सोमवार, 23 जनवरी 2023

मधुश्री जी की कृति चल बंधु उस ठौर चलें का फ्लैप : मनोज जैन

परम्परा और नवता का अद्भुत सामंजस्य : 'चल! बन्धु उस ठौर चलें'
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 सोशल मीडिया पर अत्यधिक सक्रिय रहने के जो धनात्मक परिणाम मेरे सामने आए, उनमें मित्रों की भारी संख्या में इज़ाफा होना भी एक बड़ा परिणाम रहा है। देश के हर एक प्रदेश में दर्जनों मित्र ऐसे हैं जिन्हें पढ़ना-सुनना और उनके लिखे को गुनना सुखकर प्रतीत होता है।हमारी सूची में मधुश्री का नाम ऐसे ही मित्रों में शुमार है।
      नवगीत पर एकाग्र फेसबुक पर चर्चित पटल वागर्थ के मंच से जुड़ीं, मधुश्री मुंबई महाराष्ट्र से आती हैं; और छान्दसिक रचानाएँ लिखती हैं। साहित्य की अनेक विधाओं में अपनी सृजनात्मक उपस्थिति सुनिश्चित कराने वाली मधुश्री का मन गीत-संगीत में रमता है। गीत लिखना उन्हें पसन्द हैं।
      छान्दसिक कविता में भले ही उनका रुझान पारम्परिक गीत-नवगीत दोनों में हो, परन्तु उम्र के चौथेपन में उनका झुकाव नवगीत की ओर अधिक है। इस आशय के संकेत, हमें उनकी पाण्डुलिपि "चल बन्धु उस ठौर चलें" की रचनाओं में पर्याप्त मात्रा में देखने से मिलता है। गीतकार न तो नितांत वैयक्तिक भावों का उद्गाता होता है और  न ही समाज का तटस्थ प्रेक्षक। गीत की सार्थकता तभी है जबकि उसमें सामूहिक भाव वैयक्तिक भाव के माध्यम से व्यक्त हुआ हो ऐसा गीत ही शाश्वत, सर्वग्राह्य,सम्प्रेषणीय होकर समाज को दिशा दे सकेगा। 
        परम्परा और नवता का अद्भुत सृजनात्मक सामन्जस्य अपने गीतों में बनाये रखना रचनाकार के कृतित्व का वैशिष्ट्य है। मधुश्री के गीत नवगीत इसी श्रेणी में आते हैं। कृति चल ! 'बंधु उस ठौर चलें' की विषय वस्तु विविधतापूर्ण है, जो मधुश्री की प्रतिभा का परिचय देने के लिये पर्याप्त हैं। मधुश्री अपने पाठकों को कभी आशा तो कभी निराशा तो कभी सुख- दुख के झूले में झुलाती हैं। जीवन एक गीत है। जीव,अपने जन्म से मृत्यु तक जैसा सूझता है गाने का प्रयास करता है। कवयित्री ने इस भाव को कई गीतों में सलीके से बाँधा है। अपने हिस्से में आये पल-क्षण का उपयोग वह पूरी चेतना से शिद्दत के साथ करती हैं।
         गीतों में गहरी आध्यात्मिक और दार्शिनिक अनुभूतियाँ समाहित हैं। तभी तो वह एक गीत में कहती हैं। 

"ये सफर अंतिम सफर है
कौन जाने
दे रही दस्तक हवाएंँ
द्वार क्या खोलूंँ कभी ।
कामनाओं के तृणों की
बाँध कर मुठ्ठी अभी।
आंँधियांँ कब द्वार तोड़े 
कौन जाने।

 कुल मिलाकर मधुश्री के गीत पाठक मन पर अपना भरपूर असर छोड़ते हैं।
        मधुश्री को जितना उनके गीतों से जाना उसी को आधार मानते हुए कहा जा सकता है कि संगीत की मर्मज्ञ मधुश्री आलाप लेते समय आरोह-अवरोह में भले ही पूरी सजगता बरतना जानती हों पर, काव्य के अलंकारों, शब्दों, अर्थों और उनके प्रयोगों में अभी उन्हें बहुत कुछ जानना शेष है। इस सन्दर्भ में अच्छी बात यह है की मधुश्री निरन्तर प्रयासरत हैं। आशा है वे साहित्य में अपनी पकड़ जल्द ही संगीत जैसी बना सकेंगी।
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मनोज जैन "मधुर"
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