धरोहर श्रृंखला में पढ़ते हैं कीर्तिशेष
प्रख्यात साहित्यकार दिवाकर वर्मा जी के एक गद्यखण्ड को बिना पढ़े आप कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सकेंगे इसलिए पूरा पढ़ना होगा।
प्रस्तुति
मनोज जैन
-------*-----/
युगबोध को अभिव्यक्त करते गीत
------------------------------------------
काव्य सृजन की प्रारंभिक चेतना के कालखंड में रचनाकार की मानसिकता बहुत द्वंद्वात्मक और संघर्षमयी होती है। उस समय अत्यधिक उद्वेलन एवं आवेगमय आवेश का दबाव होता है।उन क्षणों में संवेदना से संपृक्त अनुभूतियों के तेवर कुछ अनूठे ही होते हैं। वाह्य पर्यावरण कैसा भी हो, आंतरिक संवेदन के तीव्र प्रवाह को रोकना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाता है। उस समय सर्जन को लगता है कि उस अनुभूति को शब्दाकार दे दिया जाए ।वह लिखने को विवश हो जाता है और तब जो पंक्तियां ,जो रचनाएं अवतरित होती हैं उसमें रचनाकार के मन प्राण अभिव्यन्जित होते हैं ।ऐसी कविता स्वतः रूप से अपनी अनुभूतियों की बेबाक अभिव्यक्ति होती है ।भोपाल के युवा गीत कवि मनोज जैन मधुर इसी प्रकार की गीत कविता के सर्जक हैं। मनोज, अपने हमारे रचना -समय के युवा गीतकारों की पुष्प माला में वैजयंती के समान हैं, जो अपने परिवेश को न केवल सुरभित करती है, प्रत्युत उसे यशस्वी भी बनाती है।जब गीत वंश के वरिष्ठ सदस्य चिंतातुर थे कि गीत विधा के अधिसंख्य सर्जक रचनाकार,साठ के दशक के पूर्व के जन्मे हुए हैं, नई पीढ़ी गीत से असंपृक्त है, साहित्यिक परिदृश्य पर गीत की वैजयन्ती थामे हुए मनोज मंथर गति से आए और अल्पकाल में ही उन्होंने अपनी रचना धर्मिता से गीत-जगत को स्वयं की उपस्थिति की अनुभूति करा दी।देश भर की गीतिधर्मी पत्रिकाओं में गीतों में उनके गीत अपनी सम्पूर्ण त्वरा के साथ प्रकाशित होने लगे। गीतकार के रूप में उनकी एक पहचान बन गयी। अस्सी के दशक के कुख्यात आपातकाल के घटाटोप-अंधकार में जन्में मनोज जैन मधुर के अवचेतन पर यह प्रभाव निश्चित ही प्रक्षेपित हुआ है ।उस कालखंड के पश्चात तो राष्ट्रीय सामाजिक परिवेश कुछ और अधिक ही प्रदूषित हुआ है ।सामाजिक विषमताओं ,जीवन की विसंगतियों और राजनीतिक विद्रूपताओं में निरंतर बढ़ोत्तरी हुई है ।भ्रष्टाचार का ग्राफ ऊंचा हुआ ऊंचा ही चढ़ता चला जा रहा है ।महंगाई राकेट की गति से आकाश की ऊंचाइयों का स्पर्श कर रही है। संवेदनहीनता ,रिश्तो में विखंडन और आत्मकेंद्रित स्वार्थपरता हमारे दैनंदिन जीवन को ग्रस रही है। वर्तमान (कथित) लोकतांत्रिक राजे -महाराजे अपनी सामंती मनोवृत्ति को प्रकट करने में कुख्यात राजाओं, जागीरदारों और जमींदारों को भी मात दे रहे हैं ।निश्चित ही, आज समाज के एक अक्खड़ और फक्कड़ कबीर की आवश्यकता है और मनोज के गीत इसी भूमिका में हैं। इन नेताओं में पदे -पदे कबीर की साखी सबद, रमैंनी और उलटबॉसियाँ नटराज नर्तन करती नजर आती हैं। 'मधुर'का यह प्रकाश्य संग्रह 'एक बूँद हम क्षयिष्णु- सर्जनात्मक -परिवेश को शब्द चित्रित करते ऐसे ही परितोषदायी गीतों का सुंदर स्तवक है ।
