शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

आलेख



नवगीत की भाषा : सांस्कृतिक-संदर्भ :
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     डा.श्यामसनेहीलाल शर्मा
एम.ए. (हिंदी,संस्कृत) ; पी-एच.डी. ; डी. लिट्.

                        
गीत, गीति और नवगीत
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          गीत का अधिक विकसित समकालीन आधुनिक रूप है नवगीत। यह गीत के गर्भ से ही उद्भूत है। *गीत* काव्य की प्राचीन विधा है,भले ही काव्यशास्त्र के आचार्यों ने उस समय इसे गीत न कहकर मुक्तक काव्य के अंतर्गत स्थान दिया है। *गीति* गीत का ही समानार्थी है, पर गीत की गीति संज्ञा अपेक्षया अधिक आधुनिक है। युग की अपेक्षाओं के अनुरूप गीत ने नया रूप, नया रंग, नई सोच और नए शिल्प के साथ आधुनिक बोध और समकालीन संवेदना को अपनाकर स्वयं को नवगीत के रूप में नई पहचान दी है। प्रारंभ में नवगीत के स्वरूप और इसकी संरचना को लेकर ऊहापोह और असमंजस की स्थिति बनी रही। इसका विरोध भी हुआ। यहाँ तक कि गीत के प्रति गहरी विमोहनशीलता ने तो इसके जन्म के कुछ समय बाद ही इसके अवसान के स्वप्न देखना भी प्रारंभ कर दिया और हड़बड़ाहट में *नवगीत का उपसंहार* भी लिख डाला। सुखद आश्चर्य यह है कि इन सब मार्गरोधी स्थतियों के रहते हुए भी नवगीत ने अविचलित भाव से अपनी विकास यात्रा अनवरत रखी है। यह नवगीत की जिजीविषा का प्रमाण है। 
 
               गीत का नवगीत के रूप में अभिनवीकरण कथ्य के स्तर पर भी हुआ है और शिल्प के स्तर पर भी। पारंपरिक गीत लयखंड में लिखे जाते हैं, वहीं गीत को अर्थखंड में लिखने की नव्य शैली नवगीतकारों की देन है। द्रष्टव्य :
*बदल रही/ चिंतन की भाषा/ मूल्यों का अनुवाद* 
*अधरों से/माधुर्य छलकता/ सुरभित बोल रसीले* 
*पोर-पोर/ जिनके दुर्भावी/ अंतरंग जहरीले*
*थर-थर काँप/ रही सच्चाई/ छलनाएँ आजाद।* (1)
        उपर्युक्त गीतांश की तीन पंक्तियाँ ध्रुवपद (मुखड़े) की हैं, जो अर्थखंड में तीन और लयखंड में 16, 11 की यति के साथ 27 मात्रिक *सरसी* (कबीर) या *समुंदर* छंद का एक चरण है।
                 गीतांश की शेष पंक्तियों में *(थर-थर...आजाद)* समापिका इकाई है, वे भी अर्थखंड में तीन किंतु लयखंड में उपर्युक्त सरसी छंद का ही एक चरण है। *अधरों...जहरीले* तक अर्थखंड में छह और लयखंड में दो पंक्तियाँ हैं, जो 16, 13 के विश्राम से 28 मात्रिक प्रतिचरण *सार* या *ललित* छंद के दो चरण हैं, जिनके अंत में दो गुरु या दो लघु आते हैं।
        नवगीत ने भारतीय गीत-परंपरा को ही नहीं, समूची काव्य-परंपरा को अंगीकार कर उसे नवीन संस्कार दिया है। नवगीत ने अपने कलेवर को भारतीय मूल्य परंपरा, लोक-संस्कृति और सांस्कृतिक बोध के साथ आधुनिक युगबोध के अनुकूल ढाला है। आधुनिक बोध को वाणी देते हुए भी नवगीत ने अपनी सांस्कृतिक विरासत से संबंध-विच्छेद कभी नहीं किया, जैसा कि प्रगतिवाद में दिखाई देता है। नवगीत लोक-संस्कृति की गौरवपूर्ण गरिमा से अभिमंडित होकर और संस्कृति की समुज्ज्वल परंपरा को आत्मसात् कर काव्य मंच पर अवतरित हुआ।

