शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2023

नवगीत कुटुंब से साभार

------- नवगीत का स्थापत्य -------
 
 नई सहस्राब्दी की भोर में राजेश जोशी ने लिखा था -
 ‘‘कविता की दो पंक्तियों के बीच / मैं वह जगह हूँ / जहाँ कवि की अदृश्य परछाईं 
 घूमती रहती है अक्सर / मैं कवि के ब्रह्माण्ड की / एक गुप्त आकाशगंगा हूँ ।’’
 अर्थात् कवि पंक्तियों के बीच की खाली जगह को अनेक अर्थ-संदर्भों से भरता रहता है । देखा जाए तो यौगिक ध्यान की भी यही प्रविधि है । किन्तु आज की कविता में यह ‘खाली जगह’ कुछ ज्यादा ही बढ़ती जा रही है । आख्यान परकता और काव्यार्थ की सांद्रता का अभाव आज कविता का उपलक्षण बनता जा रहा है । कविता पर आज अकवियों का वर्चस्व है और गीत रक्षात्मक मुद्रा में है । वैश्वीकरण और सर्वसत्तात्मक बाजार के वर्चस्व का प्रत्याख्यान करने वाले कवियों और आलोचकों का काव्य-न्याय नवगीत के विस्थापन की पीड़ा के प्रति असंवेदनशील क्यों ? कविता में अपने सम्पूर्ण समय और समाज को समेटने के आग्रही हमारे गीत-समय और मनुष्य के अंतर्जीवन को छोड़ कैसे देते हैं ? आज की गद्य ब्राण्ड सिन्थेटिक कविताओं और फूहड़ मंचीय तुकबन्दियों के बीचोंबीच सुनहली जीवन-रेखा खींच देने वाले गीतकारों को हम कब तक हाशिये पर रखेंगे ? भाषा के किसान आज आत्महत्या को प्रस्तुत हैं और भाषा के व्यापारी बहुमंजिले मल्टी काॅम्प्लेक्सेज में वातानुकूलित ‘सेज’ पर सो रहे हैं। अनुभव की जैविकता को यथार्थ की अवधारणा ने विस्थापित कर दिया है । किन्तु इस सत्ता-विमर्श में क्या यथार्थाश्रित कविता स्वयं विस्थापित नहीं हो गई है ? गीत की उपेक्षा के कारण ही आज कविता का पतन हुआ है और कहानी और उपन्यास साहित्य की केन्द्रीय विधा बन बैठे हैं । सभी विधाएँ हमारी संवेदना को ही संस्कारित करती हैं और इसीलिए एक-दूसरे से अंतः क्रिया भी करती हैं । किंतु कविता संवेदना की सघनतम अभिव्यक्ति है। पारे की तरह उसका घनत्व लोहे से भी ज्यादा होता है-
टूटती शिराओं में तैर गया पारा,
शायद तुमने मेरा नाम ले पुकारा।
 प्रेम की ही भाँति गीत की पुकार आज भी वेध्य और संवेद्य है। गीत कविता की जीवनरेखा या प्राणधारा है। गीत संवेदना की स्वरलिपि है। समकालीन कविता में उपेक्षित प्रणय-साधना के अनुलोम-विलोम छांदस कविता में संलक्ष्य हैं -
 तू किसी रेल सी गुजरती है,
 मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ। (दुष्यन्त कुमार)
 मुझे लगता है कि नई कविता और नवगीत एक-दूसरे के विरोधी नहीं, सम्पूरक हैं । नवगीत समकालीन काव्य-परिदृश्य को प्र्रति सम्पूर्ण बनाता है । सच तो यह है कि दोनों में संवाद की स्थिति बननी चाहिए, दोनों को एक-दूसरे के निकट आना चाहिए । कविता यदि ‘मानवता की मातृभाषा’ है तो गीत उसकी स्वर-लिपि है। गीत कविता की कोमलतम त्वचा है। अंतःसलिला संगीत, रागानुबन्ध, यथार्थ चेतना, प्रासादिकता, आधुनिक भाव-बोध और वैज्ञानिक दृष्टि को आत्मसात कर नवगीत ने अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व गढ़ा । रूढ़ियों की कट्टर विरोधी होने के बावजूद पारंपरिक मिथकों और सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति वह प्रतिबद्ध है । देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ के अनुसार - ‘‘उसकी आँखों में आस्था और जिजीविषा के धूपमंडित पलाशों की गुलाबी गरमाहट है तो उसकी पसलियों के भीतर करवटें लेते हुए इन्कलाब की एक जादुई झनझनाहट भी है । नई कविता अगर भीड़ और अकेलेपन के बीच की मरीचिका है तो नवगीत को मैं अस्तित्व और अस्मिता के फासलों पर रचा गया धु्रवान्तव्यापी क्षितिज-सेतु कहना अधिक पसन्द करूँगा । पारम्परिक गीतकार स्वयं को ‘कल्पनालोक का राजकुमार’ कहलाने में गौरव का अनुभव करता था। किन्तु नवगीत के सोच की बुनावट लिजलिजी भावुकता के रेशमी तारों से नहीं हुई है । उसने अपनी अविराम साधना के माध्यम से एक जाग्रत बोध को सिरजा है । वह चैराहों पर उगने और उछलने वाले नारों की प्रतिध्वनि न होकर व्यापक जनजीवन का ठेठ देसी परन्तु सहज सांस्कृतिक अनुवाद है । वह अपनी मौलिक लय में बोलता, रंगभरी चित्रमयता में दृष्टि-उन्मेष करता और ताजी हवा के झकोरों से रोमांचित होकर धरती की प्राणदा गंध में उच्छ्वसित होता है ।’’ ............ (नवगीत दशक-1)
 ‘‘चैकड़ी रहीं भरती / मृग सी छलनाएँ / यह खंडित रत्न-मुकुट किसको पहनाएँ।
 घायल दिन / किरनों की टहनी पर लटका /  आँखों में सन्नाटा / घिरता मरघट का
 बरगद पर हस्ताक्षर करतीं छायाएँ /  बजती हैं / कानों में / शंख सी दिशाएँ ।
 यह उचाट मन लेकर / कहाँ-कहाँ जाएँ।।’’
 यही है नवगीत का स्थापत्य जहाँ देश और काल के अनुभवों का सारांश कानों में देर तक बजता रहता है। गीत की दूर-संवेदी ध्वनियाँ हमें देर तक झनझनाती रहती हैं। इस उचटे इन्द्रधनुषी बिम्ब को उल्लास से सींचने के लिए हमें देवेन्द्र कुमार के धान परियों के देश चलना होगा, जहाँ - 
 ‘‘एक मूठ धरती का रंग / आसमानी / गोहुँअन सा ठनक रहा / सरिता का पानी ।’’
 पुरवाई पवन के झकोरों में पानी की आवाज आज कौन सुनता है ? पानी डूब रहा है आज सभ्यता के बीचोंबीच । पानी का संकट शायद सदी का सबसे बड़ा संकट होगा । पानी की इस स्थिति के जिम्मेदार हम ही हैं । यही सोचकर यश मालवीय पानी-पानी हो उठते हैं -
 ‘‘लिखते वक्त कलम में / पत्थर अटका करता है / कथ्य हमारा शीशे जैसा / चटका करता है !
