~।।वागर्थ ।। ~
में आज प्रस्तुत हैं युवा कवि विवेक आस्तिक जी के नवगीत ।
काव्य साधना की बात करें तो विवेक आस्तिक छंद सृजन में भी प्रवीण हैं,इनकी फेसबुक वाल पर पड़े अनेक सवैया,पद आदि इसका प्रमाण हैं ।
ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े विवेक आस्तिक जी ने कम समय में नवगीत विधा पर मजबूत पकड़ बनाई है। जैसा कि महेश अनघ जी कहते हैं कि " कविता परोक्ष कथन और पारिवेशिक चित्रण के माध्यम से जन सामान्य को इस तरह आंदोलित अवश्य करती है कि पाठक स्वयं अपने रोग का कारण, लक्षण और निदान समझ लेता है। लेकिन यह होता तभी है, जब गीत में परोक्ष रूप से व्यंजित शिल्प में, बिंबों, प्रतीकों के माध्यम से ''कुछ'' कहा गया हो । "
महेश अनघ जी के इस वक्तव्य के आलोक में परखा जाए तो विवेक आस्तिक जी के नवगीत बहुत कुछ कहते बोलते हैं ।
इस " कुछ "की एक बानगी , आधी आबादी के कटु यथार्थ पर रचे गए उनके एक नवगीत में दृष्टव्य है..ऐसे वीभत्स दृश्य पर संवेदनशील क़ल़म से एक अंतरा इस तरह निःसृत होता है ...
हर तरफ काले मुखौटे
घूरते हैं , है विवश
बढ़ रही आगे निरंतर
मुट़ठियों में स्वप्न कस ।
मुस्कुराता खूब एसिड
एक स्त्री जल रही है ....
सभ्य समाज की सभ्यता की एक प्रमुख विसंगति , विकसित-स्थापित मानवीय मर्यादाओं के विघटन से उत्पन्न अमानवीय गतिविधियों की , है । वर्तमान परिदृश्य में करुणा , संवेदना आदि जीवन मूल्य लगभग पलायन कर गए हैं , सभ्यता के उतरोत्तर विकास के क्रम में हम अवनति के सोपान चढ़ रहे हैं ।
इस विपर्यय का बड़ा ही सटीक चित्रण ' सभ्य होते जा रहे हैं ' नवगीत में देखिए ..
तोड़ देना
पुरुषवादी बेड़ियों को
चाहते हैं तन सभी को हम दिखाएँ
देश बाँटें, फिर कोई गाँधी मरे., फिर
गोडसे के मुँह पे कालिख पोत आएँ
मुस्कुराकर खूब रोते जा रहे हैं
देखिए हम सभ्य होते जा रहे हैं ...
गाँव से महानगरों में आईं युवतियाँ नगरीय परिवेश में किस तरह से स्वयं को समायोजित कर रहीं हैं, भले ही यह समायोजन उन्हें आधुनिकता के निकष पर सिर्फ रहन- सहन में बदलाव भर ही समायोजित कर पाता है बाकी उनकी स्मृतियों के मूल से गाँव कटता नहीं ।
आ, नगर की धड़कनों में
खो गई हैं
बादलों की पीठ पर
नव बीज बोने
रोलरों से देह अंकुर
को बचाकर
चाहती हैं दुधमुँहे
सपने सँजोने
आँख से यादें ढुलककर
आ गई हैं
जुड़ रहीं सँवेदनाएँ
गाँव से
भारतीय कानून व्यवस्था का मूल भाव है कि सौ गुनहगार भले छूट जाएँ पर किसी निर्दोष को दण्ड नहीं मिलना चाहिए , किंतु विडंबना कि वस्तुस्थिति अधिकांशतः इसके उलट है अपराधियों की पौ बारह है और निर्दोष , सर्वहारा पिस रहा है ...उनके एक नवगीत में यह न्यायिक विसंगति उभर कर आती है ..
न्याय व्यवस्था चमगादड़ सी
रही पेड़ पर झूल
काँटे ताली दे -दे हँसते
नज़र झुकाए फूल।
राम दुबककर बैठे जग में
रावण हों मशहूर
प्रेम में प्रियतम तक संदेश पहुँचाने की कविकुल की समस्याएँ खत्म ही न हुईं यह बात और है कि पहले वह कबूतर , बादल ,नदी को हरकारा बनाता था।( हमने भी बनाया है।)
किन्तु समय बदला है सारी उधेड़बुन मैसेज न आने की ,सीन होकर भी अनसीन , होने की है , हाँ बदलते परिदृश्य में बादलों कबूतरों , नदी आदि को राहत अवश्य मिली है , तकनीकी ने यह दृश्य बदल दिए ...
