चींटी की शादी
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चींटी की शादी में आये,
उसके चींटा मामा।
बड़े अखाड़ेबाज लड़इया,
पहलवान ज्यों गामा।
बड़ी-बड़ी मूँछें थीं उनकी,
सुगठित भरी भुजाएँ।
सारे पाहुन उनसे डरते,
निकट न कोई जाएँ।
चींटी के चाचा थे दुबले,
ज्यों-त्यों चलती गाड़ी।
पहलवान मामा जब छींकें,
ढीली होती नाड़ी।
जितने लड्डू बनते घर में,
मामा आधे खाते।
फिर भी वे मैदान न छोडें,
पाहुन भूखे जाते।
लड्डू खाकर गामा मामा,
घर में खूब डकारें।
सारे पाहुन थर-थर काँपें,
हिलती थीं दीवारें।
टैंट किराये का बुलवाया,
मंडप खूब सजाया।
चींटी रानी को सजा-धजा,
दूल्हे संग बिठाया।
तभी जोर से छींकें मामा,
टेंट ढह गया सारा।
टाँगें टूटीं दूल्हा पहुँचा,
अस्पताल बेचारा।
गिलहरी
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बिजली जैसी चपल सलोनी।
लगे रुई की कोमल पोनी।
दौड़ लगाये डाली - डाली।
रुके अचानक ठोंके ताली।
खड़ी हुई पिछले पैरों पर।
दाना खाये कुतर-कुतर कर।
तेज - तेज यह पूँछ हिलाये।
नन्हीं मूँछें भी दिखलाये।
सेतु - बंध में ढोई रेती।
प्रभू राम की बनी चहेती।
बिठा गोद में जब पुचकारी।
तीन धारियाँ पीठ सँवारी।
दिखे गाँव में कह लो शहरी।
अजी जानिए नाम गिलहरी।
हाथी का रूमाल
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अपने हाथी दादा इक दिन ,
पहुँचे दरजी पास।
दो मीटर में ड्रेस बना लें ,
यही लिये मन आस।
दरजी ने जब बात सुनी तो ,
बोला दादा जान।
छोटी आँखों से कपड़े की,
कर लो कुछ पहचान।
नापो इसको देखो यह है ,
केवल दो ही हाथ।
ऐसे में कैसे सिल सकता,
शर्ट-सूट इक साथ।
हँसी खूब आई दरजी को,
हँसा हुआ बेहाल।
बोला दादा इसे बना लो ,
नाक पोंछ रूमाल।
चाँद पर
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गया चाँद पर सबसे पहले,
मानव का उड़न-खटोला।
चाँद हुआ तब हक्का-बक्का,
हाथ जोड़कर वह बोला।
ऊबड़ - खाबड़ मेरा चेहरा,
दुनिया को दिखलाओगे।
अरे नील औ' एल्ड्रिन मेरा,
तुम तो मान घटाओगे।
धरती पर जब वापस पहुँचो,
सही हाल मत बतलाना।
जितना सुंदर लगूँ धरा से,
फोटो वैसी दिखलाना।
वर्ना युगों पुराना नाता,
मिट्टी में मिल जायेगा।
मेरे प्यारे गीत धरा पर,
कभी न कोई गायेगा।
मामा नहीं कहाऊँगा मैं,
नहीं काव्य में आऊँगा।
इतनी दूर अकेला मैं तो,
घुट-घुट कर मर जाऊँगा।
चुहिया का झगड़ा
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(निमाड़ जनपद की लोककथा पर आधारित काव्य-कथा)
चूहा - चुहिया दोनों मिल ,
इक बर्तन में सोये।
दिन भर के थे थके हुए,
गहरी निंदिया खोये।
पलक झपकते दोनों को,
नींद लगी थी भारी।
और नींद में चूहे ने ,
लात भूल से मारी।
बहुत खपा थीं चुहियाजी,
सुबह देर तक सोई।
और रात की बात लिये ,
बार - बार थी रोई।
बहुत मिन्नतें कीं लेकिन ,
नहीं तनिक मुस्काई।
बात लात की फिर उसने,
रह- रह कर दुहराई।
वही बहाना ले चुहिया ,
पड़ती उस पर भारी।
"अरे समझते क्या मुझको!
मुझे लात क्यों मारी।"
नहीं रहूँगी अब इस घर ,
कोरट में जाऊँगी।
तुमसे लूँगी मैं तलाक ,
तभी चैन पाऊँगी।
बात सुनी जब कोरट की ,
तो चूहा घबराया।
कान पकड़ माफी माँगी ,
रगड़ी नाक मनाया।
काम घरेलू सब निबटा ,
चूहा कुछ सुस्ताया।
बहुत लगन से फिर अच्छा ,
भोजन गया बनाया।
फिर दौड़ा उसे मनाने ,
वह झट से उठ आई।
बोली प्यारे राजाजी !
