शनिवार, 17 सितंबर 2022

जगदीश पंकज जी का एक समीक्षात्मक आलेख प्रस्तुति : वागर्थ

 

जगदीश 'पंकज' जी की दृष्टि से गुजरते हुये कृति '.न बहुरे लोक के दिन ' । 

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'न बहुरे लोक के दिन'-- अनामिका सिंह  (नवगीत संग्रह)
' समय के सम्पुष्ट प्रलेख जो समय के प्रवक्ता का समय पर हस्तक्षेप हैं '-- जगदीश पंकज 
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पिछले कुछ वर्षों में जो युवा रचनाकार अपनी रचनाओं को लेकर साहित्यिक पटल पर उभर कर सामने आये हैं उनमें से अधिकतर का रुझान गीत-नवगीत की ओर रहा है। इस शताब्दी में, विशेषकर सदी के तीसरे दशक तक आते -आते, उभरे अधिसंख्य युवा रचनाकारों ने छान्दसिक कविता को अपनाते हुए नवगीत के कथ्य और शिल्प को अपना वर्ण्य बनाया है। इन युवा रचनाकारों में जो मुख्य नाम सामने आये हैं उनमें अनामिका सिंह ऐसा नाम है जो नवोदित महिला नवगीतकारों की पंक्ति में अपने नवगीतों के द्वारा कम समय में विशेष स्थान बना चुका है। सोशल मीडिया पर स्वतंत्र रूप से तथा गीत-नवगीत के समूह 'वागर्थ' पर एक प्रस्तोता के रूप में उपस्थित होकर अनामिका ने अपना विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया है। इसी बीच अपने स्वतंत्र लेखन को जारी रखकर जो सर्जना की है, उसे संगृहीत रूप में अपने नवगीत संग्रह 'न बहुरे लोक के दिन' लेकर साहित्य-जगत में उपस्थित हुई हैं। 

नवगीत संग्रह 'न बहुरे लोक के दिन' के गीतों से गुजरते हुए सबसे पहले ही उस स्थिति का पता चलता है कि अनामिका 'लोक' के सरोकारों से जुड़ी हैं। वह व्यवस्था का चित्र खींचती हैं जहाँ स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी लोक की स्थिति में बदलाव नहीं आया है। नवगीतों का केंद्रीय तत्व आमजन के इर्द-गिर्द उसकी पीड़ा से जुड़ा है जिसे लोकजीवन की भाषा के भदेस शब्दों और मुहावरों के द्वारा व्यक्त किया गया है। इन गीतों का फलक इतना विस्तृत है जिसमें अनेक मानवीय संवेदना के पक्षों को स्थान मिला है। पारिवारिक तथा मानवीय रिश्तों से लेकर राजनीति , रूढ़िवादिता पर प्रहार, सम्प्रदायिकता, किसानों की दुर्दशा और आंदोलन ,पर्यावरण और प्रकृति का अंधाधुंध दोहन और उसका जनजीवन पर दुष्प्रभाव , वैश्विक महामारी , प्रगति और विकास के थोथे नारों के विज्ञापनों पर प्रहार आदि ऐसे प्रासंगिक विषय हैं जिन्हें अनामिका ने अपने लेखकीय सरोकारों में शामिल किया है।  इन्हीं के साथ-साथ प्रणय की कोमल भावनाओं से युक्त गीत और प्रकृति एवं मौसम के मानवीय अंतर्जगत को प्रभावित करने वाले कारकों पर कलम चलाकर शालीन श्रृंगार को गीतों में व्यक्त किया है। कथ्य की विविधता ने अनामिका को कहीं भी अपनी जन-प्रतिबद्धता से विचलित नहीं होने दिया है और वह लोक के दिन न बहुरने की वास्तविकता को अंत तक नहीं भूली हैं।
प्रस्तुत संग्रह 'न बहुरे लोक के दिन' यों तो अनामिका का प्रथम संग्रह है किन्तु संग्रहीत गीतों की परिपक्वता उनकी गहन वैचारिक पौढ़ता तथा अनुभव और अभ्यास को दर्शाते हैं। अपने आत्मकथ्य में यों तो अनामिका ने व्यक्त किया है कि उसने बहुत बाद में नवगीत लिखने आरम्भ किये हैं लेकिन इन गीतों के शिल्प और गठन को देखने से लगता है कि उसकी अंतर्चेतना में नवगीतों की चेतना बहुत पहले ही उत्पन्न होकर विकसित हो चुकी होगी। इस संग्रह में सत्तर नवगीतों को स्थान दिया गया है जो अपनी भाषा , शिल्प और अंतर्वस्तु में बेजोड़ हैं और पाठक को अंत तक  पढ़ने के लिए आकर्षित करते हैं। प्रत्येक गीत अपने आप में सबसे पहले गीत होता है किन्तु हर गीत नवगीत नहीं होता है।  गीति की नव्यता और नव्यता की गीति इन समय-सापेक्ष गीतों को नवगीत बनाती है। 

