शनिवार, 3 जून 2023

वागर्थ में आज

गरिमा  सक्सेना के गीत-अनुभूति के नए आयाम
➖➖➖➖➖
विगत दिनों गरिमा सक्सेना के दो नवगीत,वागर्थ के पटल पर पढ़े थे,उनके तीन और नवगीत पढ़ने में आये।फौरी तौर पर यह टिप्पणी जायज है कि युवा कवियत्री में नए बिम्बो के साथ,नये विषयों के अनुसंधान की अद्भुत क्षमता है।
प्रसंगवश यह लिखना जरूरी है कि लोगों की आम धारणा है कि जो हिंदी से स्नातकोत्तर है और डॉक्टरेट है,वही हिंदी में लिखता है।इस भ्रांत धारणा के उलट स्तिथी यह है कि बच्चन जी और रघुपति सहाय फिराक इंग्लिश के प्रोफेसर थे किन्तु  उन्होंने क्रमशः हिंदी और उर्दू साहित्य को समृद्ध किया।कवि धर्मेंद्र सज्जन,कवियत्री अंकिता सिंह और खुद गरिमा सक्सेना भी विज्ञान विषय में उच्च शिक्षित है किंतु हिंदी मंच पर शोभित हैं।निष्कर्ष यह है कि जीविका के संसाधन और भावों का प्रस्फुटन दो अलग अलग बातें हैं।
इस आलेख में उनके तीन गीतों पर चर्चा करते हुए,ये कहना उचित होगा कि वे नए विषय के अनुसंधान में निपुण हैं।
उदाहरण के लिए उनके गीत "कब उजियारा आयेगा" में,स्त्री 
विमर्श की बात बहुत बारीक संकेत में कही गयी है।गीत के प्रथम चरण में तो सरल सा स्त्री विमर्श का आख्यान लगता है किन्तु आगे बढ़ते ही वह पूरी जिम्मेदारी से Domestic violence को नए अंदाज में पेश करता है।इसलिये, यह कहना गलत नहीं होगा कि ऐसी सशक्त और संवेदनशील चेतना केवल कल्पना के आधार पर नहीं हो सकती।
दूसरा गीत,"प्यारे लगते ही तुम जैसे, एक अवध की शाम"
पति-पत्नी के प्रेम का परंपरागत गीत है किन्तु इसके नये बिम्ब विधान मन को रोमांचित करते हैं।इस दृश्य पर कई कवियों ने लिखा है।ऐसे गीतों की प्रथम और अंतिम शर्त यही है कि शब्दों और भावों की सरलता बनी रहे क्योंकि ऐसे गीतों में क्लिष्ट शब्दों या अलंकारों का प्रयोग, कथ्य में बनावटीपन भर देता है।कवियत्री ने उसी सरल धरातल पर अपनी भाव व्यंजना को रखा है।
और अंत मे तीसरा और अंतिम गीत "प्रिये तुम्हारी आँखों ने कल दिल का हर पन्ना खोला था" इस गीत में शब्द चातुर्य से जो व्यक्त किया गया है वह हृदय को न केवल रोमांचित करता है बल्कि साठ के दशक की किसी पुरानी क्लासिक फ़िल्म के नायक,नायिका के मिलन के दृश्य को जीवित कर देता है।रेशमी भावों के साथ शाब्दिक कुशलता से प्रथम मिलन का जो दृश्य निर्मित किया गया है,वह अद्भुत है।
पुनर्पाठ के रूप में उनके पूर्व में प्रकाशित नवगीत भी अंत मे हैं।
गरिमा सक्सेना, विषयों से समृद्ध हैं और गीतों का शिल्प भी नवगीत दायरे से बाहर नहीं जाता।

(एक)
कब उजियारा आयेगा

कई उलझनें खोंप रखी हैं
जूड़े में पिन से 
कब उजियारा आयेगा
वह पूछ रही दिन से 

तेज़ आँच पर रोज़
उफनते भाव पतीले से
रस्सी पर अरमान पड़े हैं
गीले- सीले से
जली रोटियाँ भारी पड़तीं
जलते जख़्मों पर
घर तो रखा सँजोकर
लेकिन मन बिखरा भीतर
काजल, बिंदी, लाली, पल्लू
घाव छिपाते हैं
अभिनय करते होंठ बिना
मतलब मुस्काते हैं
कई झूठ बोले जाते हैं
सखी पड़ोसिन से

