गुरुवार, 11 मार्च 2021

वागर्थ में आज कवि उदय सिंह अनुज के नवगीत प्रस्तुति वागर्थ सम्पादक मण्डल

~।।वागर्थ ।। ~

     में आज प्रस्तुत हैं उदय  सिंह'अनुज'जी के नवगीत          _______________________________________________

     जितना अब तक हमने सोशल मीडिया के मंच या विभिन्न पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से उदय सिंह अनुज जी के रचनाकार को जाना उदय सिंह अनुज जी की पहचान एक समर्थ दोहाकार के रूप में उभरकर आती है ।.उदय सिंह अनुज जी लोकभाषा निमाड़ी के भी समर्थ रचनाकार हैं व फेसबुक  पर साथी रचनाकारों की वॉल पर  सार्थक सटीक और उत्साहित करने वाली  प्रतिक्रियाएँ देते हैं।
   इसी मीडिया पर उपस्थित रहकर इनका नवगीतकार मन तमाम नवगीतकारों को पढ़ता रहा और स्वयं भी सृजित करता रहा, आश्चर्य है कि अत्यल्प अवधि में उदय सिंह अनुज जी ने अनेक प्रासंगिक नवगीत रचे तो जरूर पर यह बात और है कि संकोची स्वभाव के चलते उन्हें अब तक किसी मंच यहाँ तक कि अधिकतर अपनी वॉल पर भी प्रस्तुत नहीं किया।नवगीतों पर एक पाठक के तौर पर गौर करें तो एक तथ्य जो मेरे जेहन में उभर कर आता है वह यह कि वागर्थ में जोड़े गए सारे नवगीत निश्चित रूप से श्लाघनीय हैं।
       लोक मन के संवेदी रचनाकार के व्यक्तित्व पर  संक्षिप्त में प्रकाश डालें तो एक औपचारिक वार्ता में पाया कि वे आयु  में वरिष्ठ होकर भी अतिशय विनम्र तो हैं ही, कुछ संकोची भी। मगर इनकी क़ल़म कतई संकोची नहीं है और हर उस आवश्यक विषय पर चली है जो समाज में व्याप्त व्यापक विसंगतियों पर प्रश्न उठाती है और विचार करने पर विवश भी करती है। 
         इनके नवगीतों में जीवन विषयक प्रत्येक पहलू पर गंभीर चिंतन दृष्टिगत  होता है । वह चाहे  घर के बँटवारे से उपजे असहज करते दृष्य ,विदेश में बेटे के वाशिंदा होने पर दादा पोते के मध्य का विछोह ,माँ की सघन स्मृतियों के साथ बचपन में लौट -लौट जाना , लोकतंत्र में ज़िदगी की जद्दोजहद में घिसटता -हाँफता गण ,स्त्री की वस्तुस्थिति की वास्तविक पड़ताल , बदलते सामाजिक परिदृश्य में स्वयं को न ढाल पाने व उपेक्षित किये जाने की टीस , हर विषय पर सशक्त क़ल़म ने अपना पक्ष मजबूती के साथ रखा है ।
    कवि मन ने सिर्फ सामाजिक पिरामिड के स्याह पहलुओं को ही नहीं स्पर्श किया अपितु प्रेम जैसी कोमल अनुभूति को जिया व उसकी मसृण स्मृतियों को नवगीत माला में यह मोहक पहलू पिरोया भी ।
     मानव मन का लोभ अभिभावकों की मृत्यु पर भी कितना घिनौना दृष्य उपस्थित करता है , भले ही वह कितना संपन्न हो किन्तु बँटवारे के समय उसकी मानसिक दरिद्रता अति संपन्न होकर मनुष्यता को शर्मसार करती है ।ऐसा नहीं है कि कवि ने अपनी बात हवा में कह भर दी है, ऐसे दृष्य बहुत आम हैं , यह छींट आधी आबादी पर बेवजह नहीं आई है , इसी अर्ध आबादी के प्रतिनिधि के तौर पर हमारा हमसे ही अनुरोध है यदि हम आर्थिक तौर पर अपेक्षाकृत कुछ संपन्न हैं तो द्रव्य और अर्थ का यह  मोह , पारिवारिक रिश्तों को प्रगाढ़ बने रहने हेतु त्यागा जा सकता है ।