*नवगीत की भाषा का वैशिष्ट्य  : तरलता-सहजता  :*

             नवगीत की भाषा सहज है। उसे सहज संप्रेषणीय बनाने के लिए नवगीतकार ने जहाँ संस्कृत की परिनिष्ठित शब्दावली का प्रयोग किया है, वहाँ अर्द्धतत्सम, तद्भव, देशज यहाँ तक कि विदेशी स्रोतों से आए शब्दों को अपनाने में भी कोई संकोच नहीं किया है, द्रष्टव्य :
*गुलदस्ते उनके हैं / टेबिलें हमारी हैं... / स्केच उनके हैं / पेंसिलें हमारी हैं*
*पुजते गोबर-गणेश/ माटी के माधो / कबिरा का कहना है / सुन भाई साधो / आयोजन उनके हैं / महफ़िलें हमारी हैं*
*आँखों में भट्टी-सी / दहकती दुपहरी।*
*पाँवों में पहने / इंसाफ़ की कचहरी।*
*पंथ सभी उनके हैं / मंजिलें हमारा हैं।*
*गूँगे सारे बयान / हैं गवाह अंधे।*
*अनसुनी अपीलों के / झुके हुए कंधे।*
*हस्ताक्षर उनके हैं / फ़ाइलें हमारी हैं।* (2)
उपर्युक्त उद्धरण सुप्रसिद्ध नवगीतकार *देवेंद्र शर्मा* की कृति *अनंतिमा* में संकलित नवगीत *गुलदस्ते उनके हैं* से है। इस नवगीत में फारसी (उर्दू) और अंग्रेजी के शब्दों का उन्मुक्त प्रयोग देखा जा सकता है। *गुलदस्ते, टेबिलें, स्केच, पेंसिलें, महफ़िलें, इंसाफ़ की कचहरी, मंज़िलें, बयान, गवाह, अपीलों, फ़ाइलें-- ये सभी शब्द विदेशी स्रोत से ही हिंदी में आए हैं* वहीं *आयोजन* (तत्सम), *भाई, मिट्टी, माधो, साधो, आँखों,भट्टी, दुपहरी, पाँवों* आदि (, अर्द्धतत्सम, तद्भव, देशज) भी हैं। इनके साथ ही लोक-प्रचलित मुहावरों *गोबर-गणेश* और *माटी के माधो* का प्रयोग भाषा को लक्षणामूलक व्यंजना से सहज ही संयुक्तकर नया और गहरा अर्थ प्रदान कर रहे हैं। वस्तुतः मुहावरे की संरचना में भाषिक इकाइयों का कोई तर्कसम्मत या व्याकरणानुमोदित संयोग नहीं होता। यही कारण है कि इनका अर्थ अभिधेय नहीं होता। वह लक्षणा या व्यंजना शक्ति से ही निकलता है। नवगीत की भाषा की यही सहजता है और यही सादगी है कि जीवन और जगत् की वास्तविकता को वह भाषा की सर्वग्राह्य शैली में व्यक्त करता है, जो प्राय: सामान्य बोलचाल में व्यवहृत होती है और सहज बोधगम्य है। वह भाषा यदि मुहावरे भी ग्रहण करती है तो उसका स्रोत भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का विस्तृत फलक और लोक-संस्कृति की सहजता होता है। लोक-संस्कृति भारतीय संस्कृति का मूलोत्स है।(3) 
सांस्कृतिक संदर्भों के अनुकूल नवगीत की भाषा को तरल, सरल, सहज और संप्रेषणीय होना ही होता है। कोरा पांड़ित्य प्रदर्शन चमत्कृत तो कर सकता है, पर भाषाई मानक नहीं बन सकता। नवगीतकार *ईश्वरी प्रसाद यादव* का एक काव्यात्मक कथन द्रष्टव्य है :
*कवि ऐसा मत गीत लिखो जो / पल्ले नहीं पड़े।*
*शब्द जहाँ गूँगे-बहरे हों और / अर्थ लँगड़े।*
*सरल-तरल अभिव्यक्ति लोक में / पूजी जाती है।*
*कठिन काव्य के प्रेतों को यह / समझ न आती है।*
*क्लिष्ट बिंब के / कठिन प्रतीकों के/ छोड़ो पचड़े।* (4)


        समकालीन नवगीत की भाषा में संस्कृतनिष्ठ परिमार्जित शब्दावली के प्रयोग भी बहुत हैं। *विजय बागरी 'विजय'* के *कविता बोल रही* गीत की भाषा द्रष्टव्य है :
*शब्दहीन- / अधरों की वाणी, / कविता बोल रही।*
*गाँव-गाँव की- / चौपालों का / चिंतन बदल गया।*
*भोली-भाली / निष्ठाओं का / दरपन बदल गया।*
*हैं कितने ? / स्वच्छंद आचरण,*
*कविता तोल रही।*
*छल-छंदों की / कुटिल भूमिका*
*अपनेपन वाली / गहरे दिखते-/*
*संबंधों की /सच्चाई काली*
*कविता ने /बतलाया, कैसे / कटुता घोल रही ??* (5)

