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बुधवार, 30 जुलाई 2025

समीक्षा : बच्चे होते फूल से मधुश्री के द्वारा


बाल साहित्य रचना संसार में एक अनूठा प्रयोग...

 'बच्चे होते फूल से' श्री मनोज जैन  'मधुर' जी द्वारा  रचित  हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह को पढ़ कर ऐसा अनुभव हुआ कि बाल साहित्य प्रेमी बच्चों के लिए यह पुस्तक अत्यंत रोचक और अनूठा उपहार है l
मनोज जी एक संवेदनशील एवं सिद्धहस्त कवि हैं ये उनके पिछले दो नवगीत संग्रह ' एक बूंद हम ' और 
'धूप भर कर मुट्ठियों में ' को पढ़ कर पाठक वर्ग को समझ आ गया था और अब बच्चों के लिए सुन्दर कविताओं का संसार रच कर उन्होंने आज के बच्चे और  आने वाले कल की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरक और बाल मनोवैज्ञानिक मनोभावों को शब्द रूप देकर साहित्य को और अधिक समृद्ध किया है l आज इस यांत्रिकी युग में बच्चे अपना सहज भोलापन खोते जा रहे हैं l मोबाइल आदि के कृत्रिम और नाटकीय मनोरंजन में डूब कर वे अपनी निजता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं जिसका उन्हें तनिक भी एहसास नहीं है इसमे थोड़ा बहुत दोष उनके ioमाता पिता का भी है l बच्चों को पढ़ने के लिए अच्छी सामग्री जुटाना ,उनका सही मार्गदर्शन करना ये साहित्य और समाज दोनों का उत्तरदायित्व है l
इसके लिए मनोज जी का कवि धर्म प्रशंसा का पात्र है l उन्होंने बच्चों के लिए सामयिक विषयों पर रोचक और ज्ञानवर्धक कविताएं रची हैं उस पुस्तक का नाम है ' बच्चे होते फूल से ' l
सभी कविताएं अपने विषय की मौलिकता में परिपूर्ण हैं l
आज बच्चे अपनी संस्कृति और संस्कारों को भूलते जारहे हैं और संस्कारों के इस संक्रमण काल में ऐसी पुस्तक का आना शुभ संकेत और शुभ पहल है l
पाँच पहेलियों के माध्यम से बच्चों को मर्यादा और पर्यावरण संरक्षण का पाठ पढ़ाना बहुत अच्छा प्रयोग है..
' मर्यादा का पाठ पढ़ाया 
जहाँ राम ने आकर....
बच्चों अब तो हमें बतादो 
कौन हमारा देश है ' ( भारत)
सभी पहेलियां बहुत रोचक ढंग से पूछी गई हैं जो कि मनोरंजक  होने के साथ- साथ ज्ञानवर्धक भी हैं l
 'मातादीन ' कविता के माध्यम से बच्चों को गिनती सिखाना एक प्रशंसनीय रचना कर्म है..
' एक गाँव में घर 'दो'- 'तीन '
आ कर ठहरे मातादीन l
इनने पाले घोड़े चार 
घूम लिया पूरा संसार...'
मनोरंजन के साथ नैतिकता के पाठ के बहाने गिनती और 8पहाड़ों का प्रयोग अद्भुत है एक बानगी......(गिनती गीत)

बात पते की,
मुन्ने सुन l
जो सीखा है,
उसको गुन l

बोल मेरे मुन्ने,
एक दो तीन l
नहीं किसी के,
हक़ को छीन l

बोल मेरे लल्ला,
चार-पाँच-छह l
सुख-दुख अपनी 
माँ से कह l......

(जादूगर)

जादूगर आया बस्ती में 
अपना,
खेल दिखाने l
भालू -बंदर कुत्ता- बिल्ली ,
'चार' नेवले पाले l
'आठ'-कबूतर,'बारह'-'मुर्गे,
' सोलह '-चूहे काले l......
 