जोड़ लगाया उँगली पर फिर
बहुओं ने सबको टोका
सासू के मरने पर सोना
जो है वह किसका होगा

प्रश्न बड़ा था भाई उलझे
फेंके गए इशारे में ।

आज कितने ही पिताओं के पुत्र विदेश जाकर बस गये और वापस आने की उम्मीदें भी क्षीण , बेबस पिता की वेदना सूरदास की पंक्तियों पर विरोधाभास प्रकट करती है । ऐसा ही एक दृष्य इस गीत में उपस्थित होता है ।

झूठी साबित बात हुई यह 
सूरदास जो गाये
अब जहाज का पंछी उड़कर 
कभी न वापस आये

ऐसा लगता काम न आई 
दान -धरम पुण्याई ।

जैसा कि वरिष्ठ नवगीतकार Virendra Aastik जी कहते  हैं " दरअसल गीत -नवगीत की रचना प्रक्रिया वह "रेसिपी " है जिसके द्वारा आदमी की सोयी हुई चेतना को जगाया जा सकता है । रचना में कुछ मार्मिक या सूक्ष्म कह लेना अंततःभाषा की ही श्रेष्ठता होती है । संवेदनहीन समाज को संवेदित कर पाना कोई साधारण बात नहीं है "। उपरोक्त के आधार पर बात की जाये तो उदय सिंह जी के नवगीतों ने बतौर पाठक हमारी संवेदना को झंकृत किया और प्रभावित भी ।
       उदय सिंह जी की दोहे की पुस्तक की भूमिका में  प्रख्यात समालोचक विजय बहादुर सिंह जी उनके दोहा संग्रह 'यह मुकाम कुछ और 'की भूमिका में यकीनन सच कहते हैं कि " उदय सिंह अनुज जी ने काव्य चिंता को जिस व्यथा व्याकुलता से परोसा है उसकी ईमानदारी का इम्तिहान उस लोक यथार्थ में ही सँभव है जो हमारा अपना ही चेहरा इस मार्फत हमारी हथेली पर रख देने के जज्बे से भरा हुआ है "
       वसन्त निरगुणे जी के इस कथन से हम भी पूरा इत्तिफ़ाक़ रखते हैं कि " मात्राओं की गिनती करके कविता तो कोई भी बना सकता है पर प्रश्न यह है कि उसमें कविता कितनी है , कविता की गहराई कितनी है , उदय सिंह अनुज जी की कविता मन की कविता है "    
      सहज सरल बोधगम्य भाषा में रचे गये यह नवगीत वागर्थ के सुधी सदस्यों व पाठकों को भी अवश्य रुचेंगे ,ऐसा विश्वास है हमें ।
वागर्थ  उदय सिंह अनुज जी के १५गीत रखकर गौरवान्वित है । वागर्थ की सुकामना है कि उदय सिंह अनुज जी को नवगीतकार के रूप में सम्यक पहचान मिले ।
       अपार सँभावनाओं से युक्त उदय सिंह जी को वागर्थ आत्मीय बधाई व शुभकामनाएँ प्रेषित करता है।

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(१)

आँगन के बँटवारे में-
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अब तो मन भी बँट जाते हैं,
आँगन के बँटवारे में। 

बड़े पुत्र सँग पिता रहेंगे, 
मझले के सँग माताजी। 
और फजीहत आई उनकी, 
जो हैं छोटे भ्राताजी। 
कोई न जोड़े तार नेह के, 
इस टूटे इकतारे में। 

सींचे थे जो आम पिता ने, 
सबकी हिस्सेदारी है।
बीमारी में पैसा खरचे
आपस में इन्कारी है। 
कोई भी अब नहीं सोचता 
है बहनों के बारे में। 

जोड़ लगाया उँगली पर फिर, 
बहुओं ने सबको टोका। 
सासू के मरने पर सोना, 
जो है वह किसका होगा। 
प्रश्न बड़ा था भाई उलझे 
फेंके गये इशारे में। 

शकुनी के पासों - सा घर में, 
अब छल ने डेरा डाला। 
और स्वार्थ के लाक्षागृह में
कौन बनेगा रखवाला। 
ईर्ष्या की गांधारी खींचे, 
इंद्रप्रस्थ मझधारे में। 
      
(२)

