मंगलवार, 3 अगस्त 2021

ब्रह्मजीत गौतम जी के दोहे : प्रस्तुति ब्लॉग वागर्थ

परिचय-विवरण
नाम डॉ. ब्रह्मजीत गौतम 
जन्म-तिथि २८ अक्टूबर, १९४० 
शिक्षा       एम. ए., पी-एच. डी. (हिन्दी) 
प्रकाशित कृतियाँ गद्य और पद्य में कुल ग्यारह पुस्तकें ।  
गद्य -- १. कबीर-काव्य में प्रतीक-विधान (शोध ग्रंथ), २. कबीर-प्रतीक-कोश (कोश ग्रंथ), ३. जनक छन्दः एक शोधपरक विवेचन (शोध पुस्तक) पुरस्कृत, ), ४. दृष्टिकोण (समीक्षा-संग्रह), 
पद्य -- ५. अंजुरी (काव्य-संग्रह) पुरस्कृत,  ६. वक़्त के मंज़र (ग़ज़ल-संग्रह),  ७. दोहा-मुक्तक-माल (मुक्तक-संग्रह), ८. जनक छंद की साधना (जनक छंद संग्रह), ९. एक बह्र पर एक ग़ज़ल (ग़ज़ल-संग्रह) पुरस्कृत,  १०. दोहे पानीदार (दोहा-संग्रह), ११. करती है अभिषेक गज़ल (छोटी बह्र की ग़ज़लें) |   
पुरस्कार / सम्मान १. ‘साहित्य-सेवी (बिजनौर), २. ‘कविवर मैथिलीशरण गुप्त अ.  भा. सम्मान’ (मथुरा), ३. ‘राष्ट्रभाषा रत्न’ (कुशीनगर), ४. ‘साहित्यश्री’ (जबलपुर), ५. ‘शाने अदब’ (झाबुआ),  ६.‘हिन्दी साहित्य गौरव’ (ठाणे, महाराष्ट्र) ७. ‘वतन के राही कविरत्न’ (दुर्ग). ८. ‘कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सारस्वत साहित्य सम्मान’ (भारतीय वाङ्मय पीठ, कोलकाता), ९. ‘डॉ. रमेशचन्द्र चौबे सम्मान’ (कादम्बरी, जबलपुर), १०. ‘साहित्य रत्न’ (सत्कर्मी यशाश्रित सेवाभावी हिन्दी संस्थान महाराष्ट्र), ११. ‘समीक्षाश्री’ (शिव संकल्प साहित्य परिषद्, नर्मदापुरम), १२. ‘हिन्दी साहित्य मनीषी’ (साहित्य-मंडल, श्रीनाथ-द्वारा, राजस्थान), १३. श्रेष्ठ कला आचार्य (मधुवन, भोपाल), १४. ‘श्री हरिशंकर श्रीवास्तव स्मृति सम्मान’ (गयाप्रसाद खरे स्मृति मंच, भोपाल) |           
व्यवसाय       : म.प्र. शासन के उच्च शिक्षा विभाग में हिन्दी-प्रोफेसर के पद से अवकाश-प्राप्त।  सम्प्रति : स्वतंत्र साहित्य-लेखन |  
सम्पर्क : युक्का-२०६, पैरामाउण्ट सिम्फनी, क्रॉसिंग रिपब्लिक, ग़ाज़ियाबाद     (उ. प्र.) २०१०१६   
चलभाष   : ९७६०००७८३८,  ९४२५१०२१५४०  
व्हाट्सएप   : ९७६०००७८३८ 
ई-मेल   : bjgautam2007@gmail.com       
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दोहे – 

वर दे वीणावादिनी, कुछ ऐसा अनुकूल, 
मेरी कविता से झरें, राष्ट्रवाद के फूल ! 

आज मनुज है हो गया, सूरजमुखी-समान
लाभ जिधर है देखता, करता उधर रुझान 

सोच सकारात्मक रखें, फिर देखें परिणाम
‘मरा-मरा’ कहते हुए, मुख से निकले ‘राम’ !