हो गया लंबा समय
मैसेज न आया स्क्रीन पर
अब नहीं कोई रिएक्शन
हो रहा है सीन पर
गेट पर ताला लगा है
सोचता हूँ आज विंडो खोल दूँ
व्यक्तिगत तौर पर हमें देशज शब्दों से बहुत लगाव है , हालाँकि हमारी इस बात से सभी लोग इत्तफ़ाक़ शायद न रखें किन्तु यदि सायास देशज शब्दों को रचनाकर्म से पृथक रखा गया तो इस तरह शनैः शनैः इनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा , यकीनन नवगीत में अधिकांशतः खुरदुरे कथ्य पर भी बात होती है ऐसे में यह देशज शब्द लोक की मिठास बनाए रखने में महती भूमिका निभा रहे हैं /निभाएँगे ...
साधो अपना झोरा ले लो
चलो गाँव की ओर ....
यहाँ शब्द विशेष झोरा की माटी से जुड़ी ध्वनि वह बेहतर महसूस कर सकेगा जिसकी जड़ें गँवई पृष्ठभूमि से जुड़ी होंगी ।
विभिन्न भावभूमि पर रचे गए युवा कवि के नवगीत निश्चित ही श्लाघनीय हैं , नवगीत की आप नवीन सँभावना हैं , समकालीन नवगीतकारों में आपके नवगीत विशिष्ट हैं जो निश्चित ही भविष्य में नवगीत की दिशा दशा तय करेंगे ।
विवेक आस्तिक जी पूरी शालीनता और पूरे विवेक से रचनाकर्म में रत हैं,थोड़े से समय में ही विवेक आस्तिक ने नवगीत के शिल्प को साध लिया है अनुभव और पठन पाठन की रुचि से उनके नवगीतों में आगे चलकर और परिपक्वता आएगी। हम यह आशा प्रस्तुत नवगीतों को पढ़कर विवेक आस्तिक के कवि से बाँध सकते हैं।सँभावनाओं से युक्त इस युवा नवगीतकार को वागर्थ आत्मीय बधाई व शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।
~ अनामिका सिंह
~ ।। वागर्थ ।।|~
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(१)
हम अगर
कुछ कह न पाए
जीभ के छाले कहेंगे ।
चीखकर दम तोड़ देंगी
गाँव की पगडंडियाँ ,
हर मुहल्ले में मिलेंगी
जमघटों की झंडियाँ।
अब हमें
स्वच्छंद रहना
डाँटकर ताले कहेंगे ।
सर पटककर जब मरेंगी
प्यास से कुछ बदलियाँ,
पुष्प गुच्छों पर हँसेंगी
खिलखिलाकर झाड़ियाँ ।
है नदी मुझमें
समाई
झूमकर नाले कहेंगे ।
जब सभी चलने लगेंगे
साथ लेकर छाँव को,
शब्द-चित्रित व्याकरण खुद
बाँध देगा गाँव को।
मौत किसकी
हो रही है?
देखने वाले कहेंगे।...
(२)
इस तरह स्वच्छंद
बालाएँ हुईं हैं,
पायलें भी छिन गईं हैं
पाँव से !
आ , नगर की धड़कनों में
खो गई हैं
बादलों की पीठ पर
नव बीज बोने ,
रोलरों से देह-अंकुर
को बचाकर
चाहती हैं दुधमुँहे
सपने सँजोने ।
आँख से यादें ढुलककर
आ गईं हैं ,
जुड़ रहीं संवेदनाएँ
गाँव से !
सूँघ आर्टीफीशियल अब
खुशबुओं को
घूमती दुर्गंध में
वो जी रहीं हैं ,
मॉल, ऑफिस, साथियों की
डोर से ही
रिस रहे जो घाव
उनको सी रहीं हैं ।
सावनों के मस्त झूले
जीभ पर बस ,
दूर कोसों नीम, वट की
छाँव से !
(३)
पहले वाले मूल्य सभी हैं ,
चलते-चलते
आज थक गए !
चौपालों के वक्षस्थल पर
अद्धे -पौए झूम रहे हैं ,
मुखिया जी की चरण-पादुका
चमचे मिलकर चूम रहे हैं ।
सदियों से जो पड़े मुलम्मे ,
सोने जैसे
अब चमक गए!