 धार-धार मौसम होता है / लहर फिसलती है / एक मोमबत्ती सूने में / बुझती-जलती है ।
 रह-रह कर मन का दरवाजा / खटका करता है !’’
 परन्तु श्रीकृष्ण तिवारी की अनन्त आस्थावादी दृष्टि लाख चिटकने के बावजूद अपना धर्म छोड़ने को तैयार नहीं-
 ‘‘वक्त की हथेली पर / प्रश्न सा जड़ा हूँ मैं / टूटते नदी-तट पर / पेड़ सा खड़ा हूँ मैं ।
 रोज धूप पीनी है / सूर्यदंश सहना है / कितना भी चिटकूँ / पर दर्पण ही रहना है ।’’
 संक्षिप्तता, गेयता, प्रभावान्विति और आत्माभिव्यंजना के साथ ही मिट्टी की सोंधी गंध गीत की निजी विशेषता है । नवगीत भारतीय काव्य चिंता का सहज विकास है, जीवित संस्कृति की लय है । उसके स्वायत्त संसार में छान्दस् की प्रतिष्ठा है। उसका सरोकार उस आम आदमी से है जो अपनी सम्पूर्ण बेबसी और लाचारी के बावजूद एक कुण्ठा रहित इकाई है । डाॅ0 उमाशंकर तिवारी कहते हैं -
 ‘‘संचय का सुख जान न पाए, जोड़े भी तो सपने जोड़े ।
 इन हाथों से नीले नभ में कितने श्वेत कबूतर छोड़े ।।’’
 आज जबकि बाजार संस्कृति ने न केवल समाज की भीतरी गहराइयों तक बल्कि व्यक्ति के मनोलोक में भी संेध लगा ली है । आज बाजार ने समाज को विस्थापित कर दिया है अथवा समाज का पर्याय बन चुका है । बौद्धिक के संस्थानीकरण और विमर्शों के बाजार में भी उपभोक्तावादी संस्कृति से बाहर खड़े कुछ जुनूनी लोग शब्दों के अर्थशास्त्र को चुनौती देते रहते हैं । तकनीकी हुनर से लिखी गई सिन्थेटिक कविता तो यथार्थ के उत्पादन में संलग्न है किन्तु घटनाओं की अखबारी इतिवृत्तात्मकता को चीरते हुए रचनात्मक यथार्थ का अंकन गीत की रचना-प्रक्रिया भी है और पाथेय भी । हाइटेक डिजिटल संस्कृति के प्रलोभनों से सावधान करते हुए अखिलेश कुमार सिंह कहते हैं - 
 ‘‘जाने किस जादूगरनी ने घर पर नजर लगाई है !
 सूरज-पुत्रों की आँखों में भी झीलें उग आईं हैं ।।
 एक अनोखे सम्मोहन के हाथों हम बन्दी होकर 
 जीवित कहते अपने को, जीवन की परिभाषा खोकर ।।
 दरवाजे पर कई आसुरी छायाएँ झुक आई हैं ।।’’
 अन्तर्जगत में घटित सामाजिक हलचलों का रूपक और विद्रूप यथार्थ का मोहक चित्र ! किन्तु यह मीडिया के जघन्य हत्याकाण्डों को रोचक यथार्थ या सनसनीखेज मसाले के रूप में परोसे गए प्रसंस्करणात्मक यथार्थ से भिन्न नृशंस समय के विरुद्ध संघर्ष में कविता के स्तर पर हिस्सेदारी है । रामचन्द्र चन्द्रभूषण को भी समय की सौन्दर्य-परिक्रमा करते हुए ऐसा ही आकस्मिक अनुभव होता है -
 ‘‘प्रश्नों में गुजर गई एक और शाम !
 सूरज के घोड़ों के पावों में कील गड़ी / चीखती दरारों पर थम गई लगाम ।’’
 त्वरा और त्वचा की धुरी पर नाचते समय के संत्रास का अद्भुत भाव-बोध ! अभी सौन्दर्य-शास्त्र में परंपरा की आधुनिक अवधारणा की पुनप्र्रतिष्ठा की चीखें जिन्दा हैं । सभ्यता के धक्के से संस्कृति का बिखर जाना ! भौतिक प्रगति और सभ्यता के विस्फोट के बीच नैतिक-सांस्कृतिक ठहराव ! छन्दोबद्ध सामाजिक संस्था का व्यक्तित्व विहीन दिङ्मूढ़ भीड़ में विसर्जन ! सांस्कृतिक संक्रान्ति और बदलाव की बयार में पहचान खोते गाँव -
 ‘‘बस्तियों में हुई रोशनी /  रोशनी से जलीं बस्तियाँ ।’’
 यह रोम के जलने पर नीरो के बैठकर बाँसुरी बजाने जैसा नहीं है । बल्कि सबके जलने में खुद को जलते हुए देखना और उस दर्द को लयात्मक बनाना है । सभ्यता का गलत दिशा में भटक जाना है -
 ‘‘गलत पते पर समय-डाकिया / डाल गया शायद /दिन का खत ।’’  ............. नईम
 इसीलिए इस सभ्यता का विपर्यय रचते हुए अज्ञेय उदात्त आकांक्षा से भर उठते हैं -
 ‘‘मैं यह नहीं चाहता / कि मेरे घर में रोशनी हो 
 बल्कि मैं तो यह चाहता हूँ / कि रोशनी के घेरे में मेरा घर हो ।’’
 समष्टि के कल्याण के संदर्भ में आत्मोत्थान की कामना! यह आत्मकेन्द्रित सुखवाद नहीं, आत्मनिष्ठ चिंतन का सामाजिक प्रतिफलन है। बाजारवाद अपने सांस्कृतिक उत्पाद या माल पर एकाधिपत्य रखता है अतः उससे भिन्न सार्वजनिक निजता का प्रकाशन ही तो कविता की मूल आकांक्षा है। इस दृष्टि के अभाव में रोशनी अपने पीछे कितना अंधेरा छोड़ जाती है ! रोशनी के विस्फोट के कारण अमरनाथ श्रीवास्तव की आँखें चैंधिया जाती हैं -
 ‘‘इस तरह मौसम बदलता है / बताओ क्या करें !
 शाम को सूरज निकलता है / बताओ क्या करें !
 यह शहर वह है कि जिसमें / आदमी को देखकर
 आइना चेहरे बदलता है / बताओ क्या करें !!’’
 गीत में रोशनी की इतनी किरणें निकलती हैं कि उन्हें फोकस कर मनुष्य की जड़ता और यन्त्रवत्ता को पिघलाया जा सकता है -
 ‘‘रोशनी के इन्द्रधनुषों पर लटकते / प्लास्टिक के फ्यूज चेहरे ।
 धुुँधलकों में / चरमराती गंध के आखेट / हिचकियों पर / हाँफते संगीत ठहरे ।
 सभ्यता रंगीन दस्ताने पहन / धकिया गई / मासूमियत को / चीरघर में ।’’ 
 ...................... भगवान स्वरूप श्रीवास्तव 
 इन्द्रधनुषी सभ्यता के आलोक में बुझे हुए मनुष्य की यान्त्रिक जड़ता की संवेदना ! हमारे भीतर का मनुष्य शायद मर गया है । इस अमानुषिक प्रक्रिया को अरुण कमल एक दूसरे स्तर पर महसूस करते हैं -
 ‘‘सामने खड़ा है मृतक हँसता / पूछ रहा / कैसी है बँुदिया, कैसा रायता ?’’
