीमक बनकर,
टीबी चाट रही है तन को। 
संघर्षों से हाथ छुड़ाकर
भव सागर तर गयी सँवरकी।

करवानी थी जाँच खून की,
मदद पाँच सौ माँग रही थी।
हमको लगा गरीबी शायद,
रच फिर कोई स्वाँग रही थी,
फूट-फूट कर रोई पीछे,
सम्मुख हँसकर गयी सँवरकी।

देती रही दुहाई सेवा,
कुटिल स्वार्थ ने व्यथा न जानी।
करती रही याचना झोली
अडिग रहा बटुआ अभिमानी।
वैभव के पनघट से लेकर,
खाली गागर गयी सँवरकी।

खड़ी हुई लज्जित निष्ठुरता,
शव के आगे शीश झुकाये।
पूछ रहा सामर्थ्य स्वयं से,
अब वह किससे खेद जताये।
जाते-जाते, पढ़ा प्रेम के,
ढाई आखर गयी सँवरकी।

6

 कल्लू काका


चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

घर में भूजी भाँग न बाकी 
भूखा पेट बहुत हठधर्मी।
आलस पड़ा भरे खर्राटे
गर्दन तक ओढ़े बेशर्मी।
सैर स्वप्न में करें इरादे 
लन्दन पेरिस दुबई ढाका।

चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

उछल उछल लँगड़ी आशाएं
दिखा रहीं फोकट में सर्कस।
बीड़ी,जर्दा,चिलम,चुनौटी
अद्वी,पौव्वा करें चकल्लस।
पंचायत की धूर्त सियासत
लगा रही बिंदास ठहाका।

चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

नाकामी गढ़ रही बहाने
कुटिल कर्ज की भौंह तनी है।
ब्याज उसे कैसे दे मोहलत
रूठी जिससे आमदनी है।
खर्च डालता मूँछ ऐंठकर,
मिट्टी की गुल्लक पर डाका।

चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

7

करना राम

मन मैंना का इमली जैसा
तन ज्यों कच्चा आम।
घूर रही हैं कामुक नजरें
रक्षा करना राम।

गली गली टर्राकर मेंढक
खूब जताते प्यार  !
मारें बाज झपट्टे निश दिन
टपकाते हैं लार !
उल्लू अक्सर आँख मारते
गिद्ध करे बदनाम ।

दारू पीकर  कछुए ताड़ें
सर्प रहे फुफकार !
गिरगिट करें इशारे फूहड़
घोंघों की सरकार !
अचरज क्या फिर, करें केंचुए
मगरमच्छ का काम ।

जाए कहाँ भला बेचारी
खतरे में है जान !
घूम रहे हैं चूहे तक जब
बन करके हैवान !
धूर्त भेड़िए आँगन कूदें
सुबह दोपहर शाम ।

सोच रहे चमगादड़ बैठे
कर लें इसको कैद !
चोंच मारते कौवे सारे
बगुले हैं मुस्तैद !
किन्तु लिखा है उसके दिल पर
बस तोते का नाम ।

8

 रामधनी


जैसे तैसे कटी अभी तक
मगर भूख से रही ठनी।
शेष बचे दिन कैसे काटे
सोच रहा है रामधनी।

कोरे स्वप्न बिछाये कब तक ,
सोये वह उम्मीदें ओढ़।
कैसे भला छिपाए आखिर,
लिए गरीबी का जो कोढ़।
पक्का याद नहीं इस घर में
कब अरहर की दाल बनी
शेष बचे दिन कैसे काटे
सोच रहा है रामधनी।

आसमान की ओर निगाहें
खपा रहा धरती पर प्रान ।
सींचे खेत पसीने से पर,
तनिक न घर में गेंहू धान।
जहाँ कहीं पर बीज बिखेरे
उगी वहाँ बस नागफनी।
शेष बचे दिन कैसे काटे
सोच रहा है रामधनी।

जीवन पथ की खुशियाँ अक्सर
क्रूर भाग्य लेता है छीन।
निष्ठुर समय उड़ाता खिल्ली
उसको देख विवश अतिदीन।
और विधाता भी करता है
जब देखो तब राहजनी!
शेष बचे दिन कैसे काटे
सोच रहा है रामधनी।