'प्यारी माँ ' कविता में अपनी माँ के प्रति आदर
और अनुग्रह भाव का मर्म  बच्चों  को मधुर अनुभूति प्रदान करेगा l
 'दिल्ली पुस्तक मेला '  कविता में आज के परिवेश में  पुस्तक मेले का महत्व बताना और उसकी प्रासंगिकता को व्यंगात्मक लहजे में (जो कि मनोज जी की खूबी है) प्रस्तुत करना कविता को अधिक मनोरंजक और विशेष बनाता हैl 
पुस्तक में मीठे -मीठे लोरी गीत बच्चों के भोले हृदय में प्रेम की मिठास और वात्सल्य जनित संस्कार को सम्मान देने में सक्षम हैं l
'सैर सुबह की','पॉली क्लिनिक ','नौ सौ चूहे खाकर '
'चूना नहीं लगाना ' 'देश हमारा ' आदि सभी कविताएँ बाल मनोविज्ञान से अभिव्यंजित सरल, मनोरंजक और मुहावरों के माध्यम से ज्ञानवर्धन करने वालीं हैं l
बाल गीत संग्रह का शीर्षक ' बच्चे होते फूल से ' मानो कवि के कोमल- सम्वेदनशील हृदय का ही प्रतिबिंब है और उनकी रचनाएं इस शीर्षक को सार्थक करती हैं l
आपका यह बाल गीत संग्रह आज की और आने वाले कल की पीढ़ी के लिए एक अनुपम उपहार है lआशा है साहित्य जगत आपकी इस कृति का स्वागत करेगा और आपके द्वारा रचित इन कविताओं को पढ़ कर बच्चे खिलते रहेंगे और महकते रहेंगे मेरी हार्दिक शुभकामना है l

मधुश्री के.

सोमवार, 28 जुलाई 2025

फेसबुक से साभार एक छोटी सी टिप्पणी


कविता सक्सेना जी आपने #बच्चे_होते_फूल_से कृति का सबसे अच्छा उपयोग किया। स्वयं पढ़ कर कृति समीक्षा लिख हमें भेजी और पुस्तक उन बच्चों तक पहुँचा दी जिनके लिए सही मायने में कविताएँ लिखी गईं हैं।
फेसबुक से साभार


बच्चों के बीच बच्चों की कविता
स्कॉलर्स अकेडमी शुजालपुर में आयोजित छोटे बच्चों की काव्य प्रतियोगिता सचमुच मन को भाने वाली प्रस्तुतियाँ बिना झिझक एक्शन के साथ प्रस्तुतियों ने मन मोह लिया। बरसो इस संस्था में काम किया जब भी जाती हूँ मन आनंदित होता है, प्रिंसिपल, डारेक्टर मेम और सहयोगी टीचर्स का प्यार अपनापन मिलता है, हर बार अपनी रचनाओ की किताब मेम को भेंट करती हूँ। इस बार मनोज जैन 'मधुर' जी की बालगीत की पुस्तक "बच्चे होते फूल से" भेंट की; ताकि बाल पाठकों तक पुस्तक पहुँच सके। प्रिंसिपल गीता देशमुख मेम बहुत अच्छी पाठिका है। पुस्तक प्रेमी और आकर्षक व्यक्तित्व की धनी भी आप अच्छी बालोपयोगी पुस्तक सहेजती है। साथ ही बाल उपयोगी रचनाएँ सिलेबस के लिए चुनती भी है। कार्यक्रम की कुछ झलकियाँ।


चित्र परिचय श्रीमती कविता सक्सेना जी स्कॉलर्स अकेडमी शुजालपुर, मध्यप्रदेश की निदेशक गीता देशमुख जी को कृति " बच्चे होते फूल से " भेंट करते हुए प्रस्तुति : ब्लॉग वागर्थ

समीक्षा : संजय सुजय बासल

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पुस्तक समीक्षा
“बच्चे होते फूल से”

आज के बहुचर्चित गीत एवं नवगीतकार, मेरे अनुज, साहित्य सृजन में मेरे मार्गदर्शक, और देश के प्रतिष्ठित गीत-नवगीत-बालगीत साहित्यकार आदरणीय मनोज जैन 'मधुर' जी की बहुप्रतीक्षित बालगीत कृति “बच्चे होते फूल से” डाक से प्राप्त हुई।

पुस्तक के हाथ में आते ही मनमोहक कवर पृष्ठ ने प्रथम दृष्टि में ही मन जीत लिया। सुन्दर पुष्पों के साथ दो बच्चों का वह चित्र—जैसे किसी नदी के घाट पर बैठकर जल तरंगों से अठखेलियाँ कर रहे हों—बाल मन को आकर्षित करता है।

मुखपृष्ठ के पश्चात लेखक, प्रकाशक व मुद्रक की जानकारी प्राप्त होती है। अगले पृष्ठ पर मनोज जी ने इस कृति में लगे मानसिक व शारीरिक परिश्रम को विख्यात बाल साहित्य कल्याण केंद्र को समर्पित किया है, जो उनके साहित्य के प्रति समर्पण और उदार मनोवृत्ति को दर्शाता है।