 श्राद्ध का भोज खाते हुए ठहाके लगाना और शोक के बजाय स्वाद के प्रति संवेदनशील होना ही हमारी संवेदनहीनता का प्रमाण है । जीवन के व्याकरण में आये विचलन का यह दंश रामानुज त्रिपाठी की प्रश्नाकुलता को भी उद्बुद्ध करता है । संज्ञाएँ खो गई हैं । हम सर्वनामों में बदलते जा रहे हैं । आत्मीय संबंधों का राग-वृत्त छिन्न-भिन्न हो गया है । विश्वास तार्किक आधार खोजने में व्यस्त हैं और मुस्कानों पर विराम लगा हुआ है -
 ‘‘ऐसे भटके कि सारे पड़ाव को / पीछे छोड़ कर आगे बढ़ आये हैं !
 कैसे चरण छुये नए संदर्भों के / टूट रही कबसे संबोधन की देह !
 कहने को सिमट गए गीतों की बाहों में / अर्थों के मन में है किन्तु सन्देह ।
 शब्दों की देहरी पर लेकर के बैसाखी / शायद अपाहिज सवाल चढ़ आये हैं !!’’
 ये सवाल केवल कविता के बाहर सामाजिक संरचना के विखंडन से ही सम्बन्धित नहीं, कविता के आन्तरिक विन्यास से भी संबद्ध हैं । चंचल पूँजी, ऐन्द्रजालिक तकनीकी और बाजार द्वारा रची गई बिम्बों की प्रतिभाषा या आभासी यथार्थ की प्रतिक्रिया में समकालीन कविता की बिम्बों से बचाव की भाषा भी प्रश्नों के घेरे में है । यह कुछ-कुछ उस ऐतिहासिक सत्य जैसा है कि मध्यकाल में हिन्दुओं ने मुगलों द्वारा स्पर्शित अपनी कन्याओं को आसानी से छोड़ दिया । अथवा पाकिस्तान के परमाणु बम बना लेने के बाद हम बम बनाना छोड़ दें। हमें उससे शक्तिशाली बम बनाना होगा । सामाजिक हलचलों और युगीन परिवर्तनों के सापेक्ष कविता को मीडिया से तेज दौड़ना होगा । राष्ट्रकवि दिनकर कहते हैं-
 ‘‘सुनूँ क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा / स्वयं युगधर्म की हुंकार हूँ मैं ।’’
 इसलिए कविता के भविष्य की नहीं, भविष्य की कविता की चिंता करनी चाहिए । किंतु इसके लिए मनुष्य के मनोजगत का अनुकूलन नहीं, उसके संवेदनात्मक विवेक को उद्बुद्ध करना चाहिए । किंतु यह काम न वे फोटोजेनिक चेहरे कर सकते हैं जो अपने हर नाइट शो का रेट फिक्स करते हुए स्वयं बाजार का हिस्सा हो जाते हैं, न वे जन्मजात क्रान्तिकारी जो बाजार में आकंठ डूबे रहकर, उसके संसाधनों का जमकर उपभोग करते हुए भी बाजार को गरियाते रहते हैं । शान्ति और समृद्धि के समय में भी क्रान्ति ‘यथास्थितिवाद’ का अन्धविरोध जिनका मौलिक एजेंडा है । सामासिक संस्कृति के इस बहुलतावादी देश में भी जिन्हें केवल माक्र्सवादी साहित्य ही चाहिए । जो तोते की तरह ‘धर्म निरपेक्षता’, ‘साम्प्रदायिकता’ और ‘फासीवाद’ की रट लगाते हुए अपने ब्लाइण्ड-स्पाॅट को देखने के लिए तैयार नहीं । निरामिष चिंतन में जिनका विश्वास नहीं । वीरेन्द्र मिश्र युद्ध की विडम्बना को लक्ष्य करते हुए कहते हैं -
 ‘‘कन्धे पर धरे हुए खूनी यूरेनियम / हँसता है तम,
 युद्धों के मलबे से उठते हैं प्रश्न / और गिरते हैं हम ।’’
 ‘राम की शक्ति पूजा’ का वह प्रसंग याद आता है जब ‘निबिड़ जटा दृढ़ मुकुट-बन्ध’ से विन्यस्त राम युद्ध से उपराम हो शक्ति-प्रार्थी पुरश्चरण में लीन हैं । परीक्षा की प्रक्रिया में अन्तिम क्षणों में एक इन्दीवर गायब हो जाता है । तब राजीव नयन राम अपनी एक आँख निकालकर अर्पित करने को तैयार हो जाते हैं । क्या छंद के अनुष्ठान में कम पड़ गए शब्दों या वर्णों से उत्पन्न रिक्तता को अन्तर्दृष्टि के विन्यास से भरने का संकल्प आज की कविता में दिखाई पड़ता है ? भाव-साधना के अभाव में कविता बनने से पहले ही बुझ जाती है । काॅलरिज का एक बहुत अर्थपूर्ण कथन है कि ‘‘गहरी भावनाएँ गहरे विचार की कोख से जन्मती हैं ।’’ भाव और विचार के गहरे संश्लेष से ही कालजयी कविता संभव होती है । ऐसी कविता समय से गहरी संपृक्ति के बावजूद देशकाल का अतिक्रमण करती है । 
 सघन आत्म-परीक्षण और परम्परा का पुनर्गठन करते हुए अशोक वाजपेयी कहते हैं -
 ‘‘हम उठाते हैं एक शब्द / और किसी पिछली शताब्दी का / वाक्य-विन्यास विचलित होता है ।’’
 किसी बड़े कवि के सम्मुख छिपे ऐतिहासिक अर्थ और स्मृृति के पुनर्संयोजन का गंभीर दायित्व मौजूद रहता है । केदारनाथ सिंह कहते हैं कि ‘‘जब हम कलम की नोंक पर पूरी परंपरा का बोझ सम्हालकर लिखते हैं’’ तभी परात्पर कविता संभव होती है । इतिहास के आइने में ही हम अपना चेहरा सँवार सकते हैं । औपनिषदिक चिंतन, पुरा प्रतीकों और मिथकों को अपने समय में उपलब्ध करते हुए कुँवर नारायण नें एक वृहत्तर जीवन की संकल्पना दी है - 
 यहाँ से भी शुरू हो सकता है / एक उपरांत जीवन / पूर्णाहुति के बिल्कुल समीप बची रह गई / किंचित् श्लोक बराबर जगह में भी / पढ़ा जा सकता है एक जीवन संदेश ।’’ 
 किन्तु यहीं सम्पे्रषणीयता या साधारणीकरण की समस्या उठ खड़ी होती है । बल्कि उससे अधिक संवेदनात्मक धारिता की - 
 ‘‘किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी / किसी ने पढ़ा किंतु दो बूँद पानी ।’’
 न जाने कितने त्योहारों की होली जलाकर तो एक कविता उपलब्ध होती है । गहरे आत्मरति से गुजरकर तो एक कविता का जन्म होता है । किन्तु प्रसव-पीड़ा की अनुभूति से अनभिज्ञ रचना का रक्त-परीक्षण डाॅ0 शम्भुनाथ सिंह को व्यथित करता है । पाठान्तर या अर्थ-विचलन के संदर्भ में याद आ रही हैं पाब्लो नेरूदा की पंक्तियाँ -
 ‘‘कभी एक उँगली भी मेरे खून में न डुबोने वाले / क्या कहेंगे मेरी कविताओं के बारे में ?’’