किसके घर डाका पड़ना है
किसके घर चोरी होनी है ,
कल फिर किस महिला के सँग में
मिल ज़ोराज़ोरी होनी है ?
झाग फेंकती बातें सुन-सुन ,
दीवारों के
कान पक गए!
चिड़िया अपने पंख दबाकर
हाँफ-हाँफ कर भाग रही है ,
सारा जग निर्दन्द्व सो रहा
रात बिचारी जाग रही है।
जिन्हें बोलना वे सब चुप हैं ,
सदियों से चुप
आज बक गए!
(४)
देखो फिर से आज
गगन ने छितराई है नील!
धूप उतरकर , ठुमक-ठुमककर
लगी धरा पर चलने।
बूढ़ी सर्दी ,लगी खाट पर
धीरे-धीरे ढलने।
कुहरा फिर से हाथ जोड़कर
करने लगा अपील!
हवा लहरियाँ लेकर झूमी
पत्ते हैं छन्नाए।
मेढ़क निकल तलैया बाहर
देह सेंकने आए।
फिर से देखो आज हँसी है
खुलकर मौनी झील!
चिड़ियों ने भी चीं-चीं करके
अपने पंख पसारे।
टिड्डा , चूहे , सर्प , केचुएं
निकले घर से सारे।
देखो फिर से दिखी
अचानक आसमान में चील!
(५)
मुँह औंधाए
सपने घुट-घुट
मरने को मजबूर !
कानों को केंचुल कर बैठा
मशीनरी का शोर ,
कलाबाज सी कला कर रही
इस जीवन की भोर ।
कुहू-कुहू
कोयलिया की अब
हम से कोसों दूर !
कृत्रिम हो गई बगिया के
हायब्रिड फूलों की गंध ,
राम-भरत से कहाँ रहे
अब भाई के संबंध ।
ज़रा बात पर
रिश्तों की
नीवें हों चकनाचूर !
न्याय व्यवस्था चमगादड़ सी
रही पेड़ पर झूल ,
काँटे ताली दे-दे हँसते
नज़र झुकाए फूल ।
राम दुबककर
बैठे, जग में
रावण हों मशहूर !
(६)
हर सड़क पर कील बोते जा रहे हैं!
देखिए हम सभ्य होते जा रहे हैं!
तोड़ देना
पुरुषवादी बेड़ियों को
चाहते हैं तन सभी को हम दिखाएं।
देश बाँटें, फिर
कोई गाँधी मरे, फिर
गोड़से के मुँह पे कालिख पोत आएं।
मुस्कुराकर ख़ूब रोते जा रहे हैं!
देखिए हम सभ्य होते जा रहे हैं!
दामिनी की चीख,
चीखें मारती है
न्याय का ऐसा तमाशा बन रहा है।
फिर कोई तितली
फँसाई जा रही है
फिर हमारा तंत्र लाशा बन रहा है।
जागकर भी आज सोते जा रहे हैं!
देखिए हम सभ्य होते जा रहे हैं!
(७)
एक लुटेरा सपना लेकर
लुटता सालों-साल आदमी!
गाँव छोड़कर नगर ओढ़कर
दस गज घर में घुटता है।
चौराहों पर भूख दबाए
कुछ नोटों में बिकता है।
आश्वासन की घुट्टी पीकर
कुछ पल को ख़ुशहाल आदमी!
अँखुआई इच्छाओं के जड़
एक रहपटा, दर्द दबाए।
चेहरा कब्जे में मशीन के
इनपुट पर रोए-मुस्काए।
कलपुर्जों की भन्नाहट में
ढूँढ रहा सुरताल आदमी!
कंपन सहकर धीरे-धीरे
सारे पुर्जे खोल रही है।
कील चुभाकर के पहियों में
जीवन-गाड़ी डोल रही है।
ऊबड़-खाबड़ रस्ता, फिर भी
बढ़ा रहा है चाल आदमी!
(८)
अब तलक तुमसे न बोला,
सोचता हूँ आज आकर बोल दूँ!
स्वप्न फिर से सुगबुगाकर
आज जिंदा हो गए ।
भाव सारे तड़फड़ाकर
टीस गहरी बो गए ।
तन रहें हैं तार दिल के ,
सोचता हूँ आज थोड़ी झोल दूँ!