रधिया,मुन्नू और सँवरकी
दिखते सबके सब हलकान।
खींस निपोरे खड़ी जरूरत
कर्जा भरे कुटिल मुस्कान।
घर का खर्च रुपइया हर दिन
नहीं अठन्नी आमदनी।
शेष बचे दिन कैसे काटे
सोच रहा है रामधनी।

9

जाने कितनी बार ठगा


मन के भोलेपन को तुमने
जाने कितनी बार ठगा।

जो कुछ भी था मेरा अपना
कर डाला सब तुमको अर्पण !
देख तुम्हारे छल प्रपंच को,
जी भर रोया व्यथित समर्पण !
स्वप्न दिखाकर केवल झूठे
सच्चा पावन प्यार ठगा।

मन के भोलेपन को तुमने
जाने कितनी बार ठगा।

छाती से चिपकाकर सुधियाँ
पीड़ाओं ने लोरी गायी !
सहलाया दे- देकर थपकी
पर जाने क्यों नींद न आयी !
कर्तव्यों की अनदेखी कर
मनचाहा अधिकार ठगा।

मन के भोलेपन को तुमने
जाने कितनी बार ठगा।

निष्ठुरता ने भला प्रेम के
गीत सुकोमल कब हैं गाये !
पाषाणों ने कब लहरों की
धड़कन पर हैं कान लगाये !
ठगा सिन्धु सी गहराई को
नभ जैसा विस्तार ठगा।

मन के भोलेपन को तुमने
जाने कितनी बार ठगा।

10

लिखकर गीत रात भर रोये


अक्षर -अक्षर प्राण सँजोये
लिखकर गीत रात भर रोये

मतलब के सब रिश्ते नाते
देख देखकर बस मुस्काते
जकड़े बैठी हमें विवशता
हम मुस्कान कहाँ से लाते
कब बुनते नयनों में सपने?
गुजरी उम्र न पल भर सोये
लिखकर गीत रात भर--

निठुर नियति के राग पुराने
दुख बैठे हैं लिए बहाने
किस किससे हम ठगे गये हैं
पीड़ा कहे खड़ी सिरहाने
जीवन भर हम व्यथित हृदय को
सिर्फ निचोड़े और भिगोये
लिखकर गीत रात भर--

साथ नहीं हैं भले उजाले
पर कब हारे लिखने वाले
बात अलग है कदम- कदम पर
फूट रहे पाँवों के छाले
इन छालों की पीड़ाओं को
हम गीतों में रहे पिरोये
लिखकर गीत रात भर--

----- धीरज श्रीवास्तव




संक्षिप्त -परिचय
नाम-   धीरज श्रीवास्तव                                             
पिता-  स्व. रमाशंकर लाल श्रीवास्तव                                  
माता- स्व. श्रीमती शान्ती                                     
जन्मतिथि- 01-09-1974
वर्तमान पता- ए- 259, संचार विहार मनकापुर जनपद--गोण्डा (उ.प्र.)  पिन - 271308
स्थायी पता- ग्राम व पोस्ट - चिताही, जनपद- सिद्धार्थ नगर (उ.प्र.)

संपादन- मीठी सी तल्खियाँ (काव्य संग्रह), नेह के महावर (गीत संग्रह) साहित्य सरोज पत्रिका (उप संपादक)
                                                       प्रकाशन-  मेरे गांव की चिनमुनकी (गीत संग्रह) 'धीरज श्रीवास्तव के गीत( डॉ.सुभाष चंद्र द्वारा संपादित) सहित अनेक साझा संग्रह एवं राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय पत्र -पत्रिकाओं, व ई पत्रिकाओं में रचनाओं का निरन्तर प्रकाशन।

सम्मान--अनेक सम्मान एवं पुरस्कार।

संप्रति --- संस्थापक सचिव, साहित्य प्रोत्साहन संस्थान, एवं "साहित्य रागिनी" वेब पत्रिका।                        मोबाइल नंबर- 8858001681
ईमेल- dheerajsrivastava228@gmail.com

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