यह पूरा गीत परिनिष्ठित हिंदी में है। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली है। गीत का कथ्य और उद्देश्य स्पष्ट है। दमित, पीड़ित, शोषित जन, जो अन्याय, अत्याचार के समक्ष किसी अज्ञात भय, विवशता के कारण मुख नहीं खोल पाते, उनकी आवाज कविता बनती है। यहाँ कविता का मानवीकरण किया गया है-- *कविता हल्ला बोल रही* है। इस मानवीकरण से अन्याय के विरुद्ध कविता की आक्रामकता को गोचरता प्रदान की गई है। इस आक्रामकता का प्रभाव उस समय और तीव्र हो जाता है, जब वह *शब्दहीन अधरों की वाणी* बनती है।
           भाषा जब विविध सामाजिक, सांस्कृतिक दायित्वों का निर्वहन करती है, तब उन दायित्वों में एक दायित्व साहित्य *भी* है, साहित्य *ही* नहीं। साहित्य की अपनी अलग संस्कारित भाषा-पद्धति है। जब साहित्य में संभाषण के अनुरूप सहजोक्ति, लोकोक्ति अथवा स्वाभावोक्ति का प्रयोग दिखाई देता है, तब उक्त तथ्य का अनुभव आसानी से होता है। *जहाँ भाषा में सरलता या सुगमता नहीं मिलती, वहाँ भाषा की सादगी नहीं, मामूलियत पाई जाती है।*(6) इसलिए नवगीत की अभिव्यंजना शैली चाहे परिनिष्ठित हिंदी हो या उर्दू अथवा हिंदुस्तानी, उसमें अभिव्यक्तिगत सादगी, सहजता और सुगमता बनी रहनी चाहिए, क्योंकि *भाषा का एक अपना विशेष कार्य है, जो किसी भी दूसरे उपयुक्त संदर्भ पर लागू नहीं हो सकता, वह कार्य है--भाषा की प्रेषणीयता।*  (7) 
           भाषाई सहजता का एक रूप *राजकुमार महोबिया* के *बचपन के गीत* में देखा जा सकता है : 
*फटेहाल / बापू के काँधों / चढ़कर गगन छुए ।*
*पंख उगाये / बचपन के दिन / उड़ते सुआ हुए।*
*बदन उघारे / बिखरे बालों / की कब किसको सुध।*
*हरदिन होली / दीवाली-सा / क्या मंगल क्या बुध।*
*ढुलढुल दलिया / चुख्ख महेरी /अपने मालपुए।*
*पंख उगाये / बचपन के दिन....।*
*नयनों  में / आकाश समेटे / पाँवों मृगा भरे।*
*हुये उड़न छू / बने चिरैया, /मन की खूब करे ।*
*दास अभावों / को रक्खे नित / यद्यपि बँदरमुए।*
*पंख उगाये / बचपन के दिन...।।*
*हिचकी सर्दी / खाँसी जूड़ी / या फिर चढ़े बुखार।*
*क्या ठाकुराइन / क्या पंडितजी /सारे गाँव गुहार।*
*संवेदन की / फुलबतियों सँग/ नैना खूब चुए ।*
*पंख उगाये / बचपन के दिन...।।* (8)
*बचपन के दिन* वैसे तो एक सामान्य गीत है। बचपन की स्मृतिजन्य यादों को सामान्य बोलचाल की भाषा में अभिव्यक्ति दी गई है। बचपन भी सपने देखता है। इन सपनों को बिंबधर्मी शब्दों में प्रकट किया गया है। *फटेहाल, बापू के काँधों पर चढ़कर गगन छूना, पंख उगाए बचपन के दिनों का उड़ते सुआ होना, उघरा बदन, बिखरे बाल,*(चाक्षुष बिंब), *ढुलढुल दलिया, चुख्ख महेरी*(स्वाद बिंब), *उड़न छू* (स्पर्श बिंब)। बिंबधर्मी शब्दों से सजे इस नवगीत को लोक-संस्कृति समर्थित लोकभाषा की सहजता और तरलता ने पारिवारिक संबंधों को एक अलग ही रागात्मक पहचान दी है।
     शब्द आज भी वही हैं, जो सदियों पहले व्यवहार में थे। नवगीतकार भी उन्हीं शब्दों को अपना रहा है, फिर उनमें नवता कैसे ? उत्तर बहुत स्पष्ट है, नए संदर्भों से। नए संदर्भ से जुड़कर पुराने शब्द ही नए अर्थ देने लगते हैं। यह नवीनता भाषीय विविधता में सन्निहित है,जो--  
1.वक्तृ-मनोवृत्ति के अनुरूप भाषीय विविधता की उत्पत्ति विचारसूचक शब्दों के चयन से लाई जाती है।
2. पद-रचना के स्तर पर यह विशिष्टता विशेष प्रकार की रचना को अपनाने से आती है। कृदंत, तद्धितांत या समस्त पदों--और समस्त पदों में के अंतर्गत तत्पुरुष, बहुब्रीहि आदि उपभेदों के चयन में यह विशिष्टता दिखाई पड़ती है।
3. शब्दावली के चयन में इस वैशिष्ट्य को पहचाना जा सकता है-- 
(अ) तत्सम, तद्भव या अन्य भाषीय शब्दवली के प्रयोग से
(आ) मूर्त या अमूर्त वस्तु बोधक शब्दों के प्रयोग से
(ई) तर्कोपयुक्त शब्दों के प्रयोग से
*अथवा*
(अ) विभिन्न संदर्भों पर आश्रित विशिष्ट पदावली के प्रयोग से
(आ) औपचारिक या अनौपचारिक स्थतियों के अनुकूल प्रयोग-भेद से।
4. शब्दों के योजन में विशेष संगति की दृष्टि से उत्पन्न विशेषता के कारण विलक्षणता उत्पन्न होती है।
5. शब्दों के इस प्रकार योजन से जिससे विचार-वैविध्य के अनुरूप दृश्य, बिंब या स्मृति स्पष्टतया प्रकट हो-- विलक्षणता उत्पन्न होती है।
6. पदबंधों के विशेष संयोजन से विलक्षणता उत्पन्न की जा सकती है।
7. वाक्यगत पदबधों के क्रम में हेर-फेर कर देने से विलक्षणता उत्पन्न होती है।
सुखद आश्चर्य यह है कि नवगीत ने भाषिक स्तर पर नवीनता के लिए सहज रूप में ये प्रयोग किए हैं। नवगीत की भाषा में चयन और विचलन के प्रयोग बढ़े हैं, जो पद-क्रम, लय-विधान, तथा अर्थ-संघटना के स्तर पर दिखाई पड़ते हैं।

सांस्कृतिक संदर्भ और नवगीत की भाषा का वैशिष्ट्य :