बीती बात भुलाई।
आप लगाओ अब खाना ,
साथ बैठकर खायें।
और आज है फिर संडे ,
मिलकर मौज मनायें।
वर चाहिए
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गुड्डे वालों सुनो सुनो जी!
बात पते की जरा गुनो जी!
मेरे घर है प्यारी गुड़िया।
है शक्कर की मीठी पुड़िया।
वो दिन भर बन-ठन रहती है।
फिर खुद को हेमा कहती है।
वो नये चलन की छोरी है।
वो गोरी दूध कटोरी है।
भले ही गाँव में रहती है।
पर साथ समय के बहती है।
पढ़ी - लिखी वह ग्रेजुएट है।
फैशन में भी अपटुडेट है।
उसका कोई नहीं तोड़ है।
फटी जीन्स तो आठ जोड़ है।
वो मोबाइल की मारी है।
वो सारे घर पर भारी है।
फेसबुक औ' वाट्सअप में।
व्यस्त रहे दिन भर गपशप में।
काम बताएँ झल्लाती है।
आँख बड़ी कर दिखलाती है।
हमें चाहिए प्यारा दूल्हा।
कभी नहीं फुँकवाए चूल्हा।
जा सकती है शापिंग करने।
कभी न जाए पानी भरने।
पढ़ा-लिखा वर समझदार हो।
काना हो पर मालदार हो।
बैठी आज मुँडेरे चिड़िया
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नयी सुबह का गीत सुनाने,
बैठी आज मुँडेरे चिड़िया।
नन्हे मुन्नों तुम्हें जगाने,
बैठी आज मुँडेरे चिड़िया।
अभी-अभी तो सुबह हुई है,
भूख लगी पर जोरों की है,
आँगन में कुछ दाना पाने,
बैठी आज मुँडेरे चिड़िया।
रट्टा खूब लगाते हो तुम,
भूल मगर फिर जाते हो तुम,
फिर से भूला पाठ सिखाने,
बैठी आज मुँडेरे चिड़िया।
पापाजी ने डाँटा है या,
मम्मी ने चपत लगाई है,
रूठे बेटों तुम्हें मनाने,
बैठी आज मुँडेरे चिड़िया।
धूप - छाँह के मेले में जब,
बूँदें झरतीं प्यारी-प्यारी।
अपने बच्चों संग नहाने,
बैठी आज मुँडेरे चिड़िया।
दिन और रात
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दिन खराब औ' रात भली जी!
दिन खराब औ' रात भली।
दिन लाता है जलता सूरज,
रात चाँद ले आती है।
मुस्काती तारों की टोली,
नभ में मन को भाती है।
आसमान में तारे चमकें,
खिलती दिल की कली-कली।
दिन खराब औ' रात भली जी!
दिन खराब औ' रात भली।
दिन ज़्यादा कुछ देता है कब,
यह तो दे बस उजियारा।
संग ज्योत के रात हमें दे,
मोती-सा ओस पिटारा।
इसीलिए दिन को हम बच्चे,
बात सुनाएँ जली-जली।
दिन खराब औ' रात भली जी!
दिन खराब औ' रात भली।
दिन तो होता पत्थर दिल है,
हमसे बस काम कराए।
कोमल दिल की होती रजनी,
थपकी दे हमें सुलाए।
कैसी गहरी आये निंदिया,
जब हौले से पवन चली।
दिन खराब औ' रात भली जी!
दिन खराब औ' रात भली।
दिन को याद करो बस गिनती,
नहीं करो तो मार पड़े।
मम्मी कान पकड़ कर कहती,
नहीं निरर्थक रहो खड़े।
दादी कहती रात कहानी,
राणा की तलवार चली।
दिन खराब औ' रात भली जी!
दिन खराब औ' रात भली।
साथी दिन में करें परेशाँ,
हमें चैन कब मिलता है।
होमवर्क की मारामारी,
हृदय-कमल कब खिलता है।
और रात जब आती सजकर,
चुप हो जाती गली-गली।
दिन खराब औ' रात भली जी!
दिन खराब औ' रात भली।
रेल चली जी!
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खेलम खेला रेल चली जी!
लो बच्चों की रेल चली जी!
