गुरुवार, 23 मई 2024

कहाँ तुम चले गए : दादा माहेश्वर तिवारी जी को याद करते हुए



कहाँ तुम चले गए : दादा माहेश्वर तिवारी जी को याद करते हुये 
__________


              मनोज जैन

                    एक

                कुछ सत्य ऐसे होते हैं जो भले ही अकाट्य क्यों न हों पर उन्हें अपना भावुक मन मानने को जरा भी तैयार नहीं होता। यथार्थ और वस्तु स्थिति से अवगत होते हुए भी मनः स्थिति सत्य को जानते समझते हुए भी बार-बार झुठलाना चाहती है। ऐसा ही एक सत्य हमारे सामने दिनांक 16, अप्रैल 2024 को घटित हुआ जिसकी पहली सूचना मुझे देश के यशश्वी कवि और दादा के मन के अत्यंत निकट रहने वाले यश मालवीय जी के माध्यम मोबाइल फोन पर मिली " मनोज भाई एक बुरी खबर है, शायद आपको मालूम नहीं माहेश्वर जी अब हमारे बीच नहीं रहे!
     यह वही अकाट्य सत्य था जिसे जिसे मन मानने को कतई तैयार नहीं था। मैंने सबसे पहले दादा के मानस पुत्र अग्रज योगेन्द्र वर्मा व्योम जी की वाल स्क्रॉल की उनकी स्क्रीन पर यह दुखद समाचार देख कर मन बैचेन और अशांत हो गया।चित्त में उनके एक नवगीत की पंक्ति रह रह कर अंतरमन  को मथने लगी। 
       "एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है। बेजुवान छत दीवारों को घर कर देता है। ख़ाली शब्दों में/ आता है/ ऐसे अर्थ पिरोना/ गीत बन गया-सा/ लगता है/ घर का कोना-कोना/ एक तुम्हारा होना/ सपनों को स्वर देता है/ आरोहों-अवरोहों से/ समझाने लगती हैं/ तुमसे जुड़ कर चीज़ें भी/बतियाने लगती हैं/ एक तुम्हारा होना/ अपनापन भर देता है ।
              अकेला मुरादाबाद ही क्या पूरा देश ही दादा का घर था। इस नवगीत के मूल में दादा के ना होने की कसक हर उस मन को सालती है जो उनसे किसी न किसी बहाने एक बार मिला भर हो। दादा माहेश्वर तिवारी जी अब हमारे बीच नही हैं। यों तो मैं दादा के छोटे-छोटे मीटर के छोटे अधिकतम दो या तीन बंद के नवगीतों को उनसे मिलने के, एक दशक पहले से परिचित रहा हूँ, आज भी बहुत से उनके नवगीत अक्षरशः कंठस्थ हैं। दादा माहेश्वर तिवारी से मेरी पहली भेंट के बाद, यह दूसरी भेंट थी जो दिनाँक 21, फरवरी 2016 को, आरोही कला संस्थान, मुरादाबाद के एक आयोजन में हुई थी। अग्रज योगेन्द्र वर्मा व्योम जी के आमंत्रण पर मुझे आरोही कला संस्थान के भव्य कार्यक्रम में दादा के साथ मंच पर बैठने, पाठ करने, और उन्हें जी भरकर सुनने के साथ-साथ यहाँ के वरिष्ठ साहित्यकारों से मिलने का सुअवसर मिला था। यह यात्रा कई मायनों में यादगार साबित हुई। कहते हैं की यात्रा हमारे जीवन में बहुत से अनुभवों को जोडती है। बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मुरादाबाद की इस यात्रा से जुड़ा दादा के सन्दर्भ में कत्थई कलर का वह बहुत प्यारा श्वेटर याद आ रहा है, जिसमें दादा के मन की स्नेहासिक्त तरलता और संवेदनशीलता की विराटता के दर्शन होते हैं। सचमुच यह प्रसङ्ग हम सब के लिए भावुक करने के लिए काफी है साथ ही अनुकरणीय उदाहरण भी है।