प्रकाश्य संग्रह के गीत विविधवर्णी गीत मन -प्राण को आल्हादित करने वाले हैं ।वे जहां एक ओर भावक की चेतना रससिक्त करते हैं,वहीं उसे यदा-कदा झकझोर ने की सामर्थ्य से भी ओतप्रोत हैं। मनोज,गीत के माध्यम से अपनी समाज -राष्ट्रीय भूमिका के विषय में बताते हऐन,तो इस भूमिका के निर्वहन में आने वाले अवरोधों की ओर भी संकेत करते हैं:-
'कठिन परीक्षा /समय शिकारी ने /अपनी ली है /फूलों से दुश्मनी/ दोस्ती कांटो की दी है /हमने नहीं/ बबूल किसी के/ पथ में बोए हैं/'(सपने सारी उमर)
गीतकार एक अन्य गीत 'नहीं जरूरत पड़ी' में अपने चाल- चरित्र और गीत समाज निष्ठा की घोषणा भी हाथ उठाकर करता है-
' नहीं जरूरत पड़ी/ बंधु रे /हमें, कहारों की /मीत हमारे प्राण /गीत के तन में/ रमते हैं /मग में मिलते /गीत वहां/ पग अपने थमते हैं/ नहीं जरूरत हमने समझी श्रीफल हारों की/ हमें स्वयं के/कीर्तिकरण की बिल्कुल चाह नहीं/थोथे दम्भ छपास मंच की/ पकड़ी राह नहीं /
नहीं जरूरत पड़ी कभी रे/ कोरे नारों की /
हमें हमारी /निष्ठा ही /परिभाषित करती है /कवि को तो/ बस कविता ही/प्रामाणित करती है/ नहीं जरूरत हमें/ बंधु रे पर उपकारों की/'
ऐसा कवि जो विराट अथवा समाज (राष्ट्र )और गीत के प्रति निष्ठावान हो तथा जिसका समर्पण संपूर्ण हो, कभी भी अपनी परंपरा अथवा मूल से अलग नहीं हो सकता।
वह जानता है कि परंपरा के एक पांव के सहारे से ही प्रगति का दूसरा पाँव आगे बढ़ सकता है ।जड़ से कटकर वट-वृक्ष जैसा विशाल तरु भी जीवित नहीं रह सकता। किंतु हमारे रचना- समय के अपसांस्कृतिक वातावरण से मनोज दुखी हैं ।उन्हें लगता है कि वर्तमान समाज अपनी जड़ों से कट रहा है ।
गीत' हम जड़ों से कट गए'में वह इस त्रासदी को तर्जनीदिखा रहे हैं-
हम जड़ों से कट गए /डोर रिश्तों की/ नए वातावरण सी हो गई /थामने वाली जमीं हमसे/ कहीं पर खो गई /भीड़ की खाता -बही में /कर्ज से हम पट गए /खोखले आदर्श के /हमने मुकुट धारण किए/ बेचकर हम सभ्यता के / कीमती गहने जिए/ कद भले चाहे बड़े हों/पर वजन में घट गए/
समग्रतः संग्रह 'एक बूंद हम' के गीत अपने सर्जक की की अनंत संभावनाओं के प्रति आश्वस्ति- भाव जगाते हैं और उसकी आगामी सृजनात्मकता के प्रति भावक- मन को पिपासु-प्रतीक्षा से जोड़ते हैं ।यह प्रतीक्षा ही मनोज जैन मधुर की शक्ति और सामर्थ्य है। यह किसी भी रचनाकार की श्रीसंपन्नता का पर्याय है। मुझे विश्वास है कि रूगानुरूप युगबोध को अभिव्यंजित करतीं ये कविताएं का प्रेमियों को निश्चित ही आकर्षित करेंगीं और उनमें से उभरते स्वरों की दस्तक दूर दूर तक सुनी जाएगी।
मनोज की प्रथम कृति के लिए हार्दिक बधाई ।
दिवाकर वर्मा
निराला सृजन पीठ ,
भोपाल ,
150 ,सागर सागर एस्टेट,मेन बायपास रोड ,
भोपाल 462041 म.प्र
मोबाइल09754368674