बाबू जी, तुम धन्य हो, कैसा किया कमाल।
मुर्दा पेंशन पा रहा, ज़िन्दा नोंचे बाल।। 

काम कराना हो अगर, रखिये पेपर-वेट। 
जितना भारी काम हो, उतना भारी रेट।। 

पूजा-भेट बिना, नहीं ख़ुश होते भगवान। 
फिर कैसे ख़ुश हों भला, अधिकारी श्रीमान।। 

पैसे में वह शाक्ति है, बजे फूँक बिन शंख। 
फाइल पर पैसा रखो, लग जायेंगे पंख।। 

लोक-तंत्र पर चढ़ गयी तंत्र-लोक की बेल।
नेता बाज़ीगर बने, जनता देखे खेल।।

जातिवाद, क्षेत्रीयता, मज़हब, भाषा-भेद।
लोकतंत्र की नाव में देखो कितने छेद।।

नारे, भाषण, रैलियाँ, जाम, बन्द, हड़ताल।
इनमें दब कर रह गया लोकतंत्र का भाल।।

अमरबेल नेता बने, अफ़सर गाजर घास।
लोकतंत्र का पेड़ फिर, कैसे करे विकास।।

नागफनी औ’ बेशरम उगते जहाँ तमाम।
रखवाला उस देश का कौन सिवाए राम।।

बेटा ! पढ़ना छोड़ दे, देख समय की चाल।
राजनीति में कूद जा, होगा मालामाल।।

पानी सूखा ताल का, तल में पडीं दरार। 
जैसे फट जाते हृदय, खा धोखे का वार।। 

गरज-गरजकर कल तलक, गिरा रहे थे गाज।
पानी-पानी हो गये वे सब बादल आज।। 

ओ पानी के बुलबुले ! करता क्यों अभिमान।
हवा चली हो जायगा, पल में अंतर्धान।।

पानी उतरा ताल का, सूखे पुरइन, पद्म।
पद छिनते ही ज्यों खुलें, नेता के छल-छद्म।।

पानी की लहरें गिनें, या पानी के मोड़।
रिश्वतख़ोरों के लिए, हर धंधा बेजोड़।।

पानी, छाया, धूप से, पूछो उनका रंग।
तब तुम लड़ना बेझिझक, जाति-धर्म की जंग।।

पानी जिसका मर गया, बची न उसकी शान।
चाहे कोई पेड़ हो, या फिर हो इंसान ।। 

चट्टानों को चीरकर, ऊपर आती घास।  
कहती है – संघर्ष से, मिलता है उल्लास।। 


दूर प्रकृति से हो रहे, हम तजकर निज धर्म। 
अच्छे लगते हैं हमें, कृत्रिमता के कर्म।। 

हरियाली कम हो रही, सूख रहे जल-स्रोत। 
ऊसर में कैसे भला, तैरे जीवन-पोत।। 

ख़ुद जलकर दीपक सदा, देता है उजियार। 
स्वार्थी नर ! तू सीख ले, करना कुछ उपकार।।  

बीच नदी होकर खडा, निभा रहा निज धर्म। 
पुल ने कूल मिला दिये, किया लोकहित कर्म।। 

सोच सकारात्मक रखें, फिर देखें परिणाम। 
‘मरा-मरा’ कहते हुए, मुख से निकले ‘राम’।।  

मत कहना होगा वही, जो किस्मत का लेख। 
पुरुषार्थी जन ठोकते, सदा भाग्य में मेख।। 

जो करना है आज कर, कल पर छोड़ न काम। 
पता नहीं कब काल का, आ जाये पैग़ाम।। 

धूप पड़े, देता तभी, तरुवर छाँह ललाम। 
भयवश ही करता मनुज, जग-हितकारी काम।। 

हमने पश्चिम के सभी, दुर्गुण किये गृहीत। 
छोड़ दिए संस्कार निज, पावन और पुनीत।।  

माँ करुणा का छंद है और प्रेम का गीत। 
उसके आगे हेय है, स्वर्गानंद पुनीत।। 

पल-भर में मिट जायगी, चिंताओं की रेख।  
माँ के आँचल में तनिक, सोकर तो तू देख।।  


उस माता को क्या कहें, क्या दें उसको नाम। 
जो बेटी का कोख में, करती काम तमाम।। 

गायन, भाषण, कवि-कला, तन्त्र-मन्त्र, सुर-ताल।
सिखला देती व्यक्ति को कुर्सी सभी कमाल।।

कुर्सी में वह ताप है, वह ऊर्जा वह आर्ट | 
बूढा भी पाकर जिसे, बन जाता है स्मार्ट || 

अंधा बाँचे फ़ारसी, गूँगा भाषण-वीर | 
पंगु कबड्डी खेलता, कुर्सी की तासीर || 

कुर्सी तू वह दीप है, जिसके चारो ओर | 
लोग शलभ-से नाचते, होकर भाव-विभोर || 

कवि केवल सर्जक नहीं, मरजीवा है एक, 
भाव-सिन्धु में पैठकर, लाता रत्न अनेक ! 

पत्थर बोला नींव का, सुन रे दम्भी स्तम्भ,  
तू मुझ पर ही है खडा, फिर भी करता दम्भ !  

भरी दुपहरी में दिखा, आज सुनहरा चाँद, 
फिर क्या था, मन बावला, गया देहरी फाँद ! 