 पीड़ा के इसी सौन्दर्य-बोध का बिन्दु-पथ अपनी समस्त संगीत-लिपियों के साथ रूप नारायण त्रिपाठी की इन पंक्तियों में मौजूद है -
 ‘‘भोर की बाँसुरी गीत छलका गई / जिंदगी में नई जिंदगी आ गई ।
 फूल की डबडबाई हुई आँख में / रात के आँसुओं को हँसी आ गई ।।’’
 और यहीं उपस्थित हो जाती है नवगीत की भूमिका । यदि कविता और काल के अक्षांश और देशान्तर को मापने वाले नरेश मेहता के ‘समय देवता’ सार्वकालिक हैं तो शम्भुनाथ सिंह द्वारा ‘समय की शिला पर’ बनाये गए मधुर चित्र भी अमर हैं । यद्यपि अपनी मूल प्रतिज्ञा में यह गीत जागतिक नश्वरता और क्षणबद्ध अनुभूति को सम्बोधित है -
 ‘‘जलधि ने गगन-चित्र खींचा नयन में / उतरती हुई उर्वशी देख घन में ।
 अचल किन्तु चलचित्र ये हो न पाये / कि सहसा बुझी रूप की ज्योति क्षण में ।
 जलद-पत्र पर इंद्रधनु रंग कितने / किरण ने सजाए, पवन ने उड़ाए ।’’
 दार्शनिक अनुभूति का काव्यांतरण ! ऐन्द्रजालिक रूप और प्रणय के इस रंग-क्षेप को नरेश मेहता के ‘उषस्’ शीर्षक गीत से मिलाकर पढ़ा जा सकता है -
 ‘‘नीलम वंशी में से कुंकुम के स्वर गूँज रहे !
 अभी महल का चाँद किसी आलिंगन में ही डूबा होगा।
 कहीं नींद का फूल मृदुल बाँहों में मुसकाता ही होगा ।
 नींद भरे पथ में वैतालिक के स्वर मुखर रहे !
 राधा की दो पंखुरियों में मधुवन झींम रहे !’’
 किंतु यहाँ उर्वशी जमीन पर उतरती है और उसके गीतों की फैलती हुई किरनें चक्की (जाँत) से आती हुई प्रतीत होती हैं -
 ‘‘गीत न टूटे जीवन का यह कंगन बोल रहे !’’
 गीत का पर्यवसान श्रम-संगीत में ! यही गीत की अपनी जमीन है जहाँ जिन्दगी की सारी थकान दूर करने आते हैं हम ताकि पुनः जीवन-संघर्षों के लिए नई ऊर्जा ग्रहण कर सकें । गीत सामाजिक संघर्षों के बीच सौन्दर्य की तलाश है। इसके उलट बौद्धिक कविता और थका डालती है । आस्वाद और औदात्य जहाँ गाली बन गए हैं । जहाँ भाषा का स्वप्न नहीं, भाषा में स्वप्न को अपदस्थ होते देखा जा सकता है । जहाँ विचारधारा का ऐन्द्रिय संवेदन से सत्यापन जरूरी नहीं । शायद कुछ लोगों को मेरी बातें आधुनिकता के भीतर ही रूढ़िवादी प्रत्यावर्तन जैसी लगें पर सच यही है । दिनेश कुमार शुक्ल जब मनुष्य के कैशोर्य को याद करते हैं -
 मैंने आग लगा दी है इन्द्रधनुष में / फिर भी न जाने क्यों 
 पसीने सा छलछला उठता है मेरे ललाट पर / सौन्दर्य की विस्मृति में खोया हुआ / मेरा कैशोर्य ।’’
 माथे पर पसीने सी छलछला उठती हैं किशोर स्मृतियाँ ! तो क्या इसे भावुक नाॅस्टैल्जिक सन्दर्भ मान कर पोंछ दिया जाय ? आज सम्पूर्ण जैव-सांस्कृतिक विविधता नष्ट हो रही है । परम्परा, पर्यावरण, भाषा, संस्कृति वैश्वीकरण के बुलडोजर से रौंदे जा रहे हैं -
 ‘‘अचानक ही उस शरद की रात्रि में / चन्द्रमा सुदर्शन चक्र की तरह / 
 पृथ्वी की ओर बढ़ता देखा गया ।’’
 यह एकसाथ चाँद की चढ़ाई और धरती का पराभव काल है । जयप्रकाश ठीक कहते हैं कि ‘‘यह नृ-केन्द्रिक संसार के उत्कर्ष का समय है और विडम्बना है कि इस समय को रचने वाली शक्तियाँ नृ-घातक रूप धर चुकी हैं ।’’ हमारी उँगलियों पर नदियों का दूध नहीं, रक्त चिपचिपा रहा है । आसमान में हिलते हुए धरती के हाथ कलम किए जा रहे हैं । पहाड़ों की आँतें निकाली जा रही हैं -
 ‘‘अब आएँगे पर्वतों के पंख काटने वाले / वज्रधर इंद्र के वंशज
 बारूद की गंध फैल जाएगी हवा में / उनके टूटने की गंध के ऊपर / क्या धरा है भू में
 इन भूधरों की छाँह के गुजर जाने के बाद !’’