हो गया लंबा समय
मैसेज न आया स्क्रीन पर।
अब नहीं कोई रिएक्शन
हो रहा है सीन पर ।
गेट पर ताला लगा है ,
सोचता हूँ आज विंडो खोल दूँ!
प्रेम अपना मौन था
बस मौन ही रहने दिया।
बाँध से बाँधा नहीं
स्वच्छंद ही बहने दिया।
भाव की गहरी नदी में ,
सोचता हूँ शब्द सारे घोल दूँ!
(९)
गर्भ में इस सृष्टि के, छुप
एक स्त्री पल रही है!
क्या पता कब कौन आकर
एक खंजर घोप दे?
काटकर उसकी जड़ों को
वृद्धि बिल्कुल रोक दे।
स्वयं कौ फौलाद कर के
एक स्त्री ढल रही है!
हर तरफ काले मुखौटे
घूरते हैं , है विवश ।
बढ़ रही आगे निरंतर
मुट्टियों में स्वप्न कस।
मुस्कुराता ख़ूब एसिड
एक स्त्री जल रही है!
भूख उसकी या मनुज की
प्रश्न यह भी उठ रहा।
एक कमरा ,एक बिस्तर
एक सपना लुट रहा।
पेट खातिर इस तरह भी
एक स्त्री छल रही है!
सात स्वर दे बज रही यूँ
इस प्रकृति की साज है।
शक्तियाँ सारी निहित
ब्रह्मांड की आवाज है।
भार हम सब का उठाए
एक स्त्री चल रही है!
(१०)
साधो अपना झोरा ले लो
चलें गाँव की ओर!
करे शरारत ख़ुद औ लड़के को
कहती है 'नाटी'।
मेट्रो में अब खुल्लमखुल्ला
होती चूमा-चाटी।
देख-देख मेरी आँखों की
सूखी जाती कोर!
किसको 'फ्लाइंग किस' किसको 'विश'
ये विचार उलझाए।
मछली हुई सशक्त कई
मछुआरे आज फँसाए।
सब का सब गड़बड़झाला है
कहाँ प्रेम की डोर!
देशी दारू कहाँ यहाँ तो
सब हैं वाइन वाले।
आधे नंगे घूम रहे हैं
वेलेंटाइन वाले।
चल अपनी कच्ची काढ़ेगें
रमकलिया सँग भोर!
(११)
सुनो सुकोमल!
हँसो जोर से, अभी मस्तियाँ खुलकर कर लो ,
फिर तो तुमको,
वसुंधरा पर कदम-कदम पर जलना होगा!
भारी-भरकम अंग्रेज़ी के,
अनचाहे , अनब्याहे बस्ते।
कोलतार में छुपे मिलेंगे,
पत्थर दिल, खिसियाये रस्ते।
होशियार कहलाने
ख़ातिर बचपन की गर्दन उमेठकर,
सुनो सुकोमल!
पीर दबाकर खुद ही खुद को छलना होगा!
यौवन के खुरदुरे पृष्ठ पर,
मंथन , संयम , नियम छूटना।
इंटरनेटी इश़्क-मुहब्बत,
दिल का जुड़ना और टूटना।
नैतिकता की
गोदी में क्या उलझा मस्तक टिका सकोगे ?
सुनो सुकोमल!
छोड़-छाड़ सब आगे तुम्हें निकलना होगा!
तेजाबी सब सुबहें होगीं,
दुपहर और दहकती शामें।
गला फाड़ चिल्लाती रातें,
ब्रह्ममुहूर्त भी खंजर थामें।
किंतु खंजरों से बच
तुमको चिंतन की मुँडेर पर आकर ,
सुनो सुकोमल!
गिर-गिरकर भी उठ-उठकर के चलना होगा!
(१२)
मीरा का पगलापन देखा
भीतर-भीतर नाचे!
मंदिर की ड्योढ़ी पर देखे
अगणित बँधें कलावे।
दौड़ रहे फिर भी सड़कों
पर पिस्टल लिए छलावे।
सुनो बिहारी घूम रहे सब
ले अपने मन कांचे!
जूठे बेर खा गए भगवन
ज़रा नहीं सकुचाए।
भरत जले चौदह बर्षों तक
धूनी देह लगाए।
तुलसी की चौपाई लेकर
अक्षर-अक्षर बांचे!
इस खोजी मनवा ने
कोरे नयन-ग्रंथ पढ़ डाले।
पगलाई बुद्धि पर
फिर भी लगे पड़े हैं ताले ।
कबिरा तेरे अब लगते हैं
ढा़ई आखर सांचे!