शुभकामना संदेश अनुभाग में आदरणीय डॉ. विकास दवे (निदेशक, साहित्य अकादमी, म.प्र. शासन), आदरणीय महेश सक्सेना (सचिव/निदेशक, बाल कल्याण एवं साहित्य शोध केंद्र, भोपाल), सुप्रसिद्ध बालगीतकार डॉ. परशुराम शुक्ल, सुनील चतुर्वेदी, घनश्याम मैथिल, डॉ. अभिजीत देशमुख (लेप्रोस्कोपिक सर्जन), मनोज जी के साहित्यिक मित्र श्री सुबोध श्रीवास्तव, रचनाकार कविता सक्सेना एवं कुँवर उदयसिंह ‘अनुज’ जैसे विद्वानों ने मनोज जी को इस नवप्रयोग पर अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ दी हैं।

आत्मकथ्य में लेखक ने बाल साहित्य सृजन की अपनी यात्रा को अत्यंत आत्मीयता से साझा करते हुए अपने शुभचिंतकों के सहयोग और संबल के लिए आभार व्यक्त किया है।

इस कृति में कुल 103 कविताएँ संकलित हैं। प्रथम पृष्ठ पर पाँच बाल पहेलियाँ हैं—यह एक सराहनीय प्रयोग है जो बच्चों के जिज्ञासु मन को विशेष रूप से आकर्षित करता है।

शीर्षक कविता "बच्चे होते फूल से" बच्चों के कोमल स्वभाव, नटखटपन, ममता, दया और करुणा जैसे भावों को अत्यंत सरस ढंग से प्रस्तुत करती है।

तीसरी कविता में माली काका के माध्यम से पर्यावरण-संवेदनशीलता, पशु-पक्षियों के प्रति करुणा और हरियाली के महत्व को रेखांकित किया गया है।

"चंट चतुर लोमड़ी", "मातादीन", "गिनती गीत", "प्यारी माँ", "जादूगर", "मेरी प्यारी दोस्त गिलहरी", "दिल्ली पुस्तक मेला" सहित सभी कविताएँ रोचक, सरस और सुरुचिपूर्ण हैं।

"हमारा प्यारा देश भारत" कविता भारत की विविधता में एकता और उसकी महिमा को बहुत सुंदर रूप में चित्रित करती है।

लोरी गीत, चूहों के सरदार, सैर सुबह की, पॉली क्लिनिक, पलकों पर बैठाओ पापा जैसी रचनाएँ बच्चों की मानसिक दुनिया को स्पर्श करती हैं।

इन सभी कविताओं में बाल मनोविज्ञान, मनोरंजन और नैतिक संदेश का समन्वय है। कई कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा अनुभव हुआ जैसे लेखक अपने बचपन की स्मृतियों में डूबकर उन्हें शब्द दे रहे हों।

यह आदरणीय मनोज जैन 'मधुर' जी की तीसरी कृति है। पूर्व की दोनों रचनाएँ भी गीत-नवगीत की श्रेष्ठ कृतियों में सम्मिलित रही हैं।

मैं मनोज जी को न केवल साहित्य के क्षेत्र में निकट से जानता हूँ, बल्कि उन्हें एक सच्चे साहित्य-साधक और पथ-प्रदर्शक के रूप में मानता हूँ। उनकी प्रतिभा, अनुशासन और साहित्य के प्रति समर्पण उन्हें आज देशभर में विशिष्ट स्थान दिला चुका है।

मैं उनके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ और इस अद्भुत कृति के लिए उन्हें हार्दिक बधाई देता हूँ।

संजय सुजय बासल
बरेली, जिला रायसेन, मध्यप्रदेश
मो. 9617541519


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समीक्षा

कृति: बच्चे होते फूल से कृतिकार मनोज जैन  समीक्षक श्री अरविंद शर्मा जी



पुस्तक समीक्षा
बच्चे होते फूल से : एक गीतकार की कलम से निकलीं बालमन की कविताएँ

कोई बाल साहित्यकार गीतकार बने तो हम साहित्यिक जगत की व्यवस्था के आधार पर रचनाकार की प्रौढ़ता की यात्रा कह सकते हैं, लेकिन जब कोई गीतकार बाल साहित्य का सृजन करे तो हम उसे पूर्णता की प्राप्ति कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसी ही पूर्णता की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ सदीय गीतकार मनोज जैन 'मधुर' जी का।