दशरथ काका ढूँढ रहे हैं,
पोते की परछाई।

पढ़ा - लिखा है बेटा डाॅक्टर,
जाब करे अमरीका।
उनकी दाल यहाँ है पतली,
सत्तू खाएँ फीका।
जीवन काटा रूखा - सूखा,
जोड़ी पाई-पाई।

पेड़ लगाया सींचा पाला,
फल खाती पटरानी।
गरम रोटियाँ बहू हाथ की,
फिरा सोच पर पानी।
अपने ही हाथों से खोदी,
इनने अपनी खाई।

झूठी साबित बात हुई यह, 
सूरदास जो गाये। 
अब जहाज का पंछी उड़कर, 
कभी न वापस आये। 
ऐसा लगता काम न आई, 
दान-धरम पुण्याई। 

गीले उसकी माई सोई, 
सूखे उसे सुलाया। 
नजर उतारी माथे उसके, 
काला चाँद लगाया। 
सोच-सोच आँखों ने सावन-
भादौ झड़ी लगाई। 
       
(३)
माँ सीखी नहीं ककहरा -
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रह - रह कर आँखों में तैरे,
माँ का प्यारा चेहरा।

चपल चकोरी सुघड़ सलोनी,
रहती थी चौकन्नी।
रखती थी संदूक, छुपाकर,
आना पाई  अठन्नी।
चाँदी के सिक्कों पर होता,
उसका चौकस पहरा।

दिन भर घर में चम्पा जैसी,
लचक - लचक कर महके।
थोड़ी भी मिल जाय खुशी तो,
चिड़िया जैसी चहके।
उसके सँग जब सूरज जागे,
होता और सुनहरा। 

भिनसारे जब दही बिलोती, 
भँवरी जैसी घूमें। 
रख मेरे हाथों पर माखन, 
मेरा माथा चूमें। 
खुशियाँ उसकी दुगनी होतीं,
 लख मेरा खुश चेहरा। 

छींक मुझे जो आ जाए तो, 
वह चिंतित हो जाती। 
अदरक वाली चाय पिलाती, 
माथे बाम लगाती। 
ताप ज़रा सा चढ़ जाता तो, 
दुख हो जाता गहरा। 

खेती-बाड़ी पर वह रखती, 
बहुत कड़ी निगरानी। 
हाथ बँटाती काम पिता के, 
दे फसलों को पानी। 
कभी न देखी शाला उसने, 
सीखी नहीं ककहरा। 
       
(४)

उल्लू सीधा करते रहबर -
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आप यहाँ से चले गये हो,
बापू! खाकर गोली।

कितनी गोली खाकर जीता,
अपना जन-गण प्यारा।
रक्त सने कपड़ों में लँगड़ा,
फिरता मारा - मारा।
बेटों ने ही माँ के जीवन, 
में यह विपदा घोली।

भारतवासी आज हो गये,
हरियाणी पंजाबी।
सभी चाहते उनके कब्जे,
हो दिल्ली की चाबी।
यही ठानकर खेल रहे हैं,
सब नफ़रत की होली।

भाषाओं में प्रांत बँटे हैं,
जात-पात में वासी। 
उल्लू सीधा करते रहबर,
पूज मदीना-कासी।
पढ़ कुरान रामायण सबने,
अपनी पोथी खोली।

सोच रहा हूँ कैसा होगा,
नयी सदी का मुखड़ा।
लिख देगा उपचार चिकित्सक,
या परची पर दुखड़ा।
रोज़ - रोज़ ही बदरँग होती,
आँगन की राँगोली।
 
(५)

आजादी है बाँदी -
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बीमारी औ भूख भाग में,
रहे बँधाते गंडे।

रहा काँपता सर्द हवा में, 
ढिबरी का उजियारा।
लोकतंत्र की झोपड़पट्टी,
रही लगाती नारा।
चूल्हे में धुँधुआया जीवन,
जैसे गोबर-कंडे।

खलिहानों की रात पूस में,
गुज़रे ठिठुरी-ठिठुरी।
और सींचता खेती हलकू,
बना मेड़ पर गठरी।
जिनको समझे हम उद्धारक, 
निकले बनिये-पंडे।

रहा भागता सभा - जुलुस में,
बन उनका पिछलग्गू।
सुना मगन हो भाषण उनका,
बैठा बनकर घुग्घू।
हेलीकॉप्टर चिकने चेहरे,
रहे लुभाते झंडे।