(१३)
तुलसी कोने में मुस्काई
जब से घर में 'फगुनी' आई!
धनिए की ख़ुशबू लपेटकर
सिलबट्टा अब महक उठा है।
'छुनुआ' टटिया से निहारकर
भौजी कह के चहक उठा है।
होली के रंगो में डूबी
'फगुनी' आँगन में लहराई!
गौरेया कूदी डालों पर
पाकड़ के पत्ते हरषाने।
खीच ढुलकिया ली बब्बा ने
चले गाँव में होरी गाने।
'फगुनी' ने फिल्मी गानों की
अपनी कैसेट इधर चलाई!
साँझ ढले कुछ सोच रही, तब
मोबाइल का तन झन्नाया।
'बैठ लिए हैं हम दिल्ली से'
स्पीकर ने ये वाक्य सुनाया।
सरसो जैसी लहक उठी है
मुकुर देख 'फगुनी' फगुआई ।
(१४)
ओ महाशय!
देख लेना, दो कदम पीछे हुए हो ,
क्या समय के साथ में तुम चल न पाए ?
ये समय है हाथियों के दाँत जैसा,
साथ देता इस समय है सिर्फ पैसा।
तार होते इस समय संबंध सारे,
जीतकर भी बाजियाँ सब लोग हारे।
ओ महाशय!
नेह से झरबेरियाँ सींचे हुए हो ,
क्या किसी कोमल हृदय को छल न पाए?
झूठ में सारे लपेटे मंजरों का ,
ये समय है पक्षपाती खंजरों का।
भीतरी फूटन , छुपे आतंकियों का ,
ये समय है मंच पर नौटंकियों का।
ओ महाशय!
बेवजह ही मुट्ठियाँ भींचे हुए हो ,
छातियों पर मूँग क्या तुम दल न पाए ?
ज्ञान की थूकी गई पिचकारियों का ,
सत्य पर चलती हजारों आरियों का।
चालबाजी , भ्रष्टता, मक्कारियों का ,
ये समय है मुँह-मिठाई यारियों का।
ओ महाशय!
भीड़ में अपने नयन मीचे हुए हो ,
क्या समय से तुम समय सँग ढल न पाए?
(१५)
जहाँ ज़रूरत
प्रश्न उठाओ?
वैमनस्य का विष मत घोलो
कदम मिलाओ ,
ऐसे 'नौ दो ग्यारह' होना ठीक नहीं है!
बढ़ते जाओ
गढ़ते जाओ
हमीं श्रेष्ठ ऐसा मत बोलो
आँखें खोलो ,
अहंकार को मन में बोना ठीक नहीं है!
कमी निकालो
कीच उछालो
मगर आप ख़ुद को भी तोलो
मीठा बोलो ,
भाषाई स्तर को खोना ठीक नहीं है!
~ विवेक आस्तिक
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परिचय-
विवेक आस्तिक
पिता का नाम – श्री राम आसरे शर्मा
माता का नाम - श्रीमती माया देवी
शिक्षा- डिप्लोमा इन मैकेनिकल इंजीनियरिंग, एमए हिंदी (नेट जेआरएफ हिंदी )।
संप्रति- सनबीम लाइटवेटिंग सोल्यूशन्स प्रा. लि. गुरुग्राम , हरियाणा में जूनियर इंजीनियर
पता – ग्राम- ताहरपुर , पोस्ट- चौहनापुर , जिला- शाहजहाँपुर ( उ.प्र. )
सम्पर्क - 9958017216
प्रकाशित पुस्तकें (साझा संग्रह) – विहग प्रीत के , अथ से इति वर्ण स्तंभ , उत्कर्ष काव्य-संग्रह , किसलय, काव्य -त्रिपथगा ।
साथ ही कुछ पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित ।
प्राप्त सम्मान/पुरस्कार –
शीर्षक शिरोमणि सम्मान ,
दिव्यमान स्मृति सम्मान ,.श्री बालकृष्ण शर्मा ‘ बालेन्दु पुरस्कार 2016 ।
युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच द्वारा सर्वश्रेष्ठ पुरुष रचनाकार सम्मान 2017 ।
ट्रू मीडिया शिखर सम्मान , पर्पल पेन शब्दशिल्पी सम्मान , मेजर वीरेंद्र सिंह स्मृति सम्मान -2019