शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

कविता की सहज सम्प्रेषणीयता और उत्कृष्टता के कवि : शिवकुमार अर्चन प्रस्तुति : मनोज जैन


आलेख
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कविता की सहज सम्प्रेषणीयता और उत्कृष्टता के कवि : शिवकुमार अर्चन

मनोज जैन 

                                      सम्प्रेषणीय कविता और प्रभावी प्रस्तुति की दमपर, पिछले पाँच दशकों से कवि सम्मेलनों की निरंतरता के चलते, कविवर शिवकुमार अर्चन जी की मूल पहचान को भले ही, कवि सम्मेलनों से जोड़कर देखा जाता रहा हो, पर वास्तव में शिवकुमार अर्चन जी के व्यक्तित्व और कृतित्व में कहीं भी सम्मेलनी छवि के दर्शन नहीं होते। जब हिंदी काव्यमंच और स्वयं अर्चन जी दोनों अपने चरम पर थे, तब भी अर्चन जी ने काव्य मंचों से प्रेम के नाम पर एक भी मांसल गीत ना तो लिखा और ना ही श्रोताओं को परोसा। ओज के मामले में उनकी कविता में सम्यक प्रतिरोध तो था,पर चीत्कार सिरे से नदारद थी। बीएसएनल में सेवा के दौरान उनका अधिकांश समय रीवा मध्य प्रदेश में ही व्यतीत हुआ। यद्धपि वह अपनी चर्चित गज़ल के एक शे'र में कहते जरूर यही हैं कि, 
 "आबोदाना न आशियाना है। 
हम फकीरों का क्या ठिकाना है।"
               सेवा निवृत्ति के कुछ वर्षों पहले ही उन्होंने 10, प्रियदर्शनी ऋषिवैली, ई-8 गुलमोहर एक्सटेंशन, प्रदेश की राजधानी भोपाल में अपना आशियाना बना लिया था। और यहीं से आबो-दाना की तलाश करते-करते अनन्त की यात्रा पर चल दिए।
  समकालीन सांस्कृतिक परिदृश्य के सजग और संवेदनशील शब्दशिल्पी, शिवकुमार अर्चन जी के परम साहित्यिक अभिन्न मित्र मयंक श्रीवास्तव जी, अर्चन जी को,याद करते हुए भाव विवह्ल हो उठते हैं, दरअसल, दोनों के मध्य परस्पर साप्ताहिक संवाद का जो सेतु वर्षों से निर्मित था, उसे क्रूरकाल ने ध्वस्त कर दिया है। शायद नियति को यही मंजूर था। राजधानी के लिए अर्चन जी नए थे। और मयंक श्रीवास्तव जी यहाँ के साहित्यिक वातावरण से चिरपरिचित। अतः अर्चन जी को "छन्द"और "अन्तरा" जैसी छंदधर्मी साहित्यिक संस्थाओं से जोड़ने का काम मयंक श्रीवास्तव जी ने ही किया था। अब ना तो छन्द संस्था रही और ना ही अन्तरा। 
                    तदुपरान्त अर्चन जी ने अपनी रचनाधर्मिता और बहुआयामी दृष्टिकोण व समकालीन सोच के चलते सबको मित्र बना लिया। उनका उठना-बैठना ऐसे लोगों के बीच रहा जिन्हें हम हिंदी साहित्य का थिंक-टैंक कह सकते हैं। मसलन, आलोचक कमला प्रसाद, धनञ्जय वर्मा,कैलाश चन्द्र पन्त, विजयबहादुर सिंह, साहित्यकार रमाकान्त श्रीवास्तव, सुबोध श्रीवास्तव, पूर्णचंद रथ, रामप्रकाश त्रिपाठी, महेन्द्र गगन, राजेन्द्र शर्मा, राजेश जोशी, वीरेन्द्र जैन, महेश अग्रवाल सहित जलेस और प्रलेस जैसे संगठनों से सम्बद्ध वे सभी साहित्यकार जो बुद्धिजीवी वर्ग में काउन्ट किये जाते हैं। अर्चन जी की मित्रता सूची में देखे जा सकते थे। 
                 कुल मिलाकर अर्चन जी पक्के यार-बाज़ थे। उनकी आवाजाही दो विपरीत वैचारिक ध्रुवों, दक्षिण और वाम में, समान रूप से ससम्मान अंत तक बनी रही। इस मामले में शिवकुमार अर्चन जी प्रोफेसर अक्षयकुमार जैन के बाद दूसरे ऐसे अजातशत्रु थे, जिन्हें यह महारत हाशिल थी। शिवकुमार अर्चन जी का यह व्यवहारिक सम्यक सन्तुलन अनुकरणीय होने के साथ-साथ उन्हीं के अन्य साथियों के लिए आज भी स्पृहणीय है। 