शील और सौंदर्य की समन्वित कलात्मक कृति है संस्कृति। मानव संस्कृति के द्वारा ही शील और सौंदर्य की उदात्तता को पाता है। जीवन का कटु यथार्थ संस्कृति का सौंदर्य नहीं है। विक्षुब्धता, निराशा, संत्रास, भ्रम और भय भारत में सांस्कृतिक मूल्य कभी नहीं रहे। जीवन और जगत् में जो कुछ भयप्रद है, घृणास्पद है, कुत्सित है, कटु है, वह संस्कृति का श्रृंगार कभी नहीं बन पाया। संस्कृति तो मानव को श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और फिर श्रेष्ठतर से श्रेष्ठतम बनने की प्रेरणा देती रही है, क्योंकि जीवन में शील और सौंदर्य को अनुप्राणित करने वाले भाव ही संस्कृति का आंतरिक सौंदर्य बनते हैं। इसी भाव-सौंदर्य से अभिमंडित लोक-संस्कृति की जीवंत परंपरा संस्कृति का गोचर रूप रही है। इस लोक-संस्कृति के व्याप में कालजयी मानवीय संवेदनाएँ और शील की उत्तम प्रेरणाएँ विद्यमान हैं। इसमें प्रेम और सौंदर्य, धार्मिक आस्थाएँ, नैतिक मूल्य,अनुष्ठान, लोक विश्वास, अभिचार, व्यवहार-विज्ञान, संस्कार, रीति-रिवाज आदि का आकर्षण उपस्थित है। नवगीत लोक संस्कृति की इसी गौरवमयी गरिमा से मंडित होकर काव्य मंच पर अवतरित हुआ है। इसीलिए नवगीत की भाषा में तरल सरल ग्राम्य जीवन के गत्वर और संश्लिष्ट बिंब मिलते हैं, जिनमें संस्कार है, अपनत्व है और पवित्रता की मिठास है, द्रष्टव्य :
*हरे लहरे खेत में/ टहकारती सोनापतारी/ ले रहे बाबा हरी का नाम।*
*खींचती अम्मा पकड़कर कोर चादर की/ उठी दादी/ जगी अँगड़ाइयाँ/खनकता आँगन/ खँगरते बरतनों से।*
*लीपती चौका/ सुबह के संगीत होते काम/ पीठ पर चिपका हुआ मुन्ना चिकोटी काटता। खींचकर हँसता बुढ़ापा कान।* (9)
संयुक्त परिवार की रागात्मकता का यह संश्लिष्ट गत्वर बिंब है। आज भले ही काम की तलाश, व्यक्तिवादिता के उदय और आत्मकेंद्रित स्वार्थपरता के प्रभाव से संयुक्त परिवार एकल परिवार में बदल गए हैं, पर कभी गाँवों में संयुक्त परिवार प्रथा थी। संयुक्त परिवार की रागात्मकता, भावनात्मक संबंध, संस्कार, मूल्य और आस्था सबको एक साथ समेट कर पालती रही है। नवगीत की भाषा में इस सांस्कृतिक बोध की बिंबित अभिव्यक्ति प्रारंभ से ही है। नवगीतकार शहर में रहकर भी गाँव को और गाँव की संस्कृति को नहीं भुला पाया। महानगरीय संस्कृति ने उदात्त मूल्यों, महनीय सांस्कृतिक परंपराओं, पारिवारिक संबंधों में व्याप्त विश्वास की स्निग्धता, स्नेह की  कोमलता, अपनत्व की मृदुता और संस्कारों की शुचिता को भले ही पूरी तरह से ग्रस लिया है, तथापि नवगीतकारों का एक वर्ग ऐसा है, जिसकी जड़ें गाँव में हैं। उन्होंने संयुक्त परिवार के सुख को गहराई तक अनुभव किया है। इनके गीतों में लोक-संवेदित शब्दावली में लोकमन की गहरी भावप्रवणता, छोटे-छोटे शब्द पदों में अर्थ की सघनता, नए बिंब, नई छवियाँ, लोक परिवेश की जीवंतता देखने को मिलती है। ऐसे नवगीतकारों में अनूप अशेष, डा.रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर', राघवेंद्र तिवारी, मधुकर अष्ठाना, निर्मल शुक्ल, देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', अवध बिहारी श्रीवास्तव, डा. ओमप्रकाश सिंह, उमाकांत मालवीय आदि ने अनेक ऐसे गीत लिखें हैं, जिनमें पारिवार में संबंधों की रागात्मकता और संवेदनशीलता को अनुभव किया जा सकता है, द्रष्टव्य :
*माँ बाबूजी आज गाँव से/ शहर पधारे हैं।*
*ऐसा लगा कि मेरे घर में/ तीरथ सारे हैं।* 
*आज शहर की लड़की/बहू सरीखी दीख रही।*
*वट सावित्री का व्रत कैसे/ करना सीख रही।*
*मेंड़ों-खेतों की चर्चा में/सारा दिन बीता।*
*तुलसी की चौपाई जन्मी/बोल उठी गीता।*
*नेह-छोह के रिस्ते-नाते/ बाँह पसारे हैं।* (10)
महानगरीय फ्लैट संस्कृति में जीवन जीने वाले व्यक्ति के पास उनके माँ-बाबूजी के आगमन होता है। उनके आगमन पर पारिवार में जो प्रत्यक्ष परिवर्तन परिलक्षित होता है, (विशेषकर *शहर की लड़की* में जो आज *बहू सरीखी दीख रही* रही है) वह संस्कारित परिवार की मूल्यधर्मी चेतना के प्रभाव का परिचायक है। यह अंतश्चेतना का प्रकाश है, जो माता-पिता के संस्कारों का महकता फलित रूप है, जिसे देखकर वृद्ध दंपत्ति के परितोष का अनुभास तो अनिर्वचनीय ही होगा। घर में परिव्याप्त आनंदानुभूति को जिस भाषा में गोचरता प्रदान की गई है, वह संबंधों की मूल्यवत्ता, श्रद्धायुक्त पवित्रता, धार्मिक-नैतिक संस्कार, कृषि-संस्कृति से लगाव आदि को समन्वित रूप में मूर्तित कर रही है। उनके आने भर से फ्लैट, फ्लैट नहीं रहता, *घर* हो जाता है, जहाँ स्नेह है, आदर है, अपनत्व का सम्मान है। यही नहीं माँ-बाबूजी की उपस्थित मात्र से घर सारी श्रद्धा, आस्था और समग्र संस्कारित पवित्रता का केंद्र बन जाता है,*तीर्थ* हो जाता है। वह *तीर्थ* जहाँ संबंधों के उदात्त आदर्श को संस्कार देने वालीं तुलसी की चौपाइयाँ और कर्म का संदेश देने वाली गीता का पाठ गूँजता है।