बोल चाशनी डूबे उनके,
जोड़ें रिश्ते-नाते।
उल्लू सीधा होते ही वे,
अपनी पर आ जाते।
माँगा कुछ अधिकार जिन्होंने,
मिले भेंट में डंडे।

आज़ादी है बाँदी उनकी, 
हँसती सजी दुकानें।
रँग कब पाईं अधर हमारे,
थोड़ी भी मुस्कानें।
यहाँ चवन्नी अपने बटुवे, 
वहाँ उफनते हंडे।

(६)

फेरी खूब सुमरनी -
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हार गई तुलसी के फेरे 
लेकर रामदुलारी। 

भाग नहीं खुल पाये उसके, 
फेरी खूब सुमरनी। 
कहती है वह आड़े आई, 
गये जनम की करनी। 
हे मैया! यह ईश्वर है या, 
गुणा-भाग  व्यापारी। 

सारे तीरथ धाम घूम ली, 
रहा नतीजा अंडा। 
अधिक सुखी है रामेश्वर का, 
दुष्ट लुटेरा पंडा। 
पिछला जीवन मिला धूल में, 
यह जीवन भी हारी। 
         
कितने व्रत उपवास किये औ,
कितने ही उद्यापन।
रही  सदा ही देवों से उस, 
दुखियारी की अनबन। 
नाव फँसी संकट में उसकी, 
नहीं किसी ने तारी। 
        
(७)

खूँटी पर ही रहे टँगे हम -
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खूँटी पर ही रहे टँगे हम,
किसी पुराने कुरते से।

कौन परखता हमें भला इस 
सूट-बूट की दुनिया में।
 कब हो पाए फिट हम उनके,                                       नाप-तौल की गुनिया में।
रहे कबाड़ी की दुकान के, 
जंग लगे इक पुरजे से।

कौन हटाता धूल जमी औ, 
कौन हमें फिर चमकाता? 
दिल्ली वाला राजमार्ग ये, 
कौन यहाँ पर दिखलाता ? 
सारा जीवन भुने धूप में 
हम बैंगन के भुरते से। 
      
राजाजी की अपनी दुनिया,
रंग-बिरंगा है घेरा।
कौन चमारों के टोले में, 
चौकस होकर दे फेरा। 
 दिन ये बिगड़े नहीं हमें अब, 
लगते कभी सुधरते से। 
 
(८)

छुअन तुम्हारी भूलूँ कैसे -
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छुवन तुम्हारी कैसे भूलूँ, 
पंख छुए ज्यों तितली के।

रंग अभी तक लगा हुआ है,
उँगली पर उन पंखों का।
नाद हवा में गूँज रहा है,
दो हृदयों के शंखों का।
अब तक मधुऋतु करती फेरे
इन आँखों की पुतली के।

उलझ गया मन जाने कैसे,
पुरवा की अँगड़ाई में।
दिन वासंती बीते सारे,
नयनन की कुड़माई में। 
मन-अभिलेखागारों अंकित,
हैं पल फागुन - चुगली के।

ताल-तलैया-नदियाँ-झरने, 
वन-प्रांतर, उत्तुंग शिखर। 
मंगल डोरे वसन्त बाँधे, 
बिना बुलाये जा घर-घर। 
फेर रहा है सूरज जिसको, 
जादू हैं उस तकली के। 
      

(९)

मेरे हक में यह कोरट कब
बोलेगी ओ बाबूजी?

खेत बिके दो दौड़ कचहरी,
नहीं फैसला आया है।
मुनसिफ और वकीलों ने मिल
चूना खूब लगाया है।
तुला न्याय की  पट्टी बाँधे, 
तोलेगी ओ बाबूजी?

चार साल से रामदुलारी,
मैके में ही बैठ गई।
एल. ओ. सी. पर चाइना-सी
वह भी मुझसे ऐंठ गई।
क्या फिर दिल वह पहले जैसा,
खोलेगी ओ बाबूजी?

एक लाड़ला बेटा है पर,
उसने भी मुँह फेरा है।
लगता जैसे बिन बिजली के, 
घर में बहुत अँधेरा है।
बहू जानकी प्रेम दुबारा, 
घोलेगी ओ बाबूजी?

समय बुरा तो समीकरण सब,
मिलकर हमको ठगते हैं।
कर्णभुजा-समकोण-त्रिभुज सब,
उलझे - उलझे लगते हैं।
अपने घर की यह  प्रमेय क्या
हल हो लेगी बाबूजी?