संग्रह पर विचार करते हुए अनामिका द्वारा दिए अनुक्रम के अंतिम नवगीत से शुरू करते हैं। अनामिका ने अपने सरोकारों को अपने गीत 'घर-घर रोशन हों  कंदील' में इस प्रकार व्यक्त किया है :
'रहे जिन्दगी जगमग, घर-घर /रोशन हों कंदील। 
जातिवाद,पाखंड अशिक्षा/ तोड़ सभी अवरोध। / विगत द्वेष की भूल कहानी/ करें लोकहित शोध। '
अनामिका के अनुसार स्वार्थवाद की चील संवेदन को गटक चुकी है. सबके उदर संतृप्त रहें और भूख का नृत्य अश्लील न हो। अतः -
'जलन दीप आँगन ओसारे/ घर-घर देहरी द्वार। / वंचित रहने एक न पाए ,/ तम की भरे दरार। '
अनामिका की चाहना है कि समष्टि में मीलों-मील तक ख़ुशी के दृश्य फैले रहें। अतः --
'उन प्रश्नों का समाधान हो/ जीवन का जो मूल। / खुली आँख के स्वप्न विवशता / न कर सके उदूल। '   ('घर-घर रोशन हों कंदील')

पारिवारिक और मानवीय रिश्तों को लेकर अनामिका ने अपने भावुक अंतर्मन से शब्द दिए हैं। संग्रह का पहला गीत ही अम्मा को लेकर है :
'शाम सबेरे शगुन मनाती/ खुशियों की परछाई/ अम्मा की सुध आई। '
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अम्मा के पास घर की हर समस्या का समाधान रहता है :
'बाँधे रखती थी कोंछे, हर/ समाधान की चाबी / बनी रही उसके होने से/ बाखर द्वार नवाबी/
अपढ़ बाँचती मौन पढ़ी थी/ जाने कौन पढ़ाई / अम्मा की सुध आई। '    (अम्मा की सुध आई)

इसी के साथ संबंधों में प्रेम और अपनेपन के क्षरण की ओर इशारा करते हुए गीत भी संवेदनाओं को झकझोरते हैं जब माँ-पिता को वृद्धाश्रम में रहना पड़ता है और उन्हें मुड़कर देखा भी नहीं जाता। (काग मुंडेरों पर) पुत्र की आशा में वंश के वारिश की चाहना होने से बेटी के जन्म पर न कोई ख़ुशी मनाई जाती है न ही बधाई दी जाती है ( कोख भी कुछ कसमसाई) ।  बाँझ होते रिश्तों पर :
 'संबंधों का गर्भ न ठहरा, / रिश्ते बाँझ हुए (संबंधों का गर्भ न ठहरा) । ' 
दोहरे चरित्र और दहेज़ की लालची मानसिकता के कारण शगुन की मेंहंदी रचे हाथ गले में रस्सी बाँध कर लटक जाने को मजबूर हो जाते हैं।
 'भाँवर वाले वचन खा गई , / फिर लालच की भूख। '
***
'दोहरे दिखते मानदंड हैं,/ दोहरे सभी चरित्र। / समय-समय पर दुश्चरित्र का, / दिखता सच्चा चित्र। '  ( काया लटक गई )
दरकते हुए रिश्तों पर सुन्दर गीत में व्यक्त किया है :
'भित्तियाँ कितनी उठी हैं,/ बीच घर-घर के।  / अजनबी साये हुए,/ रिश्ते सभी दरके। / मृत हुईँ संवेदनाएँ / मूल्य बिसराये। / जिंदगी की दौड़ में ,/ इतना कमा पाये। / कांच के घर-बार में ,/हैं लोग पत्थर के। ' (भित्तियाँ कितनी उठी हैं)