 ज्ञानेन्द्रपति की आँसुओं से भरी आँखों का सौन्दर्य ! हम रोते भी हैं तो गीतों में । गीतों में गाली भी अच्छी लगती है । मनुष्यता के विनाश की कीमत पर मनुष्य का अंतहीन विकास ! समूची धरती न जाने किस ब्लैकहोल में समाती जा रही है ? मनुष्य के सर्वसंहारी आत्म-विस्तार को टोकते हुए श्रीकृष्ण तिवारी कहते हैं -
 ‘‘हर आँगन जलता जंगल है, दरवाजे साँपों का पहरा ।
 बहती रोशनियों में लगता, अब भी कहीं अँधेरा ठहरा ।
 धरती हर क्षण टूट रही है, जर्रा-जर्रा पिघल रहा है,
 चाँद-सूर्य को कोई अजगर, धीरे-धीरे निगल रहा है ।
 जब तक यह बारूदी घर है / तब तक चिनगारी का डर है ।।’’

 अतियथार्थवादियों से प्रो0 विद्यानिवास मिश्र की जन्मकुण्डली मेल नहीं खाती थी । वे कहते थे - ‘‘जो कुछ हमारे शरीर के भीतर है यदि वही सब बाहर ला दिया जाए तो दिन भर कौओं और कुत्तों को भगाते बीतेगा।’’ कविता में यथार्थ को प्रच्छन्न या अन्तव्र्याप्त रहना चाहिए। बड़बोलापन यहाँ अशुभ लक्षण है । प्रच्छन्न शोषण, भूख या आर्थिक-सामाजिक विषमता को अरुण कमल ने आत्मपरक शैली में मार्मिक अभिव्यक्ति दी है - 
 ‘‘माफ करना, प्यास से तड़पते लोगों ! / आज मैं दो बार नहाया ।’’
 जिन्दगी के बोझ से ढँकी आँखों वाले मजदूर उनके सपनों में सूराख करते हैं । इसी वैषम्य या गहरी खाईं को श्रीपाल सिंह ‘क्षेम’ कुछ अतिरंजित और सांद्र रूप में महसूस करते हैं -
 ‘‘एक सागर किसी के लिए कम यहाँ / एक कण के लिए और तरसा करें ।
 सूखते जन-सरोवर बिलखते रहें / सिन्धुओं में महामेघ बरसा करें ।।’’
 नहीं, अब इत्यादि लोगों यानी जन और अभिजन के बीच एक समरस सम्बन्ध स्थापित होना चाहिए । जन के राजतिलकोत्सव में अभिजन आशीर्वचनों के लिए आमंत्रित हों । किन्तु अमरनाथ श्रीवास्तव को अभी यह दूरारूढ़ कल्पना ही लगती है । इस आशंसा को वे कलात्मक रूपबंध में विन्यस्त करते हैं -
 ‘‘सूरज जब देता है धूप के निवाले / हाथ बढ़ा देते ऊँची फुनगी वाले ।’’
 योग्यतम की उत्तरजीविता के इस दर्शन की अनेकायामी सूक्ष्म अभिव्यक्तियाँ हमारे सामाजिक जीवन में देखने को मिलती हैं । परदे के भीतर इसकी खूबसूरत अभिव्यक्ति गुलाब सिंह के यहाँ थरथराते शब्दों में -
 ‘‘बाँस पर बैठे परिन्दे / हवा का रुख भाँपते हैं,
 जब हवेली में लगे / रंगीन परदे काँपते हैं ।
 एक शहजादी समय पर / छींट जाती चारदाना ।
 जाल है भीतर नदी के / घाट से हटकर नहाना !
 धूमिल ने शोषक-शोषित सम्बन्धों को बड़ी तल्ख भाषा में अभिव्यक्ति दी है -
 ‘‘लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो / उस घोड़े से पूछो जिसके मुँह में लगाम है ।’’
 शोषकों के कृपापात्र स्नायु-दौर्बल्य का शिकार हो जाते हैं । उनके बीच एक तनाव भरा रिश्ता होता है -
 ‘‘ये जिसकी पीठ ठोंकते हैं / उसके रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है ।
 ये मुस्कुराते हैं / और दूसरे की आँख में झपटती प्रतिहिंसा / करवट बदलकर सो जाती है ।’’
 ये पंक्तियाँ कार्यार्थ की सान्द्रता या अर्थ-सघनता का अहसास नई कविता की सामथ्र्य का खुद परिचय कराता है। पर यह भी सत्य है कि ऐसी घनत्वपूर्ण पंक्तियाँ पूरी कविता में कम ही मिलती हैं। पत्थर तोड़ने वाले श्रमिकों के प्रति क्रूर पत्थर-दिलों पर अपने गीतों की छेनी से गुस्से की लकीरें खींचने वाले अवध बिहारी श्रीवास्तव बहुत याद आते हैं । वात्सल्य की छाँव से वंचित बाल-श्रमिकों के लिए वे अपनी ही कविता की छाती में उतरा हुआ दूध बनकर आते हैं -
 ‘‘नन्हें हाथ जहाँ लोहे के फूल खिलाते हैं / जिनकी नींदों में रोटी के सपने आते हैं,
 जिनकी पीठों की कालीनें बिछने जाती हैं / चाँदी की चाबुकें जहाँ सर पर मँडराती हैं,
 आँच कभी माँ की छाती की जिनको नहीं मिली / जिनके भीतर रिश्तों वाली गरमी नहीं पली,
 जिन्हें पता ही नहीं कि कैसा होता घर-आँगन / कूड़े पर रोटी तलाशता बीत रहा बचपन,
 उन्हें देखकर अपनी ही कविता की छाती में / उतरा हुआ दूध बनकर मैं ही तो आता हूँ ।
 ठहरो, माँ के थके पाँव धोकर बतलाता हूँ ।।’’
 किन्तु जन गीतकार नचिकेता पीड़ित को सहलाते नहीं, व्यवस्था के ऊपर उँगलियाँ नहीं, हाथ उठाते हैं । विरल घनत्व की भाषा में लिखी उनकी कविता की हस्तरेखा पढ़े -
 ‘‘अगर प्यार है, जिजीविषा है / और सृजन की अभिलाषा है ।
 तनी हथेली के अक्षर से / लिखी मुक्ति की परिभाषा है ।’’
 किन्तु नन्दीग्राम के संदर्भ में किसान-संघर्ष की रक्तरंजित विफलता हमें नए सिरे से सोचने पर विवश करती है। लीलाधर जगूड़ी कहते हैं -
 ‘‘सारे रास्ते पेट तक जाकर गुम हो गए हैं / और पड़ोसी अपनी औकात से भी कम हो गए हैं ।’’
 कविता का काम सिर्फ यथार्थ की फोटोग्राफी या समाज के अंतःकरण का एक्सरे करना नहीं है, उसका दायित्व उपचार या दिशा निर्देश करना भी है । एक भिन्न स्तर पर मैंने भूख या जैविक संरचना के अतिक्रमण की शब्द-साधना भी की है -
 ‘‘ जा रहा हूँ भूख को उपवास का मैं अर्थ देने / निज चिता की भस्म से भगवान को मैं जन्म देने,
 संहार को मैं सृजन का अधिभार देने जा रहा हूँ / बुद्ध के क्षणवाद को विस्तार देने जा रहा हूँ ।
 उस मिथक को तोड़ने मैं आ रहा हूँ ।’’
 पे्रम मनुष्य की कमजोरी नहीं, उसकी शक्ति है । वह यथार्थ और विवेक का आच्छादन नहीं, उसे उद्भासित करने वाली ऊर्जा है -
 ‘‘थकते हुए हाथ में मेरे / तेरी दृष्टि कलम हो जाती । 
 केवल बाहर की आँखों से / ऐसी दृष्टि नहीं दिखती है ।
 हम हैं ऐसे गीत कि / जिनका अक्षर-अक्षर तू लिखती है ।
 कैसे रोज पिघल कर तू / इन आँखों में शबनम हो जाती ।
 जिसे मिली अमृता दृष्टि तो / उसे शिकायत रही न विष से,
 एक बूँद भी रिस जाए यदि / लाखों परतों की जुम्बिश से ।
 चुटकी भर भी प्यार मिले / तो पीड़ा थोड़ी कम हो जाती ।’’
 संयत रूमानियत को काव्य-मूल्य के रूप में लेकर अवतरित होने वाले वीरेन्द्र मिश्र यदि अमृत के रूप में विष का अनुवाद करते हैं तो श्रीपाल सिंह ‘क्षेम’ का दिनमान भी उषा की मधुर छाँह छूकर ही स्फूर्ति पाता है और दिनभर गाता रहता है -
 एक पल को उषा की मधुर छाँह छू / साँझ तक मौन दिनमान गाता रहे ।
 नयन से व्योम का तम निगलता रहे / भूमि पर ज्योति का गान छाता रहे ।
 चाहता था विरह की रचूँ जिन्दगी / बात मेरी मिलन की अधूरी रही ।’’
केदारनाथ सिंह कहते हैं -
 ‘‘जहाँ लिखा है प्यार / वहाँ लिख दो सड़क / कोई फर्क नहीं पड़ता
 मेरे युग का मुहावरा है / कोई फर्क नहीं पड़ता ।’’
 फर्क तो पड़ता है भाई ! महानगरीय सभ्यता के रोबोट-मानवों पर, जो प्रकृत जीवन से बहुत दूर हो चुके हैं -
भले कोई फर्क न पड़े पर गाँव के घरेलू जीवन पर प्राकृतिक परिवर्तनों का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है - 
 ‘‘टूट रही है देह सुबह से / उलझ रही हैं आँखें 
 फिर बैठी मुँडेर पर मैना / फुला रही है पाँखें ।
 मेरे आँगन महुआ फूला / मेरी नींद हराम ।’’ ........................ कैलाश गौतम
 छोटी उमर सयाने सपनों से सजी गोरी देह गहागह पियरी पहने भाभी का जब हमार मन-प्रांगण में पदार्पण होता है तब कविता का तेवर देखने लायक होता है -
 ‘‘क्या कहते हैं / पढ़ने लायक सरसों के तेवर ?