यह बात मैं इसलिए कह सकता हूँ कि मैंने साहित्यिक धरातल पर उन्हें गीतकार के रूप में ही जाना और सुना, लेकिन जब उनकी नवीन कृति ‘बच्चे होते फूल से’ मुझे प्राप्त हुई तो एक सकारात्मक अनुभूति हुई। यह अनुभूति इसलिए नहीं हुई कि मनोज जी एक ख्यात गीतकार हैं, बल्कि इसलिए हुई कि उन जैसे गीतकार ने बाल साहित्य को अपनी सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए चुना।

बाल साहित्य के शुभचिंतक आदरणीय डॉ. विकास दवे जी ने अपने संदेश में कहा भी है—
“मनोज जी का मधुर भाव तो है ही, उस पर सोने पर सुहागा यह कि वे गीत रचना में भी सिद्धहस्त हैं।” (पृष्ठ 06)

एक बाल साहित्यकार होने के नाते मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जब हम बच्चों के साहित्य का सृजन करते हैं तो हमें अपने अनुभवी होने, ज्ञानी होने और प्रकांड विद्वान होने के दंभ को सर्वदा त्यागना पड़ता है। हमें अपनी कल्पनाशीलता को कई गुना विस्तार देना पड़ता है और मनोज जी ने वाकई इसे सिद्ध किया है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण बाल साहित्य के प्रेरणास्रोत आदरणीय श्री महेश सक्सेना के उन विचारों से प्राप्त होता है, जिसमें उन्होंने कहा है—
‘बच्चे होते फूल से’ संग्रह की कविताओं को पढ़ने पर मुझे यकीन हुआ कि मनोज को बच्चों की मासूमियत, नज़ाकत, हिम्मत और कोमल मनोविज्ञान का पूरा ज्ञान है।”* (पृष्ठ 07)

इन्हीं सब मानदंडों को स्वीकारते हुए मैं मनोज जैन 'मधुर' जी की बाल कविताओं की कृति ‘बच्चे होते फूल से’ की पाठकीय समीक्षा कर रहा हूँ, जिसमें मैं सिर्फ उन्हीं बिन्दुओं को रेखांकित करूंगा जो मुझे एक पाठक होने के नाते प्रभावित कर पाये या नहीं कर पाये।

समीक्षा की दृष्टि से अवलोकन

प्रस्तावना और भाषा प्रयोग
बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केन्द्र को समर्पित ‘बच्चे होते फूल से’ में शुभकामना संदेशों और भूमिकाओं से ज्ञात होता है कि मनोज जी की कृति प्रकाशित होने से पूर्व ही बाल साहित्य के पुरोधाओं, साहित्य जगत के सशक्त स्तंभों और व्यावसायिक पृष्ठभूमि से आये साहित्य प्रेमियों की चहेती बन गई। इस प्रकार का शुभारंभ बाल साहित्य के लिए शुभ है और हमें आशा है कि मनोज जी की कलम से बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं में भी नव सृजन होगा।

मनोज जी की कविताओं की बात करें तो आपकी रचनाओं को पढ़ने के बाद यही स्पष्ट होता है कि वो रचनाकार जो पहले गीतकार हो और उसके बाद बाल साहित्य की रचना करे—खासतौर से कविताओं की—तो उसमें लयात्मकता आना स्वाभाविक है।

मनोज जी की कविताओं में भी ऐसा ही हुआ। उन्होंने सिर्फ लय में लाने के लिए जानबूझ कर तुकांत शब्दों का प्रयोग नहीं किया, जैसा कि आमतौर पर बाल साहित्यकार अपने प्रारंभिक कविता लेखन में कर देते हैं, बल्कि कविताओं में ऐसे सार्थक शब्दों का प्रयोग किया गया जो बोलियों या अन्य भाषाओं के शब्द भी रहे। ये शब्द टाट में पैबंद की तरह नहीं, वरन् मलमल में गोटे की भांति अपनी भूमिका निभाते हैं।

जहाँ तक भाषा की बात है तो हिन्दी के अलावा बुन्देली और कहीं-कहीं अंग्रेज़ी का प्रयोग भी सफल रहा। इसका उल्लेख समीक्षक एवं गुणी साहित्यकार घनश्याम मैथिल 'अमृत' जी ने अपनी भूमिका में किया है, जैसे ‘स्टेथोस्कोप’ को ‘परिश्रावक यंत्र’, धूप को ‘घाम’। इसी प्रकार पहली रचना ‘पाँच पहेलियाँ’ में 'हेरे' शब्द का प्रयोग किया गया है, जो एक बुंदेली शब्द है। यहाँ ‘हेरे’ का अर्थ ‘देखे’ है—

“फहराया जाता हूँ नभ में
तीन रंग हैं मेरे।
नहीं किसी में हिम्मत इतनी
आँख उठाकर हेरे।”
(पृष्ठ 29)

