नवगीत --1
शब्द जीते हो
उसे ही आजमाते हो
गीत की पदचाप पर
पहरे लगाते हो ।
जीत कर भी हर जाना
सीख लो
आंसुओं को घर बिठाना
सीख लो ।
दर्द के वन में
नए बिरवे उगाते हो ।
सोचना था तो सफर में
रोक लेते
जो हृदय में था भरा
वो बोल देते ।
चीख होठों पर सजा कर
मुस्कराते हो ।
चांदनी का मर्म भी कुछ
जान जाओ
रात को आवाज़ से
पहचान जाओ ।
बादलों को धूप से लड़ना
सिखाते हो ।
ये सियासत है किसी
कछुए सरीखी
है जो जगबीती
वही है आपबीती ।
तुम इसी मनहूस के
किस्से सुनाते हो ।
नवगीत--2
हम सरल कितने
कहीं मुश्किल नहीं हैं
पर तुम्हारे नेह के
काबिल नहीं हैं ।
जिंदगी को फूल समझे
चोट खाई
क्यों चढ़े तूफान में
कश्ती चलाई ।
इस थकन में
हमसफर शामिल नहीं हैं ।
बोनसाई बन गईं
अपनी कथाएं
चार शब्दों में
समाई भूमिकाएं ।
हैं नदी के साथ
पर साहिल नहीं हैं ।
पी रहा है रोज़ सूरज
रोशनी घट
भाग्य में अपने लिखी है
सिर्फ तलछट ।
क्या बताएं किस तरफ
क़ातिल नहीं हैं ।
नवगीत---3
बादलों का
धूप से रिश्ता नहीं होता ।
रोशनी की
डबडबाई आंख क्या बोले
भावना खोले कि वो
संभावना खोले ।
दर्द कोई भी
बड़ा छोटा नहीं होता ।
किस कदर
कड़वाहटें फैली हुई हैं
चाहतों की तीलियां
सीली हुई हैं ।
मौसमों का
चीखना अच्छा नहीं होता।
हम सियासत की जबानी
कुछ नहीं कहते
किस तरफ है राजधानी
कुछ नहीं कहते ।
लोग चुप हों
वक्त तो गूंगा नहीं होता ।
नवगीत--4
चले समय के साथ
मगर अब
खोज रहे पगडंडी ।
साधू बाबा ,ज्ञानी , साधक
शौर्यवान,विद्वान ,विचारक
चोटीवाला ,कोटीवाला
पहलवान ,संगीत सुधारक।
जो जैसा हो
भाव लगाती
राजनीति की मंडी ।
सुचिता दरवाज़े के बाहर
धूर्त दिखाते अपना तेवर
एक दाम में माल सभी है
रसगुल्ला , गुझिया, गुड़ ,घेवर।
सब कुछ तो दिखता है
पहनो
वायल या अरगंडी ।
निष्ठावान सहायक देखे
कितने भांड विदूषक देखे
राजनीति इस नगरी में
सबके सब खलनायक देखे ।
धुआं , राख कुछ नहीं
सुलगती
इच्छाओं की कंडी
नवगीत--5
समय का
अपना गणित है
हम नहीं जाने ।
तीर अर्जुन के , शकुनि का
गृह विनाशक दांव
राज पर भारी पड़े थे
पांच याचित गांव ।
सह सका गांडीव कब
इतिहास के ताने ।
आज भी हावी वही
धृतराष्ट्र के वंशज
सामने हैं पौत्र ,बाबा
भ्रात औ भ्रातज ।
स्वार्थ कब संबंध
रिश्ते नात पहचाने ।
राम का सौजन्य बदला
युग बदलते ही
कृष्ण के रथ ने किया
कोहराम चलते ही ।
योगियों का रूप समझे
सिर्फ दीवाने ।
समय का अपना गणित है
हम नहीं जाने ।