 भाभी खातिर कच्ची अमियाँ / बीछ रहे देवर ।’’
और वह अमियाँ जब भाभी के भीतर अंकुरित होती है तो सारे छंद टूट जाते हैं और देहयष्टि का आत्म-विस्तार चुलबुले बिम्बों की सृष्टि करता है । कैलाश प्रकृति के परिवर्तनों को मानवीय सरोकार देने में बड़े कुशल हैं । तन की, मन की बारीक संवेदनाओं को उकेरने में सिद्धहस्त कैलाश के बिम्बों की विशेषता उनके नयेपन में नहीं, अनूठेपन में है । चैत गेहूँ की पकती बालियों में बाद में उतरता है, हिचकी लेती बुआ के डोली में बैठने में पहले आ जाता है । गाँव के घरेलू परिवेश को मनसायन (मुखर) करने वाले इन गीतों की सृष्टि गाँव के तपोवन में सिर्फ पिकनिक मनाने वालों से संभव नहीं । वैसे इस समय लेखन के क्षेत्र में भी शहरी जमीन की कीमत बढ़ गई है । पर पर्यावरण संकट के इस दौर में हमारे रचना समय को अन्ततः गाँव में साँस लेनी होगी । इसीलिए नवगीतकार दुनियाँ भर की बड़ी-बड़़ी बातें छोड़कर गाँव-घर की आत्मीय दुनियाँ की बात करता है । शंभुनाथ सिंह यदि गमलों को धूप से हटाने और बुझी हुई अंगीठी को जलाने की बात करते हैं तो डाॅ0 जीवन शुक्ल के यहाँ नये साल की सुबह गैस के सिलेण्डर से चूल्हे की अनबन है । करवाचैथ के आलम्बन उमाकांत मालवीय के दर्पन पर सिन्दूरी छींट की आभा है तो श्रीकृष्ण तिवारी की परछाईं आदमकद दर्पण से टकराकर हजारों कोणों में विभाजित हो जाती है । उनके यहाँ बाँस-वनों की सीटियों की गूँज से सन्नाटे की झील पाँव तक थर्रा जाती है तो माहेश्वर तिवारी को सन्ताप के क्षणों में घर की याद आती है -
 ‘‘धूप में जब भी जले हैं पाँव / घर की याद आई ।’’
 आनुभूतिक अद्वैत की गहन अभिव्यंजना शिवओम ‘अंबर’ की इन पंक्तियों में हुई है -
 ‘‘कृष्ण के पाँव मंे पड़े छाले - राधिका धूप में चली होगी ।।’’
 इस प्रेमयोग का प्रवर्तक अपरूप लावण्य और साहचर्य की प्रशस्त पृष्ठभूमि है । अज्ञेय के सहचर नेमिचन्द जैन भी किसी रूपपरी के अधखुले नेत्रों के वातायन से आती हुई तरल जुन्हाई (चाँदनी) में नहा उठते हैं और उस छवि के परिमल की मिठास से भाराकुल वासन्ती बयार चंचल नयनों के ऊपर से हठीले सुरभित केशों को हटा देती है और कवि सपनों के मदिर भार के कारण उन आँखों की गहराई में डूब जाता है -
 ‘‘डूबती निस्तब्ध संध्या / विरल सरि का चिर अनावृत गात / 
 जो किसी की आँख के अभिराम जादू के परस से / हो उठा है लाल ।’’ .................... (तारसप्तक)
 किन्तु अब यह सौन्दर्य-बोध गाँव के दिगंचल और दृगांचल से निरस्त हो उठा है । गुलाब सिंह गाँव के सूनेपन की पुकार पर कविता के गाँव लौटते हैं -
 ‘‘सूने-सूने अलाव / शाम बिन ठहाकों की । / चर्चायें औरों की / कटी हुई नाकों की ।।
 छोटी सी दिल्ली / हर कोना दालान का । /  नहर गाँव भर की है / पानी परधान का ।।’’
 बुद्धिनाथ मिश्र की बागमती घर आँगन ही नहीं धो गई, बालो पंडित जी की मड़ई भी डुबो गई और दुखनी की आँखों की कोर भी भिगो गई । इसीलिए भगवान स्वरूप श्रीवास्तव को लगता है कि धुँधुआती कंदीलें बेहतर थीं, सूरज ने तो चिकोटी काट ली । सभी गंध लेख पथरा गए और हम अनुत्तरित प्रश्नों से पेपरवेट के तले दब गए हैं -
 ‘‘मेजों पर रोपें संकल्पों के कल्पवृक्ष / आँखों में कुचल गए स्वप्न हरसिंगार के ।’’
 फलतः कंधों पर अपना ही बोझिल कंकाल लिए पंथहीन पाँव चल रहे हैं । मंजिल कहाँ है ? केदारनाथ सिंह एक किसान की आत्महत्या का मार्मिक बयान करते हैं -
 ‘‘बस यहीं पहुँच कर अटक जाती थी उसकी गाड़ी / सूर्योदय और सूर्यास्त के विशाल पहियों वाली
 ज्यों ही वह पहुँचा मरखहिया मोड़ / कहीं पीछे से एक भोंपू की आवाज आई /
 और उसे कुचलती चली गई ।’’
 शायद उसने मौत की फसल काट ली थी । होठों में हल्की सी मुस्कान दबाए वह चकवड़ घास की पत्तियों के बीच पड़ा था । शायद इसीलिए नईम के यहाँ कबूतर बनकर मुँड़ेरों पर पूर्वज पंख फड़फड़ाते हैं -
 ‘‘फड़फड़ाते हैं मुँडेरों पर कबूतर / मेघ तीतर वर्ण, संध्या खून से तर ।’’
 इसीलिए बीच आँगन में खड़ी अपराजिता तुलसी ही नहीं, रोशनी के फूल भी मुरझा गए हैं । बूढ़े शहर की परछाइयाँ सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं । समय बीतता गया । मामला ठंडा पड़ गया पर योगेन्द्रदत्त शर्मा को लगता है -
 ‘‘बर्फ सी ठंडी हुई है रेत / पर खरगोश अब तक तिलमिलाता है !
