सोमवार, 28 जुलाई 2025

समीक्षा

कृति: बच्चे होते फूल से कृतिकार मनोज जैन  समीक्षक श्री अरविंद शर्मा जी



पुस्तक समीक्षा
बच्चे होते फूल से : एक गीतकार की कलम से निकलीं बालमन की कविताएँ

कोई बाल साहित्यकार गीतकार बने तो हम साहित्यिक जगत की व्यवस्था के आधार पर रचनाकार की प्रौढ़ता की यात्रा कह सकते हैं, लेकिन जब कोई गीतकार बाल साहित्य का सृजन करे तो हम उसे पूर्णता की प्राप्ति कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसी ही पूर्णता की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ सदीय गीतकार मनोज जैन 'मधुर' जी का।

यह बात मैं इसलिए कह सकता हूँ कि मैंने साहित्यिक धरातल पर उन्हें गीतकार के रूप में ही जाना और सुना, लेकिन जब उनकी नवीन कृति ‘बच्चे होते फूल से’ मुझे प्राप्त हुई तो एक सकारात्मक अनुभूति हुई। यह अनुभूति इसलिए नहीं हुई कि मनोज जी एक ख्यात गीतकार हैं, बल्कि इसलिए हुई कि उन जैसे गीतकार ने बाल साहित्य को अपनी सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए चुना।

बाल साहित्य के शुभचिंतक आदरणीय डॉ. विकास दवे जी ने अपने संदेश में कहा भी है—
“मनोज जी का मधुर भाव तो है ही, उस पर सोने पर सुहागा यह कि वे गीत रचना में भी सिद्धहस्त हैं।” (पृष्ठ 06)

एक बाल साहित्यकार होने के नाते मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जब हम बच्चों के साहित्य का सृजन करते हैं तो हमें अपने अनुभवी होने, ज्ञानी होने और प्रकांड विद्वान होने के दंभ को सर्वदा त्यागना पड़ता है। हमें अपनी कल्पनाशीलता को कई गुना विस्तार देना पड़ता है और मनोज जी ने वाकई इसे सिद्ध किया है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण बाल साहित्य के प्रेरणास्रोत आदरणीय श्री महेश सक्सेना के उन विचारों से प्राप्त होता है, जिसमें उन्होंने कहा है—
‘बच्चे होते फूल से’ संग्रह की कविताओं को पढ़ने पर मुझे यकीन हुआ कि मनोज को बच्चों की मासूमियत, नज़ाकत, हिम्मत और कोमल मनोविज्ञान का पूरा ज्ञान है।”* (पृष्ठ 07)

इन्हीं सब मानदंडों को स्वीकारते हुए मैं मनोज जैन 'मधुर' जी की बाल कविताओं की कृति ‘बच्चे होते फूल से’ की पाठकीय समीक्षा कर रहा हूँ, जिसमें मैं सिर्फ उन्हीं बिन्दुओं को रेखांकित करूंगा जो मुझे एक पाठक होने के नाते प्रभावित कर पाये या नहीं कर पाये।

समीक्षा की दृष्टि से अवलोकन

प्रस्तावना और भाषा प्रयोग
बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केन्द्र को समर्पित ‘बच्चे होते फूल से’ में शुभकामना संदेशों और भूमिकाओं से ज्ञात होता है कि मनोज जी की कृति प्रकाशित होने से पूर्व ही बाल साहित्य के पुरोधाओं, साहित्य जगत के सशक्त स्तंभों और व्यावसायिक पृष्ठभूमि से आये साहित्य प्रेमियों की चहेती बन गई। इस प्रकार का शुभारंभ बाल साहित्य के लिए शुभ है और हमें आशा है कि मनोज जी की कलम से बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं में भी नव सृजन होगा।

मनोज जी की कविताओं की बात करें तो आपकी रचनाओं को पढ़ने के बाद यही स्पष्ट होता है कि वो रचनाकार जो पहले गीतकार हो और उसके बाद बाल साहित्य की रचना करे—खासतौर से कविताओं की—तो उसमें लयात्मकता आना स्वाभाविक है।