एक पाठक होने के नाते मुझे लगता है कि इन पहेलियों का उत्तर यदि अंतिम पृष्ठ पर दिया जाता तो उत्सुकता बनी रहती।

रचनात्मकता और विषय वैविध्य
शीर्षक कविता ‘बच्चे होते फूल से’ में एक ओर जहाँ आपने बच्चों की कोमलता की बात की, वहीं दूसरी ओर उनकी हिम्मत की भी। कविता में स्पष्ट होता है कि बालमन निश्छल होता है, वह संवेदनशील भी होता है। इस कारण उनसे ऐसा व्यवहार न करें जो उनके बालमन को आहत करे।

‘मातादीन’ कविता में बुंदेली सभ्यता की झलक दिखाई देती है। यह मुझे इसलिए महसूस हुई क्योंकि मैंने अपनी नानी से राजा-रानी और वैद्य की इसी प्रकार की गिनती की कविता सुनी थी। इसके अलावा ‘जादूगर’, ‘गिनती गीत’, ‘गिलहरी’ कविताएँ भी संख्याओं और गिनती से परिचय कराती हैं। यह हँसते-गाते बच्चों को सहजता से शिक्षा पाने का मार्ग प्रशस्त करती हैं।

‘दिल्ली-पुस्तक-मेला’ कविता के माध्यम से छपास के रोग से ग्रसित लेखकों की अच्छी पोल खोली गई है। यह कविता शाब्दिक रूप से तो बाल साहित्य प्रतीत होती है, लेकिन भावार्थ में हास्य-व्यंग्य कविता के रूप में भी पढ़ी जा सकती है। इसी प्रकार ‘चूना नहीं लगाना’ में भी यही प्रयोग हुआ है।

वैसे तो इन्हें किशोर साहित्य में रखा जा सकता है, फिर भी मेरा अनुरोध रहेगा कि मनोज जी भविष्य में इस प्रकार की रचना करते हुए यह विशेष ध्यान रखें कि ऐसे संग्रहों में सिर्फ बाल कविता का ही समावेश हो—जो बालमन को प्रफुल्लित कर सकें।

प्रयोगशीलता और ध्वन्यात्मक प्रयोग
‘चूहों के सरदार ने’ कविता में चूहों की आवाज़ को शब्दों में ढालना—

“चीं चीं चिक चिक कर चूहों ने,
आपस में कुछ बातें की।”
(पृष्ठ 50)

और ‘जाओ स्वेटर लेकर आओ’ कविता में—

“खौं खौं खें खें करते रहते,
फिक्र नहीं है मेरी।”
(पृष्ठ 68)

—इस तरह के ध्वन्यात्मक प्रयोगों से कविताओं में जीवंतता आती है।

‘बूझ रहा हूँ एक पहेली’, ‘दो गज दूरी बहुत ज़रूरी’, ‘मोबाइल से दूरी’ जैसी कविताओं में हुए प्रयोगों ने मुझे आनंदित किया। ‘बूझ रहा हूँ एक पहेली’ में मनोज जी ने जो खाली स्थान छोड़ा है, उसमें मैंने पेंसिल से ‘हाथी’ लिखा। इस प्रकार के प्रयोग पाठकों को व्यक्तिगत रूप से कवि की रचना से जोड़ते हैं।

‘दो गज दूरी’ कविता संभवतः कोविड काल में रची गई, लेकिन यह कविता हमें हमेशा याद दिलाती रहेगी कि स्वस्थ जीवन कितना बहुमूल्य है।

सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकार
‘यह डलिया है उड़ऩे वाली’ कविता में ‘धक्का प्लेट’ शब्द का प्रयोग मुझे अतीत में ले गया—

“धक्का प्लेट नहीं यह गाड़ी,
ना है पीछे मुड़ने वाली।”
(पृष्ठ 85)

बाल कविताओं में यह नयापन सराहनीय है।

‘अल्मोड़ा’ कविता में घोड़े को केन्द्र में रखकर जहाँ एक ओर कसौली और अल्मोड़ा की सैर करा दी, वहीं ‘निगोड़ा’ शब्द से मूक जानवर के प्रति प्रेम भी झलकता है।

‘दाने लाल अनार के’ कविता में अनार को ‘शहजादा’ कहकर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है—

“आम फलों का है यदि राजा,
तो अनार भी है शहजादा।”
(पृष्ठ 94)

समकालीनता और आभासी दुनिया की झलक
‘मैं हूँ बिल्ली चतुर सियानी’ कविता में सोशल मीडिया की दुनिया की झलक है—