*कितनी गर्माहट है/घर के बंधन में* (11) कहकर घर के बंधन में रागात्मक संवेदनाओं की गरमाहट का अनुभास कराने वाले *अनूप अशेष* के *दिन ज्यों पहाड़  के* (नवगीत संग्रह) के गीतों में लोक-संवेदना मानवीय संवेदना बनकर उभरी है। इस संग्रह के गीत सांस्कृतिक रूप से भारतीय जीवन के अंग हैं। सामान्यतः *बंधन* बाध्यकारी है, अतः कष्टकारी भी होता है, किंतु घर के *बंधन* में वह बाध्यता सुखद है। इस सुखदता का अहसास कराती है इस *बंधन की गरमाहट*। इस एक विशेषण पदबंध ने संबंधों के बंधन का अर्थ ही बदल दिया है :
*चार-चार पीढ़ी के/ चेहरे दर्पण में*
*माँ कहती---/बड़े पुण्य उतरे आँगन में।*
*मैं हूँ मेरे पिता/पुत्र और नाती,*
*नदिया निर्झर वाली/ ठंड़ी छाती।*
*यज्ञों के शंख/ फूँके कोई मन में।*
*घर की वनस्पतियाँ/दूब और बेला,*
*फूल महकें/ ज्यों गजरों का मेला।*
*कितनी गरमाहट है/ घर के बंधन में।* 
यही नहीं यहाँ गंगा-यमुना-सी, *गाँव की बलइयाँ हैं*, संतों वाली *आशिस्* (आशीषें) हैं, इसीलिए यह  मात्र नाम का घर नहीं है। कवि के शब्दों में--
*घर अपना काशी।* 
*राम के चरण आए हों / जैसे वन में*
घर के बंधन की *गरमाहट* में उत्तमता, उदात्तता, संस्कारशीलता तो है ही, संबंधों के महत्त्व को समझने वाली पारिवारिक उत्तम मूल्यों वाली सोच की समग्रता भी है, जिसमें महकती ममता है, धार्मिक पवित्रता है, नैतिक मूल्यवत्ता है और आशीषों में मंगलता है। इस गीत के बिंबधर्मी शब्दों की गहराई और प्रतीकों की सूक्ष्मदर्शी व्यंजना दूरगामी है, जिसने भारतीय परंपरागत उदात्त मूल्यों को एक छोटे-से घर में लाकर एकत्र कर दिया है और इनके द्वारा एक बड़ा-सा संदेश दिया है। वह घर क्या है ? एक *दर्पण*, जिसमें चार पीढ़ियों के चेहरे (अपनी युगीन सोच,भावना, संवेदना और इच्छाओं के साथ) प्रतिबिंबित हैं। घर की शीतल, शांत *(ठंड़ी)* और गत्वर *निर्झरिणी माँ* को लगता है कि उसके घर का आँगन बड़ा पुण्यशाली है। यह गीत के अर्थगर्भी शब्दों का ही चमत्कार है, जो घर के *बंधन* में भी संबंधों की *गरमाहट* का अनुभास इस रूप में करा रहा है कि उस घर में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को गौरवान्वित और पुण्यशाली अनुभव करते हुए स्वयं को धन्य समझने लगता है।
इसी संग्रह के एक अन्य गीत में नवगीतकार *आँखों से भीतर उतरती एक दुनिया* को किसी भी स्तर पर *नम* (संवेदनशील) देखना चाहता है। कुछ नहीं तो *नहर* हो, खेतों के किनारे *पेड़* हों या फिर *गरम आँधी को पचाती, ताल वाली मेड़ हो।* नहर, पेड़, ताल वाली मेड़--ये तीनों शब्द प्रतीक *नमी* (शीतलत्व) के लिए समर्पित उपादान हैं। गीतकार की चाह यह भी है कि : 
*बस्तियाँ हो पास तो / देह फूटी गंध भी हो,*
*कटे परिचय / जोड़ते-से / लोक के संबंध भी हों।* 
*व्याकरण के एक वचन से तोड़ कर मन कहीं तो 'हम' हो।* (12)
*मैं* में *अहं* है, *व्यक्तिवादिता* है। इस अहं और व्यक्तिवादिता को अतिक्रांत कर गीतकार *हम* हो जाना चाहता है। *हम* अर्थात् *मैं* और *मेरे जैसे अनेकों* से जुड़ जाना चाहता है। इस *हम* में हमारा भूगोल भी है, हमारा इतिहास भी। हमारी प्रकृति भी है, हमारा जीवन भी। वहाँ *मेरा* कुछ नहीं है। यह *हम* व्यष्टिचेतना को समष्टिचेतना में विसर्जित करने का उपक्रम है। गीतकार समष्टि *(हम)* के साथ रागात्मक संबंधों की गहराई को माप लेना चाहता है। लोक-संवेदित शब्दावली, नवीन बिंबों और प्रतीकों में सांस्कृतिक छवियाँ उकेरते हुए लोक के भावप्रवण-चिंतन की गहरी रचनात्मकता को अनूप अशेष की भाषाई रचाव का वैशिष्ट्य कहा जा सकता है। 