गीतों की केन्द्रीयता में जहां जनपक्ष है वहीँ अपने समय की विद्रूपता और विडम्बना का भी सशक्त शब्दों में चित्रण है। जन-सरोकारों से प्रतिबद्धता को डिगने नहीं दिया है। अपने समय के रचनाकारों को भी सम्बोधित गीतों में अनामिका स्पष्ट रूप से कहती हैं कि कलम के अनुरोध को सुनो और कविकुल की मर्यादा रखना। --
'वंचित की हर / पीड़ा कहना,/ कुल का फ़र्ज निभाना। / कंगूरों की/ स्तुति करना,/  हरगिज सीख न जाना।/ 
शब्दों की शुचिता / संग करना,/  समरसता पर शोध, सुनो !
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पंक्ति-पंक्ति की/ अन्तर्लय में ,/ रखना सच का बोध ,सुनो !
***
मरहम औषधि/ बनाना कविवर,/ जैसे तरुवर लोध ,सुनो ! '  (कलम करे अनुरोध सुनो) 

'गंगी कड़ी उदास' गीत के द्वारा अपने मूल विचार को पुष्ट किया है अनामिका ने :
''बीती सदियाँ कुएँ जगत पर,/गंगी कड़ी उदास,/ मिटी न जोखू प्यास। 
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सद्भावों के/ दृश्य लुप्त हैं,/ बंध्या हर उम्मीद। / समरसता की/ भेदभाव ने/ की तस्वीर पलीद। / 
ऐसे दोज़ख से/ की जाती है/ क्या कोई आस ? ''  --(गंगी कड़ी उदास)

प्रणय गीतों में अनामिका ने मिलन-विरह और प्रतिकूल मौसम में दूरियों से उत्पन्न स्वाभाविक संवेदन को अपने कई गीतों में सफलता से व्यक्त किया है। --
'सरस पारस पा दो अधरों का, / हुए नयन जब बंद,/ सजन ने रचे प्रीति के छंद। 
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बाजूबंद गिरे खुल-खुल जब, कसें बांह के फंद ,/सजन ने रचे प्रीति के छंद। '  --(सजन ने रचे प्रीति के छंद)  

इसी का दूसरा पक्ष देखिये :
'घोर घटा / उमड़ी अंबर पर,/ झैँ धारा पर /बूँदें झर-झर। / दिग-दिगंत विहँसे, / पावस हमें डँसे। /दूर खड़े मेरे सांवरिया,/ सुधियाँ करें विलाप।  / हर आहट पर / बढ़ता घटता, /श्वासों का आलाप। /अंबर से / जो गिरे दामिनी , आकर ह्रदय धँसे। '  --(तरी-तरी मन घाट) 

परिस्थितियाँ और परिवेशगत यथार्थ मनुष्य की चेतना का निर्माण करते हैं। अनामिका की चेतना पर पिता की समतामूलक और संघर्षशील विचारधारा का निश्चय भी प्रभाव पड़ा है जिसे उसने स्वीकार भी किया है। यही यथार्थ अनामिका की प्रतिरोध शक्ति का आधार है जिसे अपने गीतों में सफलता से व्यक्त किया है। सच की अभिव्यक्ति और विसंगतियों पर प्रहार और प्रतिरोध के स्वर अनामिका के गीतों की विशेषता है। राजनीति प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करती है, कभी प्रत्यक्ष रूप से तो कभी अप्रत्यक्ष रूप से। अनामिका के गीत इन्हीं विद्रूपताओं , विडम्बनाओं पर एक सजग नागरिक तथा सचेतन रचनाकार की लेखकीय प्रतिक्रिया हैं। जिनका निष्कर्ष 'न बहुरे लोक के दिन' के नवगीतों में व्यक्त हुआ है। कुछ उदाहरण केंद्रीय तत्व की पुष्टि करते हुए उद्धृत हैं :
'आश्वासन ही आश्वासन पर,/ देख रहा गणतंत्र। / हाकिम फूंकें लालक़िले से ,/ विफल हुए वे मंत्र। / वादों की नंगी तकली पर, / सूट रहे हैं कात। ' --(आंत करे उत्पात)   
तथा 
'परिधि तुम्हारे पंखों की लो ,/ रहे हितैषी खींच,/ चिरैया बचकर रहना। 
***
साँसें कितनी ली हैं कैसे,/बही निकालेंगे। / चाल-चलन की पोथी पत्री / सभी खँगालेंगे। / संघर्षों से हुई प्रगति पर / उछल न जाए कींच।/ चिरैया बच कर रहना। ' 
   --(चिरैया बच कर रहना)
***
'लानत रख लो जान गण मन की ,/ राजा निकले पाथर तुम। '     --( लानत रख लो ) 
***
'चुपचाप बैठे हो मगन क्यों / भेजिए लानत सभी। / नाखून सत्ता के तुम्हारी /गर्दनों तक आ गए।  '  -- (नाखून सत्ता के)