“बिल से बाहर आओ जानी,
मैं हूँ बिल्ली चतुर सियानी।”
(पृष्ठ 99)

यहाँ ‘जानी’ शब्द ने मुझे अभिनेता राजकुमार की याद दिला दी।

शब्द वैविध्य और अंत की उपलब्धि
मनोज जी के शब्द भंडार को देखकर लगता है कि हमें आने वाले समय में उनके बाल साहित्य से कई प्यारे-प्यारे शब्द मिलेंगे। इन्हीं में एक शब्द ‘शहदीली’ का प्रयोग ‘बड़ी बुआ’ कविता में देखने को मिला—

“बात बुआ की शहदीली,
हम सब का दिल बहुत छुआ।”
(पृष्ठ 102)

अंतिम कविता ‘मोकलवाड़ा’ में जिस प्रकार आपने उसका प्राकृतिक वर्णन किया है, उसने मुझे गूगल करने पर बाध्य कर दिया। मुझे खुशी है कि मैं जान पाया कि ‘मोकलवाड़ा’ मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में स्थित प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर एक पर्यटन स्थल है।

निष्कर्ष
सभी कविताओं का उल्लेख करना संभव तो नहीं है, लेकिन यह अवश्य कह सकता हूँ कि मनोज जी द्वारा रचित सभी बाल कविताएँ पठनीय हैं। इस संग्रह में कुल 43 कविताएँ संग्रहीत हैं। इनमें मनोरंजन, नवाचार, संस्कार, आधुनिकता जैसे सभी विषय समाहित हैं।

इक्का-दुक्का जगह टंकण की त्रुटियाँ अवश्य हैं, जो नज़रबट्टू की तरह महसूस होती हैं।

अंततः, मनोज जैन 'मधुर' जी को इस नई कृति के लिए मंगल कामनाएँ। भविष्य में बाल साहित्य की अन्य विधाओं में भी आपकी लेखनी की प्रतीक्षा रहेगी।

मैं एक पाठक और बाल साहित्यकार के रूप में मनोज जी का आभारी हूँ कि उन्होंने ‘बच्चे होते फूल से’ पर विचार व्यक्त करने का अवसर प्रदान कर अपनी बाल साहित्य की यात्रा में सहयात्री बनाया।

—अरविन्द शर्मा
लेखक/प्रकाशक, भोपाल


पूर्णिमा मित्रा

गुरुवार, 24 जुलाई 2025

अनन्त आलोक समीक्षा बच्चे होते फूल से

संवेदनाओं की फुलवारी ‘बच्चे होते फूल से’
 -अनंत आलोक 

गीतकार मनोज जैन 'मधुर' के बाल काव्य संग्रह 'बच्चे होते फूल से' की कविताओं की रंग बिरंगी फुलवारी से गुजरते हुए यूं लगा कि मानो मैं खुद अपना बचपन एक बार फिर से जी रहा हूँ। अपने बचपन के हर मोड़ से गुजरना अपने आप में कितना खूबसूरत एहसास है, ये राही भी महसूस ही कर सकता है, सही सही बता नहीं सकता। 

काश ऐसा संभव हो कि हर कोई जब जी चाहे अपने बचपन से गुजर सके और जब जी चाहे तो वापस अपनी वास्तविक अवस्था में प्रवेश पा सके। 

काश ! ऐसा करिश्मा कर दे ये ए आई! ए. आई करे न करे, लेकिन एक कवि एक लेखक एक कथाकार की साधना में वह ताकत होती है, और वह चाहे तो ऐसा संभव कर सकता है।
वह जब चाहे उस स्तर तक जा पहुंचता है, जहाँ श्रोता कहने को मजबूर हो जाता है कि जहाँ न पहुंचे रवि वहाँ पहुंचे कवि। लेकिन क्या ये परकाया प्रवेश यूं ही संभव हो पाता है ! नहीं, इसके लिए लंबी साधना की जरूरत होती है। 

इस काव्य संग्रह की बाल कविताओं ने ये साबित कर दिया है कि एक साधक, एक समर्पित लेखक जब चाहे तब बचपन में उतर सकता है और जब चाहे तब वापस भी आ सकता है।
संग्रह की शब्द फुलवारी में अलग अलग रंग के कुल तैंतालीस फूल लहलहा रहे हैं। जिनकी सुगंध और दर्शन नयन और कर्ण मार्ग से ग्रहण करते हुये आनंदित हुआ जा सकता है।