(१०)

कक्का किक्की सीख सके बस, 
टूटी - फूटी शाला में।

बैल हुए बैलों के पीछे, 
गेहूँ-चना कटाई में।
और रहे खुश सारा जीवन, 
अपनी एक लुगाई में।
कभी नहीं यह मन जुड़ पाया, 
वेलेंटाइन बाला में।

नहीं बाँधना आई टाई, 
नहीं बोलना अँगरेजी।
सीधे - साधे रहे गावदी, 
सीख न पाए रँगरेजी।
भूल गये हम अपने सब गम, 
कच्ची महुआ - हाला में। 
        
कभी न संसद तक जा पाए,
बैलों वाली गाड़ी में।
कैसे भरते कार किराया, 
अपनी पेट जुगाड़ी में। 
बीड़ी पीते कल की सोचें, 
अपनी टप्परमाला में।

(११)
      
झूम रही तुम मेरे भीतर,
जैसे गेहूँ की बाली।

सरसों खिलती  है खेतों में, 
पर तुम मेरे अंतर में।
बहती फागुन आहट जैसी,
मन के जंतर-मंतर में।
खड़ा मेड़ पर मन का बच्चा, 
कूद-कूद देता ताली। 

चितवन के वासंती कोने, 
लुकते - छिपते ताक रहे। 
बहुत दूर है फिर भी देखो, 
भीतर तक हैं झाँक रहे। 
सावधान हैं चोर सरीखे, 
देख न ले कोई माली। 

उतरा कोरे काग़ज़ पर यह , 
नये गीत का चाव यहाँ।
ज्यों गुलाब से निथर इत्र-सा, 
महके मन का भाव यहाँ। 
जैसे परती धरती जोते, 
नया - नया कोई हाली। 

(१२)

दगड़ू को दी जिम्मेवारी,
केवल दरी उठाने की।

उसके हाथों रही यहाँ पर,
तख़्ती नारों वाली।
झंडे-पोस्टर उसके जिम्मे, 
थाली हारों वाली। 
कब लग पाई उसके हाथों,
चाबी यहाँ खजाने की। 

काम चलाऊ पुरजा दगड़ू, 
चलते पुरजे हाथों का। 
और सहायक मुखियाजी की, 
रंग-बिरंगी रातों का। 
गुदड़ी के लालों के हिस्से, 
टूटी खाट बिछाने की। 

घास खेत में काटे दगड़ू 
पर मुखिया चाँदी काटे। 
सत्ता की सेठानी खा-खा, 
भरे यहाँ पर खर्राटे। 
उसकी किस्मत सूखे टिक्कड़, 
काँदा-चटनी पाने की। 
      
(१३)

सूरज तो उगता है लेकिन,
घर में नहीं उजाले हैं।

उन लोगों के नहीं फिरे दिन,
रहे लगाते जो नारे।
चूल्हा बुझा-बुझा है गुमसुम,
जले पेट में अंगारे।
जलते हुए सवालों पर क्यों,
लगे मुँहों पर ताले हैं।

पाँव दबाती है अब कुरसी,
गुंडों के धनवालों के।
अब कब कोई कारण जाने 
छीने गये निवालों के। 
दिखते हैं जो उजले चेहरे, 
वे असली में काले हैं। 

उनका डाॅगी डनलप पर है, 
 रामू की खटिया टूटी। 
उनको मिली जमानत जिनने, 
चौराहे अस्मत  लूटी। 
अपच उन्हें रहती हलकू के, 
सुबह-शाम के लाले हैं। 

खाकी उनको आदर देती
जो हैं दर्ज फरारी में। 
रोज शाम को खुलती बोतल, 
दिन भर की रँगदारी में। 
बँधा महीना जिनका यारो, 
बने हुए रखवाले हैं। 
         

(१४)
राजमार्ग से मत आना -
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मुझ तक अगर पहुँचना चाहो,
राजमार्ग से मत आना।

यह पगडंडी खेतों की जो,
मेरे मन तक जाती है।
अरहर-मक्का-सँग कपास के
हँस-हँस कर बतियाती है।
उस पर अपने पग रखकर तुम,
निर्मल मन से मुस्काना।