अलकों में काली घटा, आनन में राकेश, 
उलझन में मन का हिरन, अब जाये किस देश ! 

हमें सियासत में मिले, ऐसे भी कुछ लोग, 
जेल पहुँचना था जिन्हें, किन्तु पा रहे भोग ! 

हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख हैं, है कोई ख्रिस्तान, 
इन सब में ढूँढ़ू कहाँ, अपना देश महान ! 

अलगू-जुम्मन के नहीं, हल हो रहे सवाल, 
शहर घुसा हर गाँव में, सूनी है चौपाल ! 

उस नन्हे खद्योत को, बारम्बार प्रणाम।  
जो करता है रात में, तम का काम तमाम।। 

करते हैं अब साँप सब, आस्तीनों में वास।  
बाँबी से बढकर उन्हें, यहाँ सुरक्षा ख़ास।। 

कोई चारा खा रहा, कोई खाता खाद।  
नेताओं के स्वाद की देनी होगी दाद।। 

चिड़िया रचती घोंसला, चुनकर तिनके, घास।   
पंख उगे, बच्चे उड़े, चिड़िया हुई उदास।। 

मात-पिता से भी अधिक, है डॉलर से प्यार।  
पुत्र तभी तो उड़ चला, सात समुन्दर पार।। 

जलकर जिसने रात-भर, बाँटी ज्योति नवीन।  
सुबह बुझाकर दीप वह, कर डाला श्रीहीन।। 

जो भू पर न बना सके, एक प्रेम का सेतु।  
जा पहुँचे वे चाँद पर, शहर बसाने हेतु।। 

ज्यों ही देखा सूर्य ने, करके आँखें लाल।  
सभी अँधेरे राह के, भाग गये तत्काल।। 

डरी-डरी है हर कली, सहमे-सहमे फूल।  
उग आये हैं चमन में, कैक्टस और बबूल।। 

तिनका चढ़ा पहाड़ पर, करे हवा से बात।  
हवा थमी तो दिख गयी, तिनके की औक़ात।।  

तिल औ’ गुड दोनों मिटे, लिया नया आकार।  
जो न मिटा सकता अहं, कैसे बाँटे प्यार।। 


दारुण आपत्काल-सी, गयी ग्रीष्म कुख्यात।  
राजनीति-सी लिजलिजी, आ पहुँची बरसात।।  

दारुण आपत्काल-सी, गयी ग्रीष्म कुख्यात।  
राजनीति-सी लिजलिजी, आ पहुँची बरसात।। 

पीते हैं घी-दूध नित, पत्थर के भगवान।  
शिल्पकार उनके मगर, तजें भूख से प्रान।। 

प्यार और शतरंज में, है समान यह बात।  
पता नहीं किस मोड़ पर, हो जाये शह-मात।। 

बनी राष्ट्र-भाषा नहीं, बीते सालों-साल।  
वोट-तन्त्र में उलझकर, हिन्दी है बदहाल।। 

बस कागज़ पर हैं खुदे, कुएँ, बावडी, ताल।   
गाँवों में तो आज भी, है विकास बेहाल।। 

मंदिर, मस्जिद, चर्च में, ढूँढ रहे क्या मित्र।  
अंतस्तल में झाँकिये, है उसका ही चित्र।। 

रख पाओगे बादलो ! कब तक रवि को क़ैद।  
छिन्न-भिन्न करने तुम्हें, हवा हुई मुस्तैद.। 

सारी नदियाँ पी गया, फिर भी बुझी न प्यास।  
रे समुद्र ! तू आज का, पूँजीपति है ख़ास।। 

स्वयं मालियों ने किया, अपना चमन तबाह।  
दोष आँधियों पर मढा, वाह सियासत, वाह।। 

अग-जग में फैली वबा, विश्व हुआ बदहाल। 
कब जायेगी व्याधि यह, सबका यही सवाल।। 


कोरोना को रो रहे, किन्तु न देते ध्यान। 
भीड़ बढ़ाकर सड़क पर, दिखा रहे हैं शान।। 

कोरोना आता नहीं, चलकर अपने पाँव। 
वह पैरों से आपके, घूम रहा हर ठाँव।। 

बेशक है लंबी निशा, और अँधेरा घोर। 
पर क्या रोके से रुका, कभी सुनहरा भोर।। 
  
दोहों में हैं ‘जीत के, कितने गूढ़ विचार।  
जैसे मिलते सीप में, मोती पानीदार।।  

डॉ. ब्रह्मजीत गौतम 
युक्का-२०६, पैरामाउण्ट सिंफनी 
क्रॉसिंग रिपब्लिक, ग़ाज़ियाबाद – २०१०१६ 
    चलभाष : ९७६०००७८३८,  ९४२५१०२१५४