बुधवार, 29 मार्च 2023

“वो दिन भी क्या दिन थे।” मनोज जैन


 “वो दिन भी क्या दिन थे।”
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                                      मनोज जैन

"बचपन के दिनों को जिंदगी के सबसे सुनहरे दिनों में गिना जाता है। ये वो सबसे खास पल होते हैं, जब न ही किसी चीज की चिंता होती है और न ही किसी चीज की परवाह। हर किसी के बचपन का सफर यादगार और हसीन होता है।"हममें से हर एक इस कथन के निकस पर खरा उतरता है।
               मेरा जन्म मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिला की तहसील खनियाधाना के एक छोटे से गाँव, बामौर कला में हुआ। माता-पिता सहित कुल जमा नों सदस्यों के संयुक्त परिवार में,चार भाइयों और तीन बहिनों के क्रम में, मेरा नम्बर सबसे छोटी बहिन के ठीक पहले आता है। 
          सत्तर के दशक में अमूमन परिवार संयुक्त ही हुआ करते थे। हमारे गाँव में तब लाइट नहीं थी जमाना लालटेन वाला था। सारा गाँव रात्रि के अंधकार में दियों के प्रकाश से टिमटिमाता था। कृष्णपक्ष की डरावनी सांय-सांय करती काली रातें मुझे डरावनी लगती थी। ऐसे में पिता जी मुझे अपनी स्मृति के अक्षय कोष से, कभी कहानी सुनाते तो कभी कविता। दर्शन उनका प्रिय विषय था। वह अपने अनूठे अंदाज़ में बड़ी से बड़ी दार्शनिक व्याख्या सरल शब्दों में समझा देते। और मैं निर्भय होकर सो जाया करता।
                    गाँव के चौकीदार की "जागते रहो! की आवाज़ सुनकर चौंक जाता पर धीरे-धीरे पिता के सानिध्य से मन सबल होने लगा। अतीत की स्वर्णिम स्मृतियों में झाँकने पर, मुझे मेरा बचपन उम्र के चौथे वर्ष से याद है। उनमें से कुछ स्मृतियाँ साफ तो कुछ धुंधली। पिताजी का छोटा सा स्वयं का व्यापार था। आय बहुत नहीं थी। पिता जी सबका ख्याल रखते थे। हम सब भाई बहिन बहुत खुश रहते थे। जब मैं पाँच वर्ष का था तब अचानक हमारे हँसते-खेलते परिवार को किसी की बुरी नज़र लग गई। बड़े भाई को क्षय रोग ने घेर लिया। उन दिनों क्षय रोग असाध्य और जानलेवा हुआ करता था। पिताजी की जमा पूँजी, माता जी के गहने, घर की छोटी-मोटी खेतीबाड़ी सब कुछ देखते-देखते बिक गए। 
       इस संकटकाल में पिता ना तो विचलित हुए ना ही परिस्थितियों से टूटे। इन दो वर्षों के अन्तराल में शहर-दर-शहर, अस्पताल दर अस्पताल भटकते हुए, आस्तिक माता-पिता के संघर्ष ने हमारे भाई को मौत के मुँह से खींच लिया। वे स्वस्थ्य हो गए। फिर क्या था। परिवार में फिर से खुशियाँ लौटी । पिता ने अपने अनथक परिश्रम से, पहले से ज्यादा, वह सब अर्जित कर लिया जो खोया था। 
            मुझे बचपन के दो प्रसङ्ग याद आते हैं। हमारे अस्तिक पिता, हम सब भाई बहनों को सुबह शाम दोनों समय देव दर्शन के लिए, मन्दिर ले जाया करते थे। हमारे गाँव के मन्दिर की छोटी सी लाइब्रेरी से मेरे जुड़ाव को देखते हुए, उन्होंने सिद्धान्त ग्रंथों के सार, मुझे उस उम्र में समझाए जिस उम्र में बच्चों का मन खेलने कूंदने में ज्यादा रमता है।
 पिताजी का छँदसिक कविता पर अच्छा अधिकार था। वह अक्सर दोहों में पूरी और घण्टों बात कर सकते थे। मानस उन्हें कंठस्थ थी। प्रथमानुयोग से लेकर अनेक पौराणिक आख्यान  रटे थे। कुल मिलाकर उनका असर हम सात भाई बहिनों पर सबसे ज्यादा मुझ पर ही पड़ा।
     बचपन के सारे किस्से याद करूँ तो यादें इतनी हैं कि .......
खैर दो प्रसङ्ग और बताना चाहता हूँ। 
          मुझे भाषाओं से आरम्भ से ही लगाव रहा। गुजराती और पँजावी पढ़ना मैंने रद्दी पेपर्स की कटिंग से ही सीख लिया था। अँग्रेजी के शब्द और भाषा ज्ञान के लिए उस समय की फिल्मों में प्रयुक्त शब्द रट लिया करता था। मन से देखा जाय तो आरम्भ से ही प्रकृति प्रेमी रहा हूँ। आषाढ़ मास के झरते मेघों की झड़ियों को, घर की खिड़की से, बैठकर निहारना, गाँव की झील और कुओं के पानी से लवालब भर जाने के दृश्य, अब भी मन को रोमांचित से भर देते हैं।
       अब ना तो वैसे काले मेघ घिरते हैं, ना ही बीस पच्चीस दिनों वाली झड़ी लगती है।
       मुझे, बचपन में देखे सपने सबसे ज्यादा याद हैं; जिनमें से कुछ साकार हो गए और कुछ  साकार होने वाकी हैं। मेरा मन आकाश में ऊँचे उड़ने के बहुत सपने देखा करता था। बचपन का गाँव अब गाँव नहीं रहा । सब कुछ बदल गया।
चलते-चलते एक प्रसङ्ग और जोड़ता चलूँ।
          मेरा बाल मन उस समय भी स्वप्न द्रष्टा था और अब भी। एक बार सच्चे मन से इच्छा कर लूँ तो, चीजें साकार होने में देर नहीं लगती। यह एक प्रकार से देवयोग ही है।
     मैं और मेरा एक मित्र, जब हम लोगों की उम्र बमुश्किल 6 के करीब रही होगी। मैं अपने  बाल सखा वीरेंद्र सिंघई से कहा करता, "वीरेंद्र देख! "वहाँ दूर उस जगह, किसी दिन यहाँ से ट्रेन गुजरेगी।"
            वह मेरी बात पर जोर से ठहाका मारता और हम लोग घर की तरफ लौट आते!
                  मेरा देखा हुआ हू-ब-हू स्वप्न साकार हुआ। ठीक उसी जगह से जहाँ मैं अपने सखा को देखने के लिए कहा करता था। ट्रैन तो नहीं, पर हाँ! राजघाट बाँध की एक बड़ी नहर जरूर निकली है बिल्कुल पटरियों के दो गुने आकार की जिसके चलते पूरा इलाका हरा भरा और सम्पन्न हो गया।
         काश ! मेरा बाल सखा भी आज उस दृश्य को देखने के लिए होता 
       अक्सर लोगों के मुँह से यह कहते जरूर सुनता था कि “वो दिन भी क्या दिन थे।” आज मैं भी तो यही कह रहा हूँ।
          “वो दिन भी क्या दिन थे।”

मनोज जैन 'मधुर'
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