नवगीतकार भावों और स्थितियों की गोचरता के लिए गीत की भाषा में जिन बिंबों, प्रतीकों, मिथकों और अप्रस्तुतों का चयनपूर्वक प्रयोग करता है, उनमें अधिकांश शैल्पिक उपादान भारतीय सांस्कृतिक परंपरा से सीधे जुड़े हैं। नवगीत की भाषा में ऐसे भाषिक प्रयोग करने में नवगीतकार *डा.रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'* का नाम उल्लेखनीय है। *आँसू बेचे/गीत खरीदे / सिर्फ मंगलाचरण उचारे / हम हैं यायावर बंजारे* (13)  अनुभूति में चिंतन और जनवादी सोच के अंतर्संग्रथन से जन्मी उक्त पंक्तियों ने कवि की काव्ययात्रा का लक्ष्य निर्धारित कर दिया है : *हमने शत्रु नहीं संहारे / सिर्फ शत्रुता के स्वर मारे।* 
यह सृजन-मूल्य है सर्जक का। यहाँ पापी से नहीं पाप से शत्रुता की जाती है। व्यंजना यह कि रचनाकार प्रेम, बंधुत्व, भाईचारा, समरसता, दया, मैत्री और अहिंसा जैसे उदात्त मूल्यों का उद्गाता है। सांस्कृतिक मूल्यों में उसकी गहरी आस्था है। वह अपने नवगीत संग्रह *मन पत्थर के* में विविध सांस्कृतिक प्रतीकों को आज के संदर्भ में प्रस्तुत करता है, कुछ उद्धरण द्रष्टव्य हैं :
*उठो पार्थ / गांडीव उठाओ / सर संधान करो*
*अपमानित नीरीत्व हुआ है.....*
*सोचो मत / ये पतित प्राण हैं / इनके प्राण हरो* (14)
नारी और नारीत्व-- भारतीय संस्कृति और मूल्यों की संरक्षिका उदात्त भावना है। *यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता* की उदात्त सांस्कृतिक परंपरा को पोषित करने वाली सोच है। उसके अपमान का अर्थ संस्कृति की मूल्यधर्मी भावना का अपमान है। ऐसे कुत्सित कृत्य करने वालों की सोच (प्राण) पतित हैं, इसलिए इस कुत्सित सोच का दमन (प्राण-हरण) आवश्यक है, ताकि ऐसी सोच समूल नष्ट हो सके। यह मिथकीय प्रतीक उस व्यापक, विशद् वैचारिक पृष्ठभूमि को भी सामने रखता है, जो *राम-रावण-युद्ध* में संस्कृति (सीता) की रक्षा के विचार में संन्निहित रहा है। यहाँ भाषा मात्र भाव या विचार प्रेषण का माध्यम भर नहीं रही है, अपितु उसके अगले सोपान पर आरूढ़ हुई है अर्थात् वह लक्ष्योन्मुख होकर अपनी संरचनात्मक सघनता में लक्ष्य साधने की दिशा में सक्रिय दीखती है। कवि जब *गैया, गौरैया, बखरी* (15) जैसे सांस्कृतिक प्राकृतिक उपादानों को संकट में देख इनकी रक्षा के लिए मोह-निशा से जागकर संघर्ष का आह्वान करने लगता है, तब उसकी भाषा अनुभूति की वास्तविकता को व्यक्त करने वाली हो जाती है। नवगीतकार ने इसी गीत में विविध आधुनिक संदर्भों में *त्रिपिटक का संदेश* धारण करने, *मोहन की वंशी में आलाप* भरने, *गौतम के आर्य सत्य (चत्तारि अरिय सच्चानि) की दिव्य करुणा* को वरण करने, *श्वेत कबूतर की रक्षा का भीष्म प्रण* करने और *गोकुल, गोवंश, गूजरी* के साथ सबकी पीड़ा हरने का आह्वान करता है। इन ऐतिहासिक, पौराणिक, मिथकीय प्रतीकों के प्रयोग-प्रयोजन का आधुनिक बोध जितना व्यापक है, उसी के परिमाप में उतने ही सार्थक, शक्तिशाली और लक्ष्यभेदी मिथिकीय संदर्भ यहाँ प्रस्तुत हुए हैं। इनकी सूक्ष्म भाषाई विवेचना और गहन अर्थदर्शी व्याख्या एक छोटे आलेख में संभव नहीं है। सारत: यह कहा जा सकता है कि एक ही गीत में आधुनिक बोध की भयावहता को दिखाते हुए उसकी विनाश हेतु मूल्यधर्मी मिथकीय प्रतीकों, बिंबों की शृंखला प्रस्तुत कर डा.यायावर ने अपने इस नवगीत संग्रह के लक्ष्य को सुविचारित रूप में घोषित ही नहीं किया है, अपितु समग्र संग्रह में भाषाई स्तर पर इसका अनुप्रयोग भी किया है। आधुनिक बोध के संदर्भ में मिथिकीय प्रतीकों, बिंबों और अप्रस्तुतों के प्रयोग में डा. यायावर अपने समकालीन नवगीतकारों में अद्वितीय हैं। उनके गीतों में चाहे
*संबल दो विश्वास का*(16) हो या
*उजियारा तो उजियारा है / दीपक का हो या अक्षर का* (17) हो
ये आत्म विश्वास को जागृत करने वाले व्यापक अर्थदर्शी प्रतीक हैं। गीतकार जब पार्थ को संबोधित कर आह्वान करता है कि
*उठो पार्थ/जो शमी वृक्ष पर/टाँगे थे दिव्यास्त्र उतारो* (18)
तब उसके सामने कर्ण, दु:शासन, दुर्योधन, कृप और द्रोणाचार्य जैसे युद्ध-नीति कुशल योद्धा असत् और अनीति की ओर से लड़ने को खड़े दिखाई देते हैं। ये सभी मनुष्यता के शत्रु हैं, इसलिए कवि का आह्वान है कि-- 
*प्रत्यंचा पर धरो दिव्य सर / सब अरि हैं बढ़कर ललकारो*
इसीप्रकार-- *गरज रही स्वर्णिम लंका* गीत में *स्वर्णिम* विशेषण की विविध अर्थच्छवियों को संपूर्ण आर्थी व्यंजना के साथ बिंबित किया गया है। इस स्वर्णिम लंका की गर्जना में शूर्पणखा की अहंकारी हुंकार है, कुंभकर्ण का विशाल सागर-संतरण का डंका घोष है, कंचनमृग की भ्रममूलक माया है, जो सीता के मन को भटका रहा है, उद्वेलित लक्ष्मण का मन है, छल का सिंहासन है, सोने की स्वप्निल लंका है (19)। यह आधुनिकबोध का मिथकीय तिलिस्म है जो इन भाषाई प्रतीकों में बहुत स्पष्टता से अभिव्यंजित हुआ है। इस तिलिस्म में--
*अस्मिता जानकी अपहृत है / खो गए जटायु के संबल / फिर नागपाश ब्रह्मस्त्र लिए / रण में आया घननाद प्रबल / सौमित्र शक्ति से आहत हैं / हिल गया इधर मन विश्वासी / पैशाचिक माया फैलाकर / तम का दशशीश अट्ठहासित / युग-युग तक चलती रामकथा को / कौन करेगा परिभाषित।* (20)
इस युगों-युगों से चली आती रामकथा में स्थतियाँ, पात्र और परिणाम वैसे ही हैं। 
*मन पत्थर के* नवगीत संग्रह में प्राकृतिक बिंब भी सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षक बनकर उभरे हैं। उनके बीच का रागात्मक संबंध मानवीय संबंध से अधिक उदात्त और स्पृहणीय है : 
*नीम कटा जिस दिन द्वारे का / उस दिन रोई बहुत चमेली*
*आँगन की तुलसी मुरझाई / काँपी थर-थर रिक्त हथेली* (21)
नवगीतकार सिवान गाँव को स्पर्श करने वाली जिस नदी को याद करता है उसके किनारे कभी मनौतियों के अंबार लगते थे, नव दंपत्तियों के कंगन  सिराये जाते थे....दादी की पोते की इच्छा, विरहिन के मन का प्रियागमन, प्रेम भरी बहिन की राखी, भाई के माथे का चंदन....
*सब लेकर हँसती बहती थी/उत्सव उल्लास उफान लिए* (22)
वह नदी अब अंतर्धान हो गई है। यह  सांस्कृतिक मूल्यों की बड़ी क्षति है। ऐसी विलुप्त सांस्कृतिक छवियों की अमूल्य क्षति को उल्लिखित संग्रह के अनेक गीतों में आंतरिक पीड़ा के साथ प्रस्तुत किया गया है, इससे नवगीतकार का इन परंपरागत मूल्यधर्मी छवियों के साथ गहरे लगाव को अनुभव किया जा सकता है। *बतियाती नदिया* (23), *छवियाँ अनजानी,*(24) *सागर पर पानी,* (25)
ये छवियाँ हमारी सांस्कृतिक धरोहर थीं, मूल्यों की संरक्षिका और भारतीय लोक चेतना की संवाहिका थीं। पश्चिमी सभ्यता के प्रसार और अपसंस्कृति के आधातों ने इन मूल्यवान छवियों को क्षतिग्रस्त किया है। अत्याधुनिक युग में इन छवियों का स्मरण नवगीत की सांस्कृतिक चेतना का साक्षी है, जिसे नवगीत की भाषाई सहजता और व्यंजनात्मक अर्थदर्शी सघनता ने आज भी जीवंत बना रखा है।