 डबडबाई हुई आँखों में / वही बस दृश्य अक्सर झिलमिलाता है ।’’
 इस तरह की घटनाओं की बार-बार की आवृत्ति ने हमें प्रायः अभ्यस्त और संवेदन शून्य बना दिया है । जैसे कुछ हुआ ही न हो । हिमदंती हवा देह बींधती रही और ज्वालामुखी बर्फ में ढलने लगे -
 ‘‘धुएँ गीली आँख के काजल हुए !  सूर्य-देही अब सजल बादल हुए ।’’
 अक्षर-अक्षर स्याही आँजे नवगीत का शिल्प चिटक गया - जिस पर स्वप्नगंधा रोशनी का छंद फिसलता है । सूरज छूने की इच्छाएँ घर की कैद बन गईं तो ‘लाजो’ दिल्ली में बसकर शरमाना भूल गई । इस सर्वव्यापी बदलाव के दौर में भी विजय किशोर मानव भूख-प्यास के बोझ तोलते, भरे धुएँ में पंख खोलते पानी पर दिया बनकर जलने को तैयार हैं -
 ‘‘नदी जेठ की लगती काया / सिरपर सिर्फ धूप की छाया ।
 कब तक बनकर दिया जलोगे पानी पर ?’’
 इन प्रश्नों के आलोक में सड़कों ने दिनभर दुर्घटनाओं के पाठ पढ़े । संदर्भ से कट कर जीता हुआ विषय, अपनी ही छाया से डरे हुए लोग यदि सभ्यता का विपर्यय रचते हैं तो कभी-कभी कमरे की चुप्पी भी बातें करने लगती है -
 ‘‘वासनाएँ जिन्दगी से भी बड़ी हैं / प्यास बनकर उम्र की छत पर खड़ी हैं ।
 तृप्ति के पथ पर मरुस्थल सो गए हैं / हम भटकते रास्तों में खो गए हैं ।।’’
 कुहरे की पर्तों में लक्ष्य-बिन्दु खो गए । नीम की हिलती हुई परछाइयों के दर्द और तनाव, चेहरे पर थकान के जाले बुनने लगे । तिनकों को आँधी के खूनी जबड़े निगल गए और लगा कि हम फुटपाथों की दीवारों में कीलों से जड़ दिए गए हैं । तभी अचानक देह से लिपटी यादों के आयाम अनुष्टुप छंद रचने लगे -
 ‘‘हौले-हौले गगन झुक रह, धरती उड़ती जाए ।
 फसल पुकारे मेघों को, फसलों को मेघ बुलाए ।
 मैं परदेसी तुझे पुकारूँ, तू मुझको घर से ।
 ना माने बदरवा बरसे ।।’’ ........................... डाॅ0 रामदरश मिश्र
 रसवर्षा और प्रकृत काव्य-प्रवाह की दृष्टि से रामदरश मिश्र का गोत्र भवानी प्रसाद मिश्र से मिलता है । सावन में साजन से सुहागिन का मिलन देखें -
 ‘‘पीके फूटे आज प्यार के पानी बरसा री!’’
 उल्लास और अवसाद के मिलन का धूपछाँहीं तनाव - विगत वर्ष की डरावनी परछाइयों के साथ नए वर्ष का आगमन आँखों में चलचित्र सा तैर उठता है - 
 ‘‘देहरी पर आ बैठा / एक नया साल और !
 फिर से आए मन में / दूध के उबाल और !’’  ..................... जहीर कुरैशी
 सपनों के मछुओं ने जाल फैला दिए, यद्यपि हर अपाहिज वेदना द्रौपदी का चीर हो गई है । हर आइना बिम्ब को पीता हुआ लगता है । चाँदनी ने अपनी गंध कौड़ियों में बेच दी है । आयातित अंधकार के पीछे दौड़कर हमने स्वयं सूरज की उँगलियाँ छोड़ दी हैं । फिर भी आग छूकर ही हमने जलन-अनुभव कमाया है । और हम जानते हैं कि दृष्टियों का कसैलापन कसमसाती प्रीति में बदला जा सकता है । कंकड़ फेंक कर देखो तो ! जल की सभी गहराइयाँ काँप उठती हैं। नागफनी को अमलतास से अपदस्थ किया जा सकता है -
 ‘‘झरते हैं आस-पास / पियराए अमलतास ।
 थकी हुई गायों सी / निंदियाती शीशम की छायाएँ / तालों पर कर रही जुगाली ।
 बैंजनी दरारों सी / चीलें उड़तीं नभ पर । / दूर अभी संध्या सिंदूर पंख वाली ।’’
 याद आती हैं कालिदास की किन्नरियाँ जो गैरिक सिन्दूर से पे्रम-पत्र लिखती हैं । यह है गीत का स्थापत्य और छायादु्रमों के पत्तों पर दहकते धूप के अक्षर । जिन लोगों को लगता है कि दो-एक संकलनों के बाद गीतकार बुझता हुआ नजर आता है उन्हंे अपने दृष्टिदोष का इलाज कराना चाहिए । गीत ‘गेहूँ’ नहीं, जिसे हार्वेस्टर से काटा जाए, वह तो ‘गुलाब’ है जिसमें खेत-खलिहान की महक मिली हुई है -
 ‘‘तान ली है फूलों की काम ने कमान ! / गंध की ऋचा बाँचें खेत-खलिहान ।
 विश्व-व्यापी वेदना का नशा सब पर चढ़ गया - या थर्मामीटर का ही बुखार बढ़ गया ।
 आदमी की कौन कहे, आम भी बौरा गए, होली में रंगों से पेड़ भी नहा गए ।’’ 
 .............. अजित कुमार राय
 प्रिया को छद्म नाम से पुकारने वाला गीतकार वक्त की मीनार पर उसके साथ खड़ा है । यादों के अपशकुनी चेहरों को छोड़कर उखड़ी दीवारों पर स्वस्तिका रचाता हुआ, होठों पर चिकनाए गीले आमंत्रण को दोहराता हुआ गीत सिर्फ प्रश्नों और समस्याओं की रिपोर्टिंग नहीं, वह शम्भु-शरासन को उठाने का उद्योग है । आणविक विखंडन तथा काॅस्मिक हलचल से लेकर नवांकुर के प्रकंपन तक से उसकी गहरी पहचान है । ग्रीष्म की झलझलाती - तपती सड़कों पर नंगे पाँव चलते हुए, ट्रेनों-बसों के घर्घर नाद को स्वायत्त करते हुए उसने अपने आप को एक नई संगीतात्मक अस्मिता प्रदान की है । छोटी-छोटी चीजों और मानसिक स्थितियों के माध्यम से मानवीय उपस्थिति को दर्ज किया । जिंदगी के समूचे तिलिस्म को विडंबना-बोध के रूप में बिंबित किया । किन्तु जन-बादी कविता के शोर को संगीत में बदलने के बावजूद उसे कविता की नागरिकता प्रदान नहीं की गई -  ‘‘शोर में डूबे हुए हैं क्रान्ति के स्वर ।’’