छुट्टी या रविवार नहीं 
आते कैलेंडर में
दिखा नहीं सकती थकान
लेकिन अपने स्वर में
देख विवशता, बरतन भी
आवाजें करते हैं
परदे झट आगे आ जाते 
वो भी डरते हैं
डाँट-डपट से उम्मीदें हर 
शाम बिखरती हैं
दीवारें भी बतियाती हैं
चुगली करती हैं
रात हमेशा तुलना करती
रही डस्टबिन से.
(दो)

प्यारे लगते हो तुम जैसे
एक अवध की शाम
आँखें लगतीं भूलभुलैयाँ
बोल दशहरी आम

साथ तुम्हारे चलने से
रंगीन हुई परछाई
सभी दिशाओं में गुंजित अब
खुशियों की शहनाई
जबसे मिले मुझे तुम मुझ पर 
रंग नवाबी छाया
सर्वनाम मैं, 'हम' में बदला 
बदला जब उपनाम 

फिल्मी बातें नहीं प्यार यह
एक हकीकत है
मुझको साँसों से भी ज्यादा 
इसकी कीमत है
धड़कन में संगीत घुल गया
गीत हुई हैं साँसें
गाती रहतीं केवल तुमको 
बनकर यह खय्याम

एक तुम्हारी कहलाने का
मुझे मिला शुभअवसर
मान संग अभिमान बढ़ा है 
प्रियवर तुमको पाकर
हृदय तुम्हारा पावन मंदिर
दीप ज्योत जैसी मैं
आलोकित कर पाऊँ तुमको
चाहूँ आठों याम।
(तीन)

प्रिये तुम्हारी आँखों ने

प्रिये तुम्हारी आँखों ने कल
दिल का हर पन्ना खोला था

दिल से दिल के संदेशे सब
होठों से तुमने लौटाये
प्रेम सिंधु में उठी लहर जो
कब तक रोके से रुक पाये

लेकिन मुझसे छिपा न पाये
रंग प्यार ने जो घोला था

उल्टी पुस्तक के पीछे से
खेली लुका-छिपी आँखों ने
पल में कई उड़ानें भर लीं
चंचल सी मन की पाँखों ने

मैने भी तुमको मन ही मन
अपनी आँखों से तोला था

नज़रों के टकराने भर से
चेहरे का जयपुर बन जाना
बहुत क्यूट था सच कहती हूँ
जानबूझ मुझसे टकराना

कितना कुछ कहना था तुमको
लेकिन बस साॅरी बोला था।

(चार)
आज सुबह से
गुड़िया का मुखड़ा
उदास है

गुड़िया, गुड़िया
को सीने से
लिपटायी है
भींच रही
मुठ्ठी अंदर से
घबरायी है

स्मृतियों ने
पहन लिया 
डर का लिबास है

छुवन-छुवन 
का अंतर
उसको
समझ आ रहा
बार-बार 
उसका घर
आना 
नहीं भा रहा 

डर से दूर
कहाँ जाए
डर आसपास है

सोच रही है
मम्मी को
सबकुछ 
बतला दूँ
एक चोट
भीतर है 
उसको भी
दिखला दूँ

पर क्या बोले
इस घर में वह
बड़ा खास है.
(पाँच)
हम पीपल हैं 
वनतुलसी हैं 
बार- बार उग ही आयेंगे

जंगल हो या 
कंकरीट वन
उपवन या फिर 
कोई निर्जन
कोई पाँव 
उखाड़े चाहें
जिजीविषा से 
हम जाते तन

बिना खाद,
पानी के उगकर
जीवटता से लहरायेंगे

चाहे धूप 
कड़ी हो तन पर
या भीषण 
वर्षा का हो डर
हमने हर मौसम 
स्वीकारा
जीवित रक्खा 
साँसों का स्वर

अपनी जड़ पर 
हमें भरोसा
हाथ नहीं हम फैलायेंगे

जीते आये 
देश बदलकर 
जीवन औ 
परिवेश बदलकर 
सिर्फ़ स्वार्थ ने
अपनाया है
ठगे गये हैं 
भेष बदलकर 

हम श्रम का
पर्याय रहे हैं
निश्चित है हम फिर छायेंगे।