                   अर्चन जी ने अपनी जड़ें और धाक पूरे देश में जमा रखी थी। इलाहाबाद की चर्चा में, वह अक्सर उमाकान्त मालवीय जी को याद करते, तो कभी यश मालवीय जी का जिक्र! माहेश्वर तिवारी जी उनके प्रिय कवियों में से एक थे। मुकुटबिहारी सरोज उनके आदर्श गीतकार रहे हैं और दोनों परस्पर एक दूसरे के प्रसंशक भी। 
         अर्चन जी के गीतों पर दृष्टिपात करें तो नईम, रमेश रंजक, शलभ श्रीराम सिंह जैसे दिग्गज कवियों की वैचारिकी का प्रभाव और उनकी गज़लों में अदम गौंडवी और दुष्यंत का, कहीं न कहीं सीधा प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। मित्र मण्डली अर्चन जी की बड़ी कमजोरी थी। मित्रों से, यदि संवाद ना हो तो अर्चन जी की उदासी और ऊब गीतों में फुट पड़ती थी। उनके ना रहने के बाद हाल ही में उनका एक सद्य प्रकाशित गीतसंग्रह " साधौ दरस परस सब छूटे" सन 2022 में आया। जिसमें कविवर शिवकुमार अर्चन जी नें अपने आत्मीय मित्रों और परिजनों से संवाद नहीं होने पर मनः स्थिति पर पड़ने वाले सीधे प्रभाव की मार्मिक छवियों के चित्र अंकित किये हैं। द्रष्टव्य है उनका एक नवगीत-
                "मुँह बाए उंगली चटकाते/बीत गया एक और दिन/ आँखों से छटे नहीं, स्वप्न के कुहासे/ सांसों में धुले नहीं, धूप के बताशे/ भीतर ही भीतर धुँधवाते/ बीत गया एक और दिन/ मित्रों का परिजन का फोन नहीं आया/ कमरे में डटा रहा, चुप्पी का साया/ खुद अपने ऊपर झुंझलाते/ बीत गया एक और दिन/ शायद यह कठिन समय/ किसी तरह बहले/ खींसे में प्यास लिए, सड़कों पर टहले/ इधर उधर आँखें मटकाते/ बीत गया एक और दिन।"
    अर्चन जी की रचना प्रक्रिया में, वस्तु-व्यापार की सघनता, आम आदमी की पीड़ा, जनमानस के संघर्ष, और जद्दोजहद सब कुछ है। उनके यहाँ तरल संवेदना का संसार, अनूठी कल्पनाशीलता, रचनात्मक तल्लीनता, के साथ चीजों के देखने के परखने के अनेक कोण हैं; जिन्हें उनकी गीतनुमा और ग़ज़लनुमा कविताओं में देखा और परखा जा सकता है। अर्चन जी गीत रचने और गज़ल कहने के मामले में कभी भी विशुद्धतादी नहीं रहे। यदि, विशुद्धतावादी रहे होते तो आज अर्चन जी ने,अपने पीछे जो रचनात्मक बौद्धिक सम्पदा हमें सौंपी है, वह नहीं दे पाते। मूल्यांकन के विविध आयाम देखने में आते है उरूज या सनातनी छन्दों के जानकार या मास्टर कवि रचनाओं का मूल्यांकन करते समय छन्दशास्त्र का फीता लेकर कमियाँ ढूँढनें के चक्कर में, कथ्य के निर्मल आनन्द में चाहकर भी नहीं डूब पाते। 
                            अर्चन जी यह भलीभाँति जानते थे कि, उनकी गीति और गज़ल रचानाएँ शास्त्रीय पैमाने के निकष पर खरी नहीं है। यही कारण था की वह रचना पाठ से पहले ही अपनी रचनाओं को "गीतनुमा" या "ग़ज़लनुमा कह देते थे, दरअसल गीतनुमा और ग़ज़लनुमा का तकियाकलाम अर्चन जी का हरवर्ग के श्रोताओं
(विशेषकर जो गीत और गजल को मात्राओं के निकष पर कसते हैं।) के ध्यान को अपनी ओर खींचने का एक किस्म का सम्मोहन था। 