अंत में गीतकार *उमाकांत मालवीय* के नवगीत सग्रह *एक चावल नेह रींधा* से कुछ संदर्भों का विश्लेषण भाषाई दृष्टि से आवश्यक समझता हूँ। पारिवारिक रागात्मक संबंधों की गहराई समझने के लिए *चंद्रमा उगा* महत्त्वपूर्ण है। गीत में माँ है, बहिन है, प्रिया (पत्नी) है और परदेश में है एक युवक, जो माँ का बेटा, बहिन का भाई तथा प्रिया का प्रियतम है। वह तीन पृथक् संदर्भों में तीनों को पृथक्-पृथक् रूप में याद करता है। वे तीनों संदर्भ भारतीय सांस्कृतिक परंपरा के साथ गहराई से  जुड़े हैं : एक *गणेश चौथ* ; दूसरा *बहुला चौथ* और तीसरा *करवा चौथ* से संबंधित है। 
पहला संदर्भ : 
परदेश में बेटा माँ को याद करता है :
*चंद्रमा उगा / गणेश चौथ का!*
माँ तुमने अर्घ्य दिया होगा मेरे लिए,
दिन भर उपवास किया होगा मेरे लिए ;
बेटा, परदेश में न सो सका!
भरी-भरी आँख ही सँजो सका।
चंद्रमा उगा गणेश चौथ का!!

दूसरा संदर्भ :
परदेश में भाई, बहिन को याद करता है :
चंद्रमा उगा/ बहुला चौथ का
बहिना ने अर्घ्य दिया होगा मेरे लिए,
दिन भर उपवास किया होगा मेरे लिए,
बीरन परदेश में न सो सका,
भरी-भरी आँख ही सँजो सका।
चंद्रमा उगा बगुला चौथ का!!

तीसरा संदर्भ :
परदेश में प्रियतम प्रिया (पत्नी) को याद करता है :
*चंद्रमा उगा/करवा चौथ का,*
तुमने *भी* अर्घ्य दिया होगा मेरे लिए,
निर्जल उपवास किया होगा मेरे लिए ; 
प्रियतम *हारा-हारा औ थका*
भरी-भरी आँख ही सँजो सका।
चंद्रमा उगा करवा चौथ का!! (26)