मनोज जी की कविताओं में भी ऐसा ही हुआ। उन्होंने सिर्फ लय में लाने के लिए जानबूझ कर तुकांत शब्दों का प्रयोग नहीं किया, जैसा कि आमतौर पर बाल साहित्यकार अपने प्रारंभिक कविता लेखन में कर देते हैं, बल्कि कविताओं में ऐसे सार्थक शब्दों का प्रयोग किया गया जो बोलियों या अन्य भाषाओं के शब्द भी रहे। ये शब्द टाट में पैबंद की तरह नहीं, वरन् मलमल में गोटे की भांति अपनी भूमिका निभाते हैं।

जहाँ तक भाषा की बात है तो हिन्दी के अलावा बुन्देली और कहीं-कहीं अंग्रेज़ी का प्रयोग भी सफल रहा। इसका उल्लेख समीक्षक एवं गुणी साहित्यकार घनश्याम मैथिल 'अमृत' जी ने अपनी भूमिका में किया है, जैसे ‘स्टेथोस्कोप’ को ‘परिश्रावक यंत्र’, धूप को ‘घाम’। इसी प्रकार पहली रचना ‘पाँच पहेलियाँ’ में 'हेरे' शब्द का प्रयोग किया गया है, जो एक बुंदेली शब्द है। यहाँ ‘हेरे’ का अर्थ ‘देखे’ है—

“फहराया जाता हूँ नभ में
तीन रंग हैं मेरे।
नहीं किसी में हिम्मत इतनी
आँख उठाकर हेरे।”
(पृष्ठ 29)

एक पाठक होने के नाते मुझे लगता है कि इन पहेलियों का उत्तर यदि अंतिम पृष्ठ पर दिया जाता तो उत्सुकता बनी रहती।

रचनात्मकता और विषय वैविध्य
शीर्षक कविता ‘बच्चे होते फूल से’ में एक ओर जहाँ आपने बच्चों की कोमलता की बात की, वहीं दूसरी ओर उनकी हिम्मत की भी। कविता में स्पष्ट होता है कि बालमन निश्छल होता है, वह संवेदनशील भी होता है। इस कारण उनसे ऐसा व्यवहार न करें जो उनके बालमन को आहत करे।

‘मातादीन’ कविता में बुंदेली सभ्यता की झलक दिखाई देती है। यह मुझे इसलिए महसूस हुई क्योंकि मैंने अपनी नानी से राजा-रानी और वैद्य की इसी प्रकार की गिनती की कविता सुनी थी। इसके अलावा ‘जादूगर’, ‘गिनती गीत’, ‘गिलहरी’ कविताएँ भी संख्याओं और गिनती से परिचय कराती हैं। यह हँसते-गाते बच्चों को सहजता से शिक्षा पाने का मार्ग प्रशस्त करती हैं।

‘दिल्ली-पुस्तक-मेला’ कविता के माध्यम से छपास के रोग से ग्रसित लेखकों की अच्छी पोल खोली गई है। यह कविता शाब्दिक रूप से तो बाल साहित्य प्रतीत होती है, लेकिन भावार्थ में हास्य-व्यंग्य कविता के रूप में भी पढ़ी जा सकती है। इसी प्रकार ‘चूना नहीं लगाना’ में भी यही प्रयोग हुआ है।

वैसे तो इन्हें किशोर साहित्य में रखा जा सकता है, फिर भी मेरा अनुरोध रहेगा कि मनोज जी भविष्य में इस प्रकार की रचना करते हुए यह विशेष ध्यान रखें कि ऐसे संग्रहों में सिर्फ बाल कविता का ही समावेश हो—जो बालमन को प्रफुल्लित कर सकें।

प्रयोगशीलता और ध्वन्यात्मक प्रयोग
‘चूहों के सरदार ने’ कविता में चूहों की आवाज़ को शब्दों में ढालना—

“चीं चीं चिक चिक कर चूहों ने,
आपस में कुछ बातें की।”
(पृष्ठ 50)

और ‘जाओ स्वेटर लेकर आओ’ कविता में—

“खौं खौं खें खें करते रहते,
फिक्र नहीं है मेरी।”
(पृष्ठ 68)

