प्रादर्श नवगीत क्रमांक 1
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15 मार्च,1958 में,उत्तर प्रदेश के जनपद गाजीपुर में एक किसान परिवार में जन्में कवि ओम धीरज जी पेशे से अफसर भले ही रहे हों, परन्तु उनका समग्र लेखन जनपक्षधरता को समर्पित रहा।
प्रस्तुत है उनके नवगीत संग्रह "सावन सूखे पाँव " से एक नवगीत इस नवगीत में कवि की संवेदना आम जन के पक्ष में खुलकर अभिव्यक्त हुई है।
समूह वागर्थ को ऐसे ही नवगीतों की तलाश है जो खुलकर अपने समय को आम आदमी के दुख दर्द को स्वर देते हों।
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प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल
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दर्द पिघलते हैं
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कड़ी धूप में चलना मुश्किल
फिर भी चलते हैं
कामगार मजदूर दिहाड़ी
यूँ ही पलते हैं
तेल कड़ाही -सा दिन खौले
सूरज भट्टी-सा
लू का थप्पड़ चोट मारता
पत्थर गिट्टी -सा
देखो अमलतास, गुलमोहर
फिर भी खिलते हैं
मुस्काएँ कुछ लोग यहाँ पर
घनी छाँव बैठे
भरे बखारों के बलबूते
कुछ चूल्हे ऐंठे
लाख दियों के तेल छीन कुछ
झालर जलते हैं
नींद कहाँ छिपकर बैठी है
बिस्तर खाटों में
सफ़र कहाँ सिमटा है केवल
कुछ फर्राटों मे
कदम कदम चलकर मीलों के
पत्थर मिलते हैं
रोटी नहीं पेट- पीठों के
तावे सिंकते हैं
तब जाकर शहरों में मीठे
गन्ने बिकते हैं
महंगे रस में डले बर्फ-सा
दर्द पिघलते हैं
ओम धीरज
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