                यद्धपि समकालीन कवियों के दृष्टिकोण में इस तरह की जड़ताएँ वैसे नहीं के बराबर हैं। अर्चन जी अपनी रचना प्रक्रिया के आस्वाद का पता "उत्तर की तलाश में" के पुरोवाक में लिखते हैं कि, कोई भी कविता ऐसे नहीं बनती, उसके पीछे जिन्दगी के संघर्ष होते हैं, उसके पीछे एक दर्शन होता है। 
    एक विचार प्रणाली होती है, जीवन के ताप होते हैं, सुलगते हुए अहसास होते हैं । कथन को आगे बढ़ाते हुए वह कहते हैं  कि, "पाखण्ड, विसंगति, असत्य, अन्याय और व्याप्त अंधेरे के खिलाफ जंग में ग़ज़ल ने मेरी रहनुमाई की।" ग़ज़ल मेरे लिए आम आदमी तक पहुँचने का जरिया रही है। इन गजलों में पिरोये अहसास मेरे अपने हैं और उनकी आँच भी। सन्दर्भ : ग़ज़ल क्या कहे कोई से उद्धरत एक अंश दूसरा एक और बड़ा स्टेटमेंट जो उन्होंने कुछ बातें' उत्तर की तलाश' के पुरोवाक़ में दिया जो बेहद महत्वपूर्ण है। यद्धपि इस आशय के संकेत अर्चन जी से पहले के कवियों ने भी दिए  हैं। मेरे मतानुसार इस कथन को हर रचनाकार को वेद की ऋचाओं की तरह कंठस्थ कर लेना चाहिए। 
         अर्चन जी कहते है कि, "मैं समय से बड़ा न्यायाधीश और लोक से बड़ा आलोचक न किसी को मानता हूँ, न जानता हूँ।"अर्चन जी के नये संकलन "सौधो दरस परस सब छूटे" की भूमिका के एक अंश में प्रख्यात आलोचक डॉ.धनञ्जय वर्मा उनकी भाषा की सादगी पर प्रकाश डाला है। और उनकी कविताओं की सादगी और संजीदगी की प्रशंशा की है । हम-आप अपनी रोजमर्रा जिन्दगी में जैसे बोलते लिखते हैं उसी सादा जवान में ये लिखी कही गईं हैं। 
    यह सादगी लेकिन 'सरल' या 'आसान' नही है,यह अकृत्रिम है, दरअसल यह सहजता का नतीजा है। अनुभव और अनुभूति जितनी तुर्श ओ तल्ख होगी अभिव्यक्ति -उतनी ही सहज होगी।"
      इस कथन को यहाँ कोट करने का आशय यहाँ सिर्फ इतना ही है कि, एक बड़ा कवि चिंतन के धरातल पर भले ही शास्त्रीय रहे ; पर अभिव्यक्ति के मामले में उसे, अत्यंत सजग जिम्मेदार और सरल होना चाहिए। 
       यहाँ हम बात करते हैं, "साधो दरस परस कब छूटे " के एक  गीत की , जिसे चिंतन के धरातल पर अर्चन जी ने  रचा है। गीत में प्रयुक्त 'अनहद' शब्द पाठक या श्रोता का ध्यान बरबस अपनी ओर खींचता है। गीत में ध्यान की सर्वोत्कृष्ठ भाव दशा उच्चतम भाव व्याप्त है। और इस भावदशा में गहरे पैठ कर ही एक निर्विकार साधक स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार कर सकता है। पूरे गीत में कवि ने ध्यान की सिद्धावस्था में उतरकर 'सोहम' की आराधना और 'शिवत्व' की मंगल अर्चना की है। जो सामान्य साधक के यहाँ दुर्लभ है।
      द्रष्टव्य है कवि का लिखा एक पूरा गीत-
"अनहद के मतलब समझाता है/ ये गीत नहीं मेरा, आवाज़ नहीं मेरी/ ये शब्द नहीं मेरे, ये कहन नहीं मेरी/ जाने उनसे कैसा नाता है/ मेरे भीतर कोई गाता है/ ये कैसी रुनझुन है मैं रीझ रीझ जाता हूँ/ ये कैसा सावन है मैं भीग भीग जाता हूँ/जब आता बे आहट आता है। मेरे भीतर कोई गाता है/ मिल जाए मुझको आँखों में उसे भर लूँ/गुलमोहर बनूँगा मैं आ तुझे जरा छू लूँ/ सरफूँदें मेरी सुलझाला है/ मेरे भीतर कोई गाता है।"
              जिस साधक को अनहद नाद सुनाई देने लगे, जो बिना किसी को गुरू स्वीकार किये, साधना की सिद्धावस्था को वरण करने की मंगलकामना करता है। ऐसा साधक यदि अपने सिक्स-सेंस से अपना भविष्य दर्शन कर ले, तो इसमें क्या आश्चर्य!