आगे - आगे बढ़ती जाती। कभी नहीं पीछे मुड़ पाती।
पर्वत घाटी नदिया नाला।
इंजन कब है रुकने वाला।
सरपट है वह दौड़ा जाता।
कभी-कभी थकता रुक जाता।
चुन्नू इंजन खींच न पाता।
मुन्नू इंजन जोर लगाता।
सीटी देता और उछलता।
दौड़े - दौड़े कहीं फिसलता।
पैसेंजर घायल हो जाते। लम्बू खम्बू भागे आते।
झूठे घायल खूब कराहते। पानी - पानी हैं चिल्लाते।
पिल्लूजी डाॅक्टर बन जाते।
नकली टीका खूब लगाते।
देख सभी यह खुश हो जाते।
फिर से मिलकर रेल बनाते।
खिलती दिल की कली-कली जी।
खेलम खेला रेल चली जी।
वर्षा का काला बादल
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दूर देश सेआता है,
वर्षा का काला बादल।
आकर शोर मचाता है,
वर्षा का काला बादल।
सूखी नदियाँ रीती झीलें,
खाली ताल तलैया,
पानी से भर जाता है,
वर्षा का काला बादल।
रिमझिम-रिमझिम खूब बरसता,
यह सावन का संगी,
वन में मोर नचाता है,
वर्षा का काला बादल।
हम खुश होते और नहाते,
अपने घर के आँगन,
मम्मी से पिटवाता है,
वर्षा का काला बादल।
स्वयम् घूमता यहाँ-वहाँ पर,
मास्टरजी से कहकर,
शालाएँ खुलवाता है,
वर्षा का काला बादल।
सब है अच्छा पर है इसकी,
यह इक आदत गंदी,
कीचड़ खूब मचाता है,
वर्षा का काला बादल।
अभिजित का सपना
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रात दिवाली अभिजित ने,
देखा मीठा सपना।
मीठा-मीठा खूब हुआ,
मिट्टी का घर अपना।
रबड़ी से पुती हुई थीं,
घर की सब दीवारें।
टँगी जलेबी दरवाजे,
पेठा लगती कारें।
रसगुल्लों इमरतियों से,
सजी फूल की क्यारी।
गेंदा पौधे पर लटकी,
मावाबाटी प्यारी।
पानी के मटके में थी ,
मीठी दूध मलाई।
नल की टोंटी खोली तो,
खीर वहाँ बरसाई।
घर पिछवाड़े घेवर-से,
दिखते गोबर-कंडे।
बालूशाही-सी मुरगी,
दे लड्डू-से अंडे।
पापाजी कोने में ज्यों,
मालपुए मुस्काते।
गुड़ की भेली-सी मम्मी ,
चूहे उनको खाते।
बहन संजना कलाकंद,
कनु मिश्री की डल्ली।
क्रीम रोल से कोने में,
लगते डंडा-गिल्ली।
चाचा दिखते बर्फी-से,
चाची बेसन-चकती।
वीर हुआ गुलाब जामुन,
चींटी उसको तकती।
कविता की डायरियाँ थीं ,
जैसे पूरण-पोली।
"अभिजित ने खा ली"-दादी,
दादाजी से बोली।
उदय सिंह अनुज
परिचय ~
कुँअर उदयसिंह अनुज
जन्म तिथि - १५ जुलाई १९५०
शिक्षा - हिन्दी साहित्य में एम. ए., विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन (मप्र)
जन्म स्थान /स्थाई पता--
ठिकाना पोस्ट - धरगाँव (मंड़लेश्वर)
जिला - खरगोन (मध्यप्रदेश)
पिन. 451-221
प्रकाशित पुस्तकें-
1- लुच्चो छे यो जमानों दाजी!
निमाड़ी लोकभाषा ग़ज़ल संग्रह - 2007 में प्रकाशित
2- अभिजित का सपना - बाल साहित्य हिन्दी कविताएँ - 2011 में प्रकाशित
3- यह मुक़ाम कुछ और - - दोहा संग्रह (600 दोहे) - 2 017 मे प्रकाशित
पत्रिकाओं में प्रकाशन-- हंस, समकालीन भारतीय साहित्य, पाखी, हरिगंधा, अभिनव प्रयास, समावर्तन, अक्षर पर्व, हिन्दी विवेक, सरस्वती सुमन, अनन्तिम, शेषामृत, शब्द प्रवाह, अर्बाबे क़लम, शिखर वार्ता, मेकलसुता, यशधारा पत्रिकाओं में दोहे व गीत प्रकाशित।
समाचार पत्र--नईदुनिया, नवभारत टाइम्स, दैनिक ट्रिब्यून, में रचनाएँ प्रकाशित।
सम्मान-- सौमित्र सम्मान इंदौर 2004,
वयम सम्मान खरगोन 2007,
कस्तूरीदेवी लोकभाषा सम्मान भोपाल - 2012
गणगौर सम्मान खंडवा - 2012
लोक सृजन सम्मान मंड़लेश्वर - 2014
लोक साहित्य सम्मान खरगोन - 2015
सम्प्रति - सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक मर्यादित खरगोन से 2008 में वरिष्ठ शाखा प्रबंधक पद से सेवा निवृत्त
मोबाइल - 96694-07634