 विजय कुमार बात के भीतर से बात निकालने वाली अन्तदृष्टि से रहित आज की आइडियावाद की मारी फास्ट-फूड कल्चर की कम्प्यूटर-पोएट्री से त्रस्त तो हैं पर विष्णु खरे की सरल सी दिखती कविता के जटिल शिल्प से उबर नहीं पाते ।
 आत्मानुशासित संतों के समाज में पुलिस की कोई जरूरत नहीं होती । किन्तु इस बहुरूपी समाज में साधुवेश में ही सीता का अपहरण होता है । छंदों के अनुशासन से मुक्त होकर बहुत अच्छी कविताएँ लिखी गईं किन्तु इसी व्यवस्था ने कविता में गद्य की घुसपैठ को वैधता प्रदान की, कविता में गद्य के विन्यास को महिमा मंडित किया । यही नहीं, कुछ निर्गुणोपासक आलोचकों ने उन रचनाओं में अपनी आत्मा का प्रतिबिम्ब भी देखा, रचना में जो नहीं है उसे भी पढ़ा । सो खोटे सिक्कों ने खरे सिक्कों को चलन से बाहर कर दिया । किन्तु गीत के पास स्वर्णमुद्रा की तरह इन्ट्रिन्जिक वैल्यू (स्वायत्त मूल्य) था । वह कागजी नोट की तरह फेस वैल्यू (प्रदत्त मूल्य) या प्रतिष्ठानिक मान्यता का मोहताज नहीं था। गीत की अपनी सीमाएँ हैं परन्तु वह अनुभूतियों का लोकतन्त्र है । गीत जीवन की रागात्मक व्याख्या है । कुमार रवीन्द्र के अनुसार ‘‘गीत सम्वेदना और मानुषी सरोकारों के सबसे सूक्ष्म संसर्गों से उपजता है ।’’ गहरे आत्म-संघर्ष से गुजर कर ही गीत का परिपक्व शिल्प प्राप्त होता है । और सच पूछें तो गीत कविता की कसौटी है । एजरा पाउण्ड ने ठीक ही कहा है कि ‘‘कविता जब संगीत से दूर निकल जाती है तो दम तोड़ने लगती है ।’’
 दूसरी तरफ मंच को ऊँचा उठना होगा और समय के तेज भागते पहियों की लय में गीत खोजना होगा । छंद के नाम पर कोरी तुकबंदी से ऊपर उठकर गहरी अर्थ-व्यंजनाओं, शब्द-जीवन की सूक्ष्म अर्थच्छवियों एवं कलात्मक संयम का रचनात्मक विनियोग करना होगा । 
 छंद कविता की आयु है । पूरे ब्रह्माण्ड में एक लय है । डाॅ0 रामदरश मिश्र का कहना है कि ‘‘गीत हमारे पूरे समय को समेटने में समर्थ नहीं ।’’ अर्थात् जिन्दगी के आघूर्णन, व्यक्ति और समाज की संश्लिष्ट जैविक संरचना, जीवन की सूक्ष्मतर विडंबनाएँ, मनोसामाजिक ग्रन्थियाँ और नई कविता की ऐन्द्रियता और बहुध्वन्यात्मकता गीत की शिल्प-प्रविधि के लिए बहुत बड़ी चुनौती है । किन्तु मेरी दृष्टि में नवगीत में समय का प्रभाव छनकर आना चाहिए - जिन्दगी के परावर्तन (रिफ्लेक्शन), सीधे समय को समेटने का दावा नहीं । कालांकित होने के प्रयास में अपनी प्रासादिकता और प्रभावान्विति खोकर गीत भी अगीत या बौद्धिक व्यायाम न बन जाय । नवगीत और नई कविता के बीच की दूरी सिमटनी चाहिए । क्लास और माॅस की पोएट्री का गैप कम होना चाहिए । जिन्दगी की लय आज टूट गई है ।  उस बिखराव का संयोजन गीत का धर्म है । अनामिका के शब्दों में आज कविता की ‘बाथरूप सिंगिंग’ बढ़ती ही जा रही है । अपेक्षित भाव-साधना का अभाव कविता के क्षरण का एक बड़ा कारण है । 
 नवगीत नई कविता के समानांतर गतिशील एक सार्थक सृजन-यात्रा है - कई बार नई कविता से अधिक सक्षम विधा । नवगीत को तिरस्कृत कर समकालीन कविता ने अपने परिसर को परिमित अवश्य कर लिया -
 ‘‘अनचीन्हे हुए हमें अपने ही हस्ताक्षर / पत्रों के पार गई जंग लगी पिन ।   ............. सोम ठाकुर । 
 किन्तु नवगीत अंतरों की भीड़ में धु्रव पंक्ति की तरह खो नहीं गया । उपेक्षाओं से ऊर्जा ग्रहण करता हुआ नवगीत आगे बढ़ता रहा -
 ‘‘पाँव में हो थकन, अश्रु भींगे नयन / राह सूनी, मगर गुनगुनाते चलो ।
 यह न सम्भव कि हर पंथ सीधा चले / यह न संभव कि गन्तव्य सब को मिले,
 वाटिका बीच कलियाँ लगें अनगिनत / यह न संभव कि हर फूल बनकर खिले ।
 यदि न सौरभ मिला, तो यही कम नहीं / राह मधुमास की तुम बताते चलो ।’’ ................ श्रीपाल सिंह ‘क्षेम’
 डाॅ0 सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी का संकल्प तो इतना प्रशस्त है कि वे रोशनी की पगडंडियों के बिना भी मंजिल तक पहुँचने का हौसला रखते हैं -
 ‘‘रोज-रोज की भागदौड़ में / जूते क्या, घिस गए पैर भी ।
 लेकिन पहुँचेंगे मंजिल तक / हम पगडंडी के बगैर भी ।।’’
 ठाकुर प्रसाद सिंह, नईम, उमाकांत मालवीय और स्वयं शम्भुनाथ सिंह (कुछ गीतों को छोड़कर) बहुचर्चित होने के बावजूद मुझे बहुत अपील नहीं कर पाए । यश मालवीय के गीत मुझे बहुत अच्छे लगे ।
 एक नया सौंदर्य-शास्त्र सांकल बजा रहा है । नवगीत अपने युग के संश्लिष्ट सौन्दर्यबोध और समकालीन अंतद्र्वन्द्व को भलीभाँति व्यक्त कर सकता है । वह एक सक्षम विधा है। उसे अपेक्षाकृत नई फंतासियों, मिथकों या अन्य काल्पनिक कला माध्यमों का सहारा लेकर समकालीन वैचारिकी को समग्रतर अभिप्राय देने की चुनौती को स्वीकारना होगा -
 ‘‘तृण हुआ है बोझ मन का / द्वन्द्व सिरहाने खड़ा है ।
 अंकुरण के दूध में ही / जहर का छींटा पड़ा है ।
 मौज में बैठे रहे / आहूत-अभ्यागत सभी -
 अग्नि में स्वाहा हुआ है / इक तथागत ही अभी ।
 मंत्रपूजित सिन्धुघाटी / में कहीं मुर्दा गड़ा है ।
 कालजल की त्रासदी में / युग-मगर कितना बड़ा है !’’

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