        साधो दरस परस सब छूटे शीर्षक गीत में कवि ने अपने सारे जीवनानुभवों और मृत्युबोध को एक छोटे से गीत में सम्पूर्ण आख्यायित करने की कोशिश की है। दृष्टव्य है उनका एक गीत -
                               "साधो दरस परस सब छूटे/ सूख गई पन्नों की स्याही/ संवादों के रस छूटे/ साधो!दरस परस सब छूटे/ मृत अतीत की नई व्याख्या/ पढ़ना सुनना है/ शेष विकल्प नहीं अब कोई/ फिर भी चुनना है/ रातें और संध्याएँ छूटीं/ अब कुनकुने दिवस छूटे/ साधो! दरस परस
सब छूटे/ नहीं निरापद हैं यात्राएँ/ उठते नहीं कदम/ रोज-रोज सपनों का मरना/ देख रहे हैं हम/ हाथों से उड़ गए कबूतर/ कौन बताए कस छूटे/ साधो!दरस परस सब छूटे/ आदमकद हो गए आइने/ चेहरे बौने हैं/ नोन राई,अक्षत,सिंदूर के/ जादू टोने हैं/ लहलहाई अपयश की फसलें/जनम-जनम के यश छूटे/ साधो! दरस परस सब छूटे/
         दार्शनिक अनुभूतियों की सहज और सरल अभिव्यक्ति ही कविकर्म को कालजयी बनाती हैं। अर्चन जी ने आत्मकथ्य के आलोक में जो छोटे-छोटे स्टेटमेंट हैं। वह फ़लक में थोड़े नहीं बहुत बड़े हैं। अर्चन जी सिर्फ शारीरिक कद-काठी से ही बड़े नहीं, बल्कि वैचारिक दृष्टिकोण से भी बड़े कवि थे।
    अर्चन जी की मूल पहचान उक्त संदर्भित गीतों से हो ऐसा नहीं है। बल्कि, उन्हें साहित्य जगत में उनके चिंतन से जाना गया, गीतों में प्रतिरोध उनकी पहचान थी। क्लास हो या मास, अर्चन जी दोनों स्थलों पर अपनी प्रभावशाली प्रस्तुतियाँ देते रहे। मंचीय प्रस्तुति की उनकी एक पसंदीदा रचना रही है। अपने इस कथन के आलोक में प्रस्तुत हैं रचना के कुछ अंश देखें- 
              "ऐसी हवा चली मत पूछो/ चन्दन वन अंगार हो गए/ नन्हें मुन्हें सपन हमारे/ तलवारों की धार हो गए/ क्या गाऊं ऐसे में जब सब दर्द उगाते हैं/ मेरे गीत अधर तक आने में शरमाते हैं।" जीवन होम हो गया सारा/ ऐसी जली पेट की ज्वाला/ सूरज लाने वालों ने ही/ तम से समझौता कर डाला/ क्या गाऊं जब कुएं स्वयं पानी पी जाते जाते हैं/ मेरे गीत अधर तक आने में शरमाते हैं।"
                अर्चन के कुशल चितेरे ने नैसर्गिक प्राकृतिक छटा के शब्दचित्र भी अपने गीतों में जी उकेरे हैं। लोकरंग में रँगा उनका मन उनसे अद्भुद गीत रचवाता रहा। वह कभी प्रकृति की मनोहारी छटा के शब्द चित्र बनाते, तो कभी जनमानस की पीड़ा के शब्द चित्र उकेरते। वह खुद तो कम पर गीतों में ज्यादा बोलते थे। चुप्पी उन्हें पीड़ा देती थी। देखें एक गीत का अंश
    "थके थके संध्या के पाँव रे/ आजा माझी अपने गांव रे/ फैला पर लौट घर पंछी-ले ले कर चोंच पर उजाले/ मेरे घर आँगन पर बैठा/ सूनापन गलबहियाँ डाले/ मूक हुई नयनों की नाव रे।" 
1. ग़ज़ल क्या कहे कोई (2007)
2. उत्तर की तलाश (2013)
3.ऐसा भी होता है (2017)
4.सौधो दरस परस सब छूटे (2022)