ज्वार-बाजरा-मूँग-उड़द भी, 
खेतों में लहराते हैं। 
गेहूँ - सरसों इक दूजे को,
जमकर धौल जमाते हैं।
हाँक मारकर चना बुलाये,
कहे भूनकर खा जाना।

सेमल भी टेसू के ऊपर, 
खेतों रौब जमाता है। 
होड़ सँवरने की लगती जब, 
फागुन पास बुलाता है। 
इक हुरियारा अपने भीतर, 
पकड़ शहर से तुम लाना। 

खेत मेड़ पर पेड़ों के यह
बया घोंसला बुनती है। 
इंजीनीयर बिना डिग्री की, 
जंगल तिनके चुनती है। 
मुलाकात उससे करना हो, 
ज्ञान उसे मत दिखलाना। 

महुआ मूँछें ऐंठ-ऐंठ कर, 
अपना रंग जमाता है। 
वाइन-व्हिस्की-बीयर सबको, 
ठेंगा यहाँ दिखाता है। 
उससे करना हो याराना, 
ठसक वहीं पर रख आना। 
        
(१५)

सीमित पहचान रही -
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चूल्हा - चौका कपड़े - झाड़ू,
तक सीमित पहचान रही।

कहने को तो पहिया थीं तुम,
अपने घर की गाड़ी का।
लेकिन दर्जा रहा हमेशा,
टूटी साइकिल ताड़ी का।
दारू पीकर जो लतियाये, 
उसमें तेरी जान रही।

पड़ी जरूरत तुम्हें सजाया,
अगरु धूप-सा पूजन में।
शेष रहे दिन बीते तेरे, 
धक्के खाते क्रंदन में। 
फिर भी बिन्दी लाल भाल पर, 
सदा तुम्हारी आन रही। 

पूत जने तो गिनती तेरी, 
घर के चाँदी-सोने में। 
बेटी जायी रही सिसकती, 
अपने घर इक कोने में। 
तोल-तराजू दहेज लोभी, 
सस्ती तेरी जान रही। 

खेतों में तुम खटी-खपी या, 
ईंटें ढोयीं शहरों में। 
राजमहल मे भी रहकर तुम, 
कैद रही हो पहरों में। 
सती बनी जब जली मरी हो, 
तब तुम उनकी शान रही। 

      
       ~ उदय सिंह अनुज

परिचय ~
कुँअर उदयसिंह अनुज
जन्म तिथि - १५ जुलाई १९५०
शिक्षा - हिन्दी साहित्य में एम. ए., विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन (मप्र) 

जन्म स्थान /स्थाई पता--
ठिकाना पोस्ट - धरगाँव (मंड़लेश्वर) 
जिला - खरगोन (मध्यप्रदेश) 
पिन. 451-221 

प्रकाशित पुस्तकें-
1- लुच्चो छे यो जमानों दाजी! 
निमाड़ी लोकभाषा ग़ज़ल संग्रह - 2007 में प्रकाशित 
2- अभिजित का सपना - बाल साहित्य हिन्दी कविताएँ - 2011 में प्रकाशित 
3- यह मुक़ाम कुछ और - - दोहा संग्रह (600 दोहे) - 2 017 मे प्रकाशित 

पत्रिकाओं में प्रकाशन-- हंस, समकालीन भारतीय साहित्य, पाखी, हरिगंधा, अभिनव प्रयास, समावर्तन, अक्षर पर्व, हिन्दी विवेक, सरस्वती सुमन, अनन्तिम, शेषामृत, शब्द प्रवाह, अर्बाबे क़लम, शिखर वार्ता, मेकलसुता, यशधारा पत्रिकाओं में दोहे व गीत प्रकाशित। 
समाचार पत्र--नईदुनिया, नवभारत टाइम्स, दैनिक ट्रिब्यून, में रचनाएँ प्रकाशित। 
सम्मान-- सौमित्र सम्मान इंदौर 2004,
वयम सम्मान खरगोन 2007,
कस्तूरीदेवी लोकभाषा सम्मान भोपाल - 2012
गणगौर सम्मान खंडवा - 2012
लोक सृजन सम्मान मंड़लेश्वर - 2014
लोक साहित्य सम्मान खरगोन - 2015 
सम्प्रति - सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक मर्यादित खरगोन से 2008 में वरिष्ठ शाखा प्रबंधक पद से सेवा निवृत्त 
मोबाइल - 96694-07634 
  Email - uday.anuj2012@gmail.com