शीर्षक बाल गीत से शुरुआत करूँ तो यह गीत हर एक अध्यापक, हर माता-पिता अभिभावक को जरूर पढ़ना चाहिए। पढ़ना ही नहीं चाहिए, हर घर, हर कक्षा कक्ष की दीवार पर लगा देना चाहिए। 
पाठ्यपुस्तक में आ जाए तो सोने पर सुहागा। इतना प्यारा गीता है कि तीन अंतरों में सब कुछ समेट दिया है कवि ने, एक बानगी देखिए। 

बच्चे होते फूल से, 
आँख दिखाओ मुरझा जाते,
प्यार करो खिल जाते हैं। 
मन के सारे भेद भुला कर,
आपस में मिल जाते हैं। 
मन होता है इनका कोमल,
इन्हें न डांटो भूल से। 
बच्चे होते फूल से।

बाल मन को गीति काव्य अधिक पसंद आता है और उसमें भी यदि कोई कथा कह दी जाए तो याद भी रहता है और कोई सीख भी मिल जाती है।
 
चौपाई छंद में मातादीन की ऐसी कथा बुनी की आनंद आनंद में बच्चा गाता जाए और एक से दस तक की गिनती भी सीख जाए। 
ये कविता छोटे बच्चों के लिए अधिक उपयोगी साबित हो सकती है।
एक बानगी देखिए 

एक गाँव में घर दो तीन 
आकर ठहरे मातदीन 
इन ने पाले घोड़े चार 
घूम लिया सारा संसार।  

यदि इतने ही अंश पर ध्यान दें, तो आप पाएंगे कि मातादीन के लिए सर्वनाम उस ने अथवा इस ने भी किया जा सकता था। लेकिन यहाँ कवि की सजगता देखिये, इन ने का प्रयोग किया गया है, जो सम्मान जनक है। अपने से बड़ों का सम्मान करना व्यवहार से ही सिखाया जा सकता है।  

‘एक बोध कथा का भावानुवाद’ कवि का बाल काव्य में नूतन प्रयोग है। 
एक समय था जब पंचतंत्र की कथाओं से सीख देने का चलन था। बच्चे उस से आकर्षित भी खूब होते थे। उसी राह पर चलते हुये टीवी ने बच्चों के लिए, जानवरों को पात्र बना कर कार्टून के माध्यम से बांधने का सफल प्रयास किया। लेकिन विद्यालय में अथवा किताबों से बच्चा फिर से जुड़े इसके लिए इसी तरह के प्रयास की आवश्यकता है जैसी यहाँ कवि ने की है। 
इस शीर्षक के अंतर्गत भाग एक और भाग दो के रूप में कवि ने सार छंद में तोतों को पात्र बनाकर महत्वपूर्ण सीख, रुचिपुर्ण ढंग से बच्चों तक पहुंचाने का प्रयास किया है।

चूना नहीं लगाना, भी एक अच्छी कविता है, थोड़ी लम्बी और व्यंजनात्मक है लेकिन बच्चे आनंद लेकर पढ़ सकते हैं। भालू बच्चों और बाल साहित्यकारों का प्रिय पात्र रहा है। 

एक रोज़ गुमटी पर आकर 
बोला भालू काला 
चौरसिया जी पान बना दो 
हमें बनारस वाला

इसमें नहीं डालना बिल्कुल 
ज़र्दा और सुपारी 
सेवन से हो जाता इसके 
अपना तो सर भारी। 

दूसरे अंतरे में नशे से बचने की हिदायत है, लेकिन पान मसाला भी से भी बचना चाहिए। बहरहाल अब पान वान के जमाने वैसे भी कहाँ रहे अब। एक इतिहास इसके माध्यम से जरूर पढ़ाया जा सकता है, बच्चों को। 

बड़ी बुआ, एक भावभूमि के लिहाज से और रिश्तों संभाल के लिहाज से एक बेहतरीन कविता है। रिश्तों के कैनवास पर बुआ, बच्चों का सबसे प्रिय पात्र है। इसे एक जरूरी कविता कहूँगा। 
आप भी एक दो बंध देखिए 

घर आईं हैं बड़ी बुआ 
आज बनेगा मालपुआ। 

ओढ़ रखा पश्मीना शॉल 
लगती हैं कश्मीरी डॉल 
होठों पर बिखरी मुस्कान 
चबा रही हैं मीठा पान 
चाँदी जैसे खिचड़ी बाल 
फूले फूले लटके गाल 

सर पर हाथ फिरा पूछा,
कैसा है मेरा बबुआ ?