           कुल जमा चार पुस्तकों में छपा उनका रचना संसार किसी भी पाठक को भी अपनी तरफ मोहने के लिए पर्याप्त है। इससे इतर कुछ बातें अर्चन जी के व्यक्तित्व में और जुड़ती हैं। अर्चन जी बेहद पढ़ाकू किस्म के इंसान थे। वह अपने मित्रों को डूबकर पढ़ते, सुनते और उनपर लिखते थे। साथ ही उनका लगाव सिर्फ गीत या गज़ल तक सीमित नहीं था। साहित्य की सभी विधाओं में उनकी आवाजाही रही है। वे अपने समय के बहुत अच्छे समालोचक और समीक्षक भी रहे हैं। कथा, उपन्यास या फिर नई कविता पर विमर्श, आयोजन में अर्चन जी की उपस्थिति सभी जगह होती थी।
    भोपाल के चर्चित सात गीतकारों सर्व श्री हुकुमपाल सिंह विकल, जंगबहादुर श्रीवास्तव बंधु, दिवाकर वर्मा, मयंक श्रीवास्तव, शिवकुमार अर्चन, दिनेश प्रभात, और मनोज जैन के दस - दस गीतों को एकत्रित कर अर्चन जी ने अपने सम्पादन में एक दस्तावेजी काम भी किया, जो सन 2012, में पहले पहल प्रकाशन, भोपाल से "सप्तराग" गीत संकलन के रूप में छपकर आया,और अच्छा खासा चर्चा के केंद्र में रहा।
                      यों तो अर्चन जी को शहर की साहित्यिक गोष्ठियों में खूब सुना पर 1,जून 2017 को कवि मैथिलीशरण गुप्त की पुण्यतिथि के एक विशेष आयोजन में दतिया, के चर्चित कवि एवं संयोजक अग्रज शैलेन्द्र बुधौलिया जी के
आमन्त्रण पर अर्चन जी को बड़े काव्य मंच पर देर रात तक डूबकर सुनने का अवसर मिला था। उस कार्यक्रम मेरी उपस्थिति एक आमन्त्रित कवि के रूप में थी। 
           उसका परिणाम यह हुआ कि मैं अर्चन जी के व्यक्तित और कृतित्व से पूरी तरह जुड़ सका उन्हें पूरी तरह समझने का काम शैलेन्द्र शैली की एक पत्रिका राग भोपाली ने किया जिसने अर्चन जी पर एक  विशेषांक केन्द्रित किया था।
         अर्चन जी की स्मृतियों से गुजरते हुए सादर उन्हीं की ग़ज़ल के चंद शेर यहाँ रखकर अपनी बात को विराम देता हूँ। किसी ने ठीक ही कहा है। जाने वाला अपने निशान छोड़ जाता है। आज अर्चन जी नहीं हैं। हाँ, उनकी स्मृतियाँ हमारे साथ हैं।
      "बस्तियाँ रह जाएंगी, न हस्तियाँ रह जाएंगी/इन दरख्तों पर हरी कुछ पत्तियाँ रह जाएंगी/तुम भले न याद रक्खो मेरी गज़लें मेरे गीत/पर मेरी आवाज की परछाइयाँ रह जाएंगी/"
       शिवकुमार अर्चन जी के यहाँ, लोक कंठ की मिठास थी। उनकी गायकी का अंदाज अनूठा था। उनकी जादुई आवाज हर किसी को मंत्र मुग्ध कर लेती थी। इसी लिए वे मंचों पर विशेष तौर पर सराहे जाते थे। आज भी उनके द्वारा गोष्ठियों में अनूठे अंदाज़ में प्रस्तुत किए गए गीत अवचेतन में जस के तस हैं। दूर से आता हुआ स्वर हिरण की तरह मन को अपनी ओर खींचता है। ऐसे लगता है जैसे अर्चन जी गा रहे हैं ...

मनोज जैन 'मधुर'
नवगीत पर एकाग्र समूह वागर्थ के 
संस्थापक एवं सम्पादक
106, विट्ठलनगर, 
गुफामन्दिर रोड,
भोपाल.
462030
मोबाइल 930137806

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