सोमवार, 3 जनवरी 2022

वागर्थ प्रस्तुत करता है वरेण्य कवि राजेन्द्र वर्मा जी के नवगीत ।

#कौआरोर_मची_पंचों_में_सच_की_कौन_सुने_

वागर्थ प्रस्तुत करता है आदरणीय Rajendra Verma जी के
नवगीत ।

     राजेन्द्र वर्मा जी के नवगीतों की व्यंजनात्मक अभिव्यक्ति धीरे से बहुत कुछ ऐसा कह जाती है जिसे लोकहित में कहना  नितान्त आवश्यक है , नवगीतों में शिल्प व व्याकरण का सौंदर्य उल्लेखनीय है । आपके समृद्ध नवगीत कथ्य और शिल्प में पुष्ट , विसंगत समय की नब्ज़ टटोलते हैं , जिनमें गहरी व्यंजना है । आपके गीतों का विशिष्ट शब्द सौष्ठव ,संप्रेषणीय कथ्य , तीक्ष्ण दृष्टि  , विषय की व्यापकता , शालीन व गम्भीर कहन विशिष्ट बनाते हैं जिनकी बुनावट में बनावट नजर नहीं आती अतः पाठकों से सहज संवाद स्थापित करते हैं ।
    वागर्थ आपको नववर्ष पर उत्तम स्वास्थ्य एवम् उन्नत साहित्यिक सक्रियता हेतु स्वस्ति कामनाएँ प्रेषित करता है ।

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(१)

काग़ज़ की नाव
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बाढ़ अभावों की आयी है, 
डूबी गली-गली ,
दम साधे हम देख रहे 
काग़ज़ की नाव चली ।

माँझी के हाथों में है 
पतवार आँकड़ों की,
है मस्तूल उधर ही इंगिति, 
जिधर धाकड़ों की,

लंगर जैसे जमे हुए हैं 
नामी बाहुबली ।

आँखों में उमड़े-घुमड़े हैं 
चिन्ता के बादल,
कोरों पर सागर लहराया 
भीगा है आँचल,

अपनेपन का दंश झेलती 
क़िस्मत करमजली ।

असमंजस में पड़े हुए हम 
जीवित शव जैसे,
मत्स्य-न्याय के चलते साँसें 
चलें भला कैसे ?

नौकायन करने वालों की 
है अदला-बदली ।

(२)

कौन सुने
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कौआरोर मची पंचों में,
सच की कौन सुने ?

लाठी की ताक़त को
बापू समझ नहीं पाए,
गए गवाही देने 
वापस कंधों पर आए,
    
दुश्मन जीवित देख दुश्मनी 
फुला रही नथुने ।

बेटे को ख़तरा था, 
किन्तु सुरक्षा नहीं मिली,
अम्मा दौड़ीं बहुत, 
व्यवस्था लेकिन नहीं हिली,

कुलदीपक बुझ गया,
न्याय की देवी शीश धुने ।

सत्य-अहिंसा के प्राणों को 
पड़े हुए लाले,
झूठ और हिंसा सत्ता के 
गलबहियाँ डाले,

सत्तासीन गोडसे हैं,
गाँधी को कौन गुने ।

(३)

जिजीविषा पगली
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कब तक जियें जि़न्दगी जैसे 
दूब दबी-कुचली ।

जिसे देखिए, वही रौंदकर 
हमको चला गया, 
अपशब्दों की चिंगारी से 
मन को जला गया, 

छोटे-बड़े,  सभी ने मिल 
छाती पर मूँग दली ।

लानों में बिछ इज़्ज़त खोयी 
जो थी बची-खुची,
जीने को तो मिली जि़न्दगी, 
पर सँकुची-सँकुची,

शीश उठाया, तो माली ने 
की हालत पतली ।

क्यारी का हर फूल हँसे,
अपनी हालत खस्ता,
कली-कली पर नज़र गड़ाए
बैठा गुलदस्ता,

मान और सम्मान न जाने 
जिजीविषा पगली ।     

(४)
किससे करें गिला 
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रोटी मिले पेट-भर भाई !
समझो, बहुत मिला ।

दो जोड़ी कपड़े,
सिर पर छत—
सपने ही तो हैं,
भूखे-प्यासे संगी-साथी 
अपने ही तो हैं ।

मिला न क़िस्मत 
लिखने वाला,
किससे करें गिला !

फुटपाथों पर लगा हमारा 
साझे का बिस्तर,
लोकतंत्र मुँह ढाँपे पहुँचा 
पूँजीपति के घर,

बुढ़ा गये, लेकिन अभाव का 
दरका नहीं क़िला  । 

होनहार बिरवे के पत्ते
बने धनिक के गण,
वैभव की चाहत में खोये  
परिवर्तन के क्षण,

बच्चे बदल रहे जिंसों में,
थमता न सिलसिला ।।

        -  राजेन्द्र वर्मा

राजेन्द्र वर्मा 

जन्म
8 नवम्बर 1957, बाराबंकी (उ.प्र.) के एक गाँव में ।

प्रकाशन-प्रसारण 
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गीत-नवगीत, ग़ज़ल, दोहा, मुक्तक, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, निबन्ध, उपन्यास आदि 
विधाओं में पचीस पुस्तकें प्रकाशित । महत्वपूर्ण संकलनों में सम्मिलित । 
लखनऊ दूरदर्शन तथा आकाशवाणी से रचनाएँ प्रसारित ।

पुरस्कार-सम्मान
उ.प्र.हिन्दी संस्थान के व्यंग्य एवं निबन्ध-नामित पुरस्कारों सहित 
देश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित ।

सम्प्रति 
भारतीय स्टेट बैंक में मुख्य प्रबन्धक के पद से 
सेवानिवृत्ति के बाद स्वतन्त्र लेखन। 

सम्पर्क
3/29 विकास नगर, लखनऊ 226 022  (मो. 80096 60096) 
ई-मेल : rajendrapverma@gmail.com