ये जो सर पर हाथ रखना है और प्यार से पूछना, कैसा है मेरा बबुआ ? ये एक पूरी संस्कृति है। जो धीरे धीरे हैलो बुआ, हाय बुआ में, हैलो बेटा में बदल रही है। 

बुआ बुआ बूढ़ी है सो उसके संस्कार में अभी सर पर हाथ फिराना बाकी है। हिन्दी को चाहिए था कि सर पर हाथ फिरना को, मुहावरे के रूप में दर्ज करे। 

इसी तरह, इस गीत के मुखड़े की पूरक पंक्ति को देखें तो मालपुआ भी गाँव की संस्कृति है। 
इस गीत के अंतरों के पूरक समांत पर ध्यान दें तो मालपूआ, बबुआ, कछुया, महुआ, अहा ! ये स्मान्त केवल शब्द भर नहीं हैं। समवेदनाओं के भरे पूरे स्त्रोत हैं। ऐसे स्त्रोत जहां से रिश्तों को बचाने के सूत्र निकलते हैं, जहां से निकलती है प्यार मुहब्बत और अपने पन की गंगा। 

हमारे बाल साहित्यकारों ने मुंशी प्रेमचंद की ईदगाह के बाद शायद ही कहीं रिश्तों को बचाने पर ध्यान दिया हो। यही कारण है कि आज प्रगतिवाद के नाम पर हम अपनों से दूर होते चले जा रहे हैं। जब तक हमें पता चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। 

विभिन्न शिक्षाओं और मूल्यों को बचाने के साथ साथ रिश्तों को बचाने और, और अधिक मजबूत करना इस संग्रह का हासिल कहा जा सकता है। 

सार छंद में एक ओर कविता पर ध्यान ठहर जाता है। दिल्ली पुस्तक मेला। लेकिन ये कविता छोटे बच्चों के स्टार से ऊपर चली गई है। यहाँ बेशक बच्चों के प्रिय पात्रों को लेकर पुस्तक मेले की बात की गई है। पुस्तक मेले के बारे में और उसके प्रति आकर्षण पैदा करने के लिए यह कविता उपयुक्त हो सकती है लेकिन, इसके भावों को लेकर छोटे बच्चों की समझ इतनी विकसित नहीं मानी जा सकती। बड़ों के लिए इसे अच्छा व्यंग्य माना जा सकता है।

संग्रह की हर एक कविता, गीत, लोरियाँ, पहेलियाँ, अपने आप में महत्वपूर्ण और उपयोगी है। उल्लेखनीय है। जिसके लिए आपको संग्रह से खुद गुजरना होगा। गुड़ को खुद खाए बिना उसका रस नहीं लिया जा सकता। तो खाएं और रस लें। 

कवि को बधाई देते हुए कहूँगा कि आपका यह कार्य संग्रहणीय तो है ही पठनीय है। चिंतन करने के योग्य है और इसे बच्चों के बीच पहुंचाने की आवश्यकता है। मैं स्वयं आपकी इस अमूल्य भेंट को अपने विद्यालय के पुस्तकालय में ले जाकर छात्र-छात्रों को पढ़वाऊंगा। 

उम्मीद करता हूँ, संवेदनाओं की फुलवारी में खूब फूल आएँ, भरपूर महके और फले फूले। कवि को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ। 

  

अनंत आलोक – साहित्यालोक बायरी डाकघर व तहसील ददाहू जिला सिरमौर, हिमाचल प्रदेश 173022 mob: 9418633772

बुधवार, 23 जुलाई 2025

एक जिंदगी क्या कह रही है- मनोज जैन

#गीत

#ज़िंदगी_क्या_कह_रही_है 

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खूबसूरत ज़िंदगी के पल तुम्हारे पास हैं,
फिर भला क्यों तुम उदासी 
ओढ़ कर बैठे हुए हो।
 
तनिक देखो घाट के भुजपाश में,
लिपटी नदी को,
खिलखिलाकर हँस रही है जोर से।

झाँककर देखो जरा भिनसार का,
यह रूप मनहर,
बहुत प्यारा लग रहा हर ओर से।

सृष्टि की खुशियाँ तुम्हारे पास हैं,
ज़िंदगी से फिर भला
मुख मोड़ क्यों बैठे हुए हो।

उड़ चला पाखी गगन में,
धूप से कर चार बातें।
हवा मद्धिम और ठंडी वह रही है।

चूसती मकरंद तितली,
भृंग मँडराया कली पर,
सुन जरा लो, जिंदगी क्या कह रही है?

सामने सत्यं शिवम है सुंदरम है,
और तुम नाता इसी से,
तोड़कर बैठे हुए हो।

मनोज जैन 
23/7/25