'आग लगा दी पानी में' गीत की पंक्तियाँ में साम्प्रदायिकता पर प्रतिक्रिया :
'रामराज की जय हो जय हो, /आग लगा दी पानी में। 
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'अनाचार की विषबेलों ने , ज़हर हवा में घोला। / पाखंडी चेले करते हैं , /रोज़ -रोज़ ही रोला। / न्याय तुला भी नहीं उड़ेले , /पानी चढ़ी जवानी में। '  --( आग लगा दी पानी में)

अनेक उत्कृष्ट उद्धरण दिए जा सकते हैं संग्रह के गीतों से जो अपनी वैचारिकी और समकाल की व्याख्या ही नहीं करते बल्कि उसे बदलने के लिए भी कह रहे हैं। संग्रह के शीर्षक की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं :

' मूँद कर आँखें /भरोसा था किया,/ न बहुरे लोक के दिन। 
***
न्याय पैंताने डुलता है चँवर , न तैरते शोक के दिन। '  --(न बहुरे लोक के दिन)

हर व्यक्ति की अपनी दृष्टि होती होती है जो घटनाओं, परिस्थितियों या लेखन पर कोई राय बनाती हैं। एक पाठकीय दृष्टि से देखने पर संग्रह के जिन गीतों ने मुझे अधिक आकर्षित किया उनमें 'धर्म खड़े ले हाथ जख़ीरे', 'एक कलम पर सौ ख़ंजर हैं', 'क्या खोया क्या पाया हमने', 'निकला शून्य फलन', 'व्यथा मुनादी कर रही', 'रंगमंच पर सभी जमूरे', 'आधुनिकता ने हमें बौरा दिया ', ' भित्तियाँ कितनी उठी हैं', 'एक दीप मन की देहरी पर', ' मगहर रोये कबीर', 'सुनो तथागत सम्मुख बैठो' , ' गायें यश की गाथा', ' कैसी चली हवाएँ बोल' आदि ऐसी रचनायें हैं जो अनामिका की सम्पुष्ट सोच का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। गीतों में प्रयुक्त देशज शब्द, शब्द-युग्म और मुहावरे अनामिका के लेखन को एक अलग पहचान देते हैं जो उसके जमीन से जुड़े अनुभवों के संकेत हैं। इन नवगीतों के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है किन्तु स्वयं पढ़कर जो रसास्वादन तथा आनंद की अनुभूति होती है उसका कोई विकल्प नहीं होता।
 
अंत में अपने मंतव्य और लेखन को सार्थक बनाते हुए गीत की पंक्तियाँ उद्धृत करना बहुत आवश्यक है जिसके बिना संग्रह के सार-तत्व को समझाना संभव नहीं है। --
' ओढ़कर बैठे रहेंगे मौन,
यह न होगा। 
हम करेंगे 
ज़ुल्म का प्रतिरोध। 

दर्द जिसका 
टीसता है अनकहा,
मौन हर उस दर्द का 
स्वर बनेंगे हम। 
बेजुबाँ बनकर दमन 
सहना नहीं,
मिल निकालेंगे 
अहम् के ख़म। 

वंचना को हम सराहें 
यह न होगा, 
हम करेंगे 
यंत्रणा पर शोध।  '  --(यह न होगा)

अनामिका सिंह के प्रस्तुत संग्रह 'न बहुरे लोक के दिन' के नवगीत अपने समय के सम्पुष्ट प्रलेख हैं जो समय के प्रवक्ता का समय पर हस्तक्षेप हैं। संग्रह विस्तृत विमर्श की मांग करता है। मुझे विश्वास है कि संग्रह पठनीय, संग्रहणीय तथा सुधी पाठकों, विमर्शकारों, अध्येताओं, और शोधार्थिओं के लिए समकाल पर प्रतिक्रिया के रूप में एक समर्थ दस्तावेज की तरह आकर्षित करेगा।  अनमिका सिंह का यह प्रथम नवगीत संग्रह उसके समृद्ध भविष्य की और आश्वस्त करता है।  मेरी हार्दिक शुभकामनाएं !

--जगदीश पंकज 

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समीक्षित कृति :       'न बहुरे लोक के दिन'  (नवगीत संग्रह)
रचनाकार  :             अनामिका सिंह 
प्रकाशक :               बोधि प्रकाशन, जयपुर   
 प्रथम संस्करण :      वर्ष 2021  
मूल्य :                     रु. 250/- मात्र       

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संपर्क :
जगदीश पंकज 
सोमसदन ,5/41सेक्टर2,राजेन्द्रनगर,साहिबाबाद,गाज़ियाबाद-20100