ये तीन संदर्भ पुरुष के जीवन की तीन घटनाएँ हैं। तीनों ही पारिवारिक संदर्भ में रागात्मक संबंधों की गहराई की मापक हैं। माँ और पत्नी के लिए *तुमने* संबोधन, बहिन के लिए नामवाची *बहिना*। आत्मीयता तीनों संबोधनों में है, किंतु सार्वनामिक पद की अपेक्षा नामपद में अधिक है। पत्नी के लिए *तुमने भी* का प्रयोग माँ के लिए प्रयुक्त *तुमने* से अर्थगत विलक्षणता लिए है। *भी*-- आश्वस्ति में कमी को संकेतित कर रहा है। प्रियतम के लिए प्रयुक्त *हारा-हारा* और *थका* विशेषण पति-पत्नी के बीच संबंधों में आए ह्रास को प्रदर्शित कर रहा है। हार और थकान का अनुभास इसी को संकेतित करने वाले अंगीय विकार हैं। संबंधों का रूप और उनकी गहराई कैसी भी और कितनी भी हो पर परदेश में जब अपने स्वजन की या अपने आत्मीय की याद आती है, तो व्यक्ति आँख के आँसुओं का ही संग्रह कर पाता है। तीनों संदर्भों में इस  तरल अनुभव में कोई अंतर नहीं है, जिसे सरल और सरल भाषा में अभिव्यंजित किया गया है। चंद्रमा चाहे गणेश चौथ का हो या बहुला चौथ का या फिर करवा चौथ का। वह हमारी संस्कृति और हमारे पारिवारिक  कोमलतम रागात्मक संबंधों की बार-बार दुहराई जाने वाली कथा है, ताकि व्यक्ति इन सांस्कृतिक उपादानों की अर्थगत गहराई को मापता रहे और जीवन में इनके महत्त्व का अनुभव करता रहे।
अंतस् की सूक्ष्म कोमल संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिए सांस्कृतिक प्रतीकों और प्राकृतिक उपादानों से अलंकृत बिंबों का नवगीत की भाषा में पर्याप्त प्रयोग हुआ है। मेघदूत में कालिदास के यक्ष की तरह उमाकांत मालवीय की भाषा का निम्नलिखित बिंब दृष्टव्य है :
*उस ओर जा रहे पाहुन / मेरी भी अरज जरा सुन / उन शिखरों से मेरे प्रणाम कहना / गंगा से मेरी राम राम कहना।*
*झरनों को / मेरा अता पता देना,*
*जो कुछ देखा है / उसे बता देना।*
*उन सबकी खातिर कोई हुड़क रहा,*
*यह देवदारु से सुबह शाम कहना।* (27)
जिस आत्मीय विश्वास के साथ इस गीत का नायक उस *पाहुन*, से जो निश्चित मेघ ही होना चाहिए है, क्योंकि वही है, जो जड़ होकर भी चेतन (गत्वर) है और जो *उस ओर* जा रहा है, जिधर उसकी प्रिया किंवा प्रकृति प्रिया रहती है, अनुनयपूर्वक विनय करता है। विशेष बात यह है कि वह सीधे-सीधे अपनी बात नहीं कह रहा (कहीं स्वार्थी न समझा जाए), अपितु पाहुन से उसी के अत्यंत आत्मीय पर्वत के तुंग शिखरों और गंगा को उसकी ओर से पहले प्रणाम निवेदित करने को कहता है, फिर झरनों से वह सब कुछ बताने के लिए निवेदन करता है, जो उस पाहुन ने स्वयं प्रत्यक्ष देखा है। उसके इस कथन की मार्मिक गहराई को कौन मापेगा ? जिसमें वह कंठसुर की अत्यंत तरल विनम्रता के साथ कहता है कि--
*उन सबकी खातिर कोई हुड़क रहा,* 
*यह देवदारु से सुबह शाम कहना* (28)
अद्भुत है यह प्रकृति प्रेम। यह वह प्रकृति है, जो भारतीय संस्कृति और मानवीय जीवन से सदा अंतरंग रही है, जिसके बिना मानव-जीवन की कल्पना तक हमारे ऋषियों ने नहीं की। आज वही प्रकृति मानव के अतिचार से क्षत-विक्षित हो कराह रही है। इस ओर ध्यानाकर्षण करने से बढ़कर मानवीय मूल्य क्या होगा? और इस सांस्कृतिक बोध से अधिक सार्थक आधुनिक बोध और क्या हो सकता है? आधुनिक बोध के नाम पर जो केवल कुरूपता देखने के अभिलाषी हैं, उन्हें एक बार उमाकांत मालवीय के *एक चावल नेह रींधा* को पढ़ना चाहिए, जिसमें प्रकृति, राग और अनुराग की संवेदनाओं के मंत्रमुग्ध कर देने वाले बिंब उपस्थित है :
1. *गुनगुनाती पाँत/ भवरों की चली*
*लाज से दुहरी हुई जाती कली* (29)
2. *गंगा नित्य रँभाती बढ़ती जैसे कपिला गइया,*
*सारा देश क्षुधातुर बेटा, वत्सल गंगा मइया।* (30)
3. *बाँहों में मोगरे गूँथता अलकों का मधुवन।* (31)
4. *मंगलघट पर अंकित फूल स्वस्तिका हुआ,*
*राधा तो श्याम हुई, श्याम राधिका हुआ।* (32)

*मिथक* के प्रयोग भी सांस्कृतिक संदर्भों को साथ लेकर चलते हैं, द्रष्टव्य:
1. *राधा बेणु बनी माधव के/ होठों से लगकर,*
*वंशी का आधार शहद से/ सिंचित एक अधर।*(33)
इसी मिथक को नवगीतकार एक कलात्मक बिंब से भी संयुक्त कर उसे एक नई अर्थ भंगिमा प्रदान कर देता है :
*बाहों में मोगरे गूँथता अलकों का मधुवन।*(34)
नवगीत में प्रकृति और प्रणयराग की जीवंतता का आधार भाषाई मिथ और बिंब बनते रहे हैं।
उमाकांत मालवीय के उक्त नवगीत संग्रह में अप्रस्तुत विधान भी प्रकृति, राग और अनुराग की संवेदना को ही सौंदर्य संवलित कर उसे तीव्र से तीव्रतम करने में समर्थ हुआ है, यथा-
1. *पुष्पधनु भौंहें, भँवर अरुणाभ गालों पर* (35)
2. *बाँह द्वै, ज्यों इंद्रधनु दो टूक कर डाला।* (36)
3. *बेलपत्र सी पलकों पर*
    *तुलसीदल से चुबंन* 37
लाक्षणिकता और व्यंजकता के लिए मुहावरों का प्रयोग भी नवगीतकार ने किए हैं :
*दूध के धोए गुटरगूँ/ पर न रेंगी कानों पर जूँ* 38
सार यह कि उमाकांत मालवीय का समीक्ष्य नवगीत संग्रह प्रकृति और प्रणयराग की दृष्टि से एक उदात्त और मूल्यधर्मी रचना है। प्रकृति प्राणिमात्र की माँ है, जिसके आँचल में खेलते हुए वह बड़ा हुआ है। साथ ही हृदय के धर्मों में प्रेम सर्वस्वीकृत, सर्वव्यापी, समरस और उदात्त धर्म है। सांस्कृतिक संदर्भों में प्रयुक्त भाषाई  निकष पर आज का नवगीत प्रयोगधर्मी है। यह प्रयोगशीलता ही उसको *नवता* की प्रमाणिकता है। 
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