—इस तरह के ध्वन्यात्मक प्रयोगों से कविताओं में जीवंतता आती है।

‘बूझ रहा हूँ एक पहेली’, ‘दो गज दूरी बहुत ज़रूरी’, ‘मोबाइल से दूरी’ जैसी कविताओं में हुए प्रयोगों ने मुझे आनंदित किया। ‘बूझ रहा हूँ एक पहेली’ में मनोज जी ने जो खाली स्थान छोड़ा है, उसमें मैंने पेंसिल से ‘हाथी’ लिखा। इस प्रकार के प्रयोग पाठकों को व्यक्तिगत रूप से कवि की रचना से जोड़ते हैं।

‘दो गज दूरी’ कविता संभवतः कोविड काल में रची गई, लेकिन यह कविता हमें हमेशा याद दिलाती रहेगी कि स्वस्थ जीवन कितना बहुमूल्य है।

सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकार
‘यह डलिया है उड़ऩे वाली’ कविता में ‘धक्का प्लेट’ शब्द का प्रयोग मुझे अतीत में ले गया—

“धक्का प्लेट नहीं यह गाड़ी,
ना है पीछे मुड़ने वाली।”
(पृष्ठ 85)

बाल कविताओं में यह नयापन सराहनीय है।

‘अल्मोड़ा’ कविता में घोड़े को केन्द्र में रखकर जहाँ एक ओर कसौली और अल्मोड़ा की सैर करा दी, वहीं ‘निगोड़ा’ शब्द से मूक जानवर के प्रति प्रेम भी झलकता है।

‘दाने लाल अनार के’ कविता में अनार को ‘शहजादा’ कहकर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है—

“आम फलों का है यदि राजा,
तो अनार भी है शहजादा।”
(पृष्ठ 94)

समकालीनता और आभासी दुनिया की झलक
‘मैं हूँ बिल्ली चतुर सियानी’ कविता में सोशल मीडिया की दुनिया की झलक है—

“बिल से बाहर आओ जानी,
मैं हूँ बिल्ली चतुर सियानी।”
(पृष्ठ 99)

यहाँ ‘जानी’ शब्द ने मुझे अभिनेता राजकुमार की याद दिला दी।

शब्द वैविध्य और अंत की उपलब्धि
मनोज जी के शब्द भंडार को देखकर लगता है कि हमें आने वाले समय में उनके बाल साहित्य से कई प्यारे-प्यारे शब्द मिलेंगे। इन्हीं में एक शब्द ‘शहदीली’ का प्रयोग ‘बड़ी बुआ’ कविता में देखने को मिला—

“बात बुआ की शहदीली,
हम सब का दिल बहुत छुआ।”
(पृष्ठ 102)

अंतिम कविता ‘मोकलवाड़ा’ में जिस प्रकार आपने उसका प्राकृतिक वर्णन किया है, उसने मुझे गूगल करने पर बाध्य कर दिया। मुझे खुशी है कि मैं जान पाया कि ‘मोकलवाड़ा’ मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में स्थित प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर एक पर्यटन स्थल है।

निष्कर्ष
सभी कविताओं का उल्लेख करना संभव तो नहीं है, लेकिन यह अवश्य कह सकता हूँ कि मनोज जी द्वारा रचित सभी बाल कविताएँ पठनीय हैं। इस संग्रह में कुल 43 कविताएँ संग्रहीत हैं। इनमें मनोरंजन, नवाचार, संस्कार, आधुनिकता जैसे सभी विषय समाहित हैं।

इक्का-दुक्का जगह टंकण की त्रुटियाँ अवश्य हैं, जो नज़रबट्टू की तरह महसूस होती हैं।

अंततः, मनोज जैन 'मधुर' जी को इस नई कृति के लिए मंगल कामनाएँ। भविष्य में बाल साहित्य की अन्य विधाओं में भी आपकी लेखनी की प्रतीक्षा रहेगी।

मैं एक पाठक और बाल साहित्यकार के रूप में मनोज जी का आभारी हूँ कि उन्होंने ‘बच्चे होते फूल से’ पर विचार व्यक्त करने का अवसर प्रदान कर अपनी बाल साहित्य की यात्रा में सहयात्री बनाया।

—अरविन्द शर्मा
लेखक/प्रकाशक, भोपाल


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