              अग्रज आदरणीय योगेन्द्र वर्मा व्योम जी ने कार्यक्रम के कुछ दिन बाद मेरे पास कुछ फोटोग्राफ्स भेजे जिनमें से एक फोटो ने इस लेख को लिखते समय मुझे रुला दिया। दरअसल  कत्थई कलर के श्वेटर से जुड़ा प्रसङ्ग है जो मैंने स्वयं को फोटोग्राफ में पहने देखा जो, दादा माहेश्वर तिवारी जी ने मुझे जिद करके पहनाया था। उस दिन अचानक मौसम बदल गया। मुझे कँपकपाते देख यह बात मन ही मन ताड़ ली दादा उठे और सीधे ऊपर वाले हॉल में ले गये, जहाँ दादा ने अपनी एक अलमारी में बहुत सारे श्वेटर सम्हालकर रखे थे। दादा ने अलमारी खोली और मेरे सामने श्वेटरों का ढेर सारा अम्बार लगाते हुये कहा, "पहले अपना बचाव फिर कविता! चलो, इनमें से कोई सा भी श्वेटर जल्दी से पहनो लो मौसम ठंडा है और तुम्हें कार्यक्रम के ठीक बाद निकलना भी है।" लौटने की जल्दी इसलिए थी की ठीक अगले दिन मुझे अपने एक रिलेटिव के यहाँ समारोह में पहुचना था और इस दृष्टि से मेरे पास समय बहुत कम था।
           दादा की तरल संवेदना से जुड़ा यह संस्मरण, मुझे प्रसंगवश अग्रज योगेंद्र वर्मा व्योम जी ने आज फिर, सात साल बाद याद दिला दिया। आरोही कला संस्थान मुरादाबाद के इस आयोजन का, आमन्त्रण आदरणीय योगेन्द्र वर्मा व्योम जी के माध्यम से ही मेरे पास आया था। मुरादाबाद के अनेक चर्चित साहित्यकारों सर्वश्री कृष्णकांत नाज़ साहब , आनन्द गौरव जी, जिया ज़मीर साहब सहित अनेक गणमान्य जिन्हें पत्र पत्रिकाओं सहित मुरादाबाद की साहित्यिक गतिविधियों में पढ़ने का सौभाग्य समय समय पर मिलता रहा उन सभी विभूतियों से मिलने का सुयोग यहीं बना।
                 कार्यक्रम के उपरान्त भोपाल वापसी के लिए, देर रात बस तक ड्राप करने हमारे एक और अनन्य आत्मीय साहित्यिक मित्र डॉ.अवनीश सिंह चौहान जी से कार्यक्रम स्थल से बसअड्डे तक की वार्ता आज भी जस की तस स्मृतियों में बनी हुई है। एक तरलता ही तो है, जो हमें परस्पर जोड़े रहती है। यह तरलता हमारे मध्य आज भी जस की तस है। अब दादा सशरीर हमारे मध्य भले ही न हों पर उनकी अनन्त स्मृतियां जस की तस हैं।
          माहेश्वर तिवारी जी का फोन अक्सर आता और वे सबकी खबर लेते हाल-चाल पूछते। मीठे स्वर में उनकी वार्ता के नवगीत का अक्सर पहला मुखड़ा यही होता था।  "बहु बच्चे कैसे हैं?"
          "और सब ठीक तो है न" 
           और फिर अगले अंतरों में 
भोपाल साहित्य जगत के क्या हाल चाल हैं? 
डॉ.रामवल्लभ आचार्य जी कैसे हैं कभी कभार तांतेड़ जी का भी पूछते ? 
       बगैरह बगैरह, वार्ता क्या पूरा गीत का माधुर्य होता था उनकी बातचीत में।
            सिर्फ मेरे ही नहीं, पूरे परिवार के, और पूरा परिवार ही क्या पूरे भोपाल की खैर खबर लेते दादा की वार्ता 'थीक है' वाक्य की चार-पाँच बार की पुनरावृति पर समाप्त होती।
   एक बड़ा रचनाकार वही होता है जो निष्प्रह भाव से परवर्ती, पूर्ववर्ती और अपने समकालीनों
यानी तीन पीढ़ियों के त्रिकोण में स्वाभाविक सम्यक संतुलन साधने की कला में निष्णात हो। दादा के व्यक्तित्व में यह बात थी। नवगीत के मामले में वे ट्रेन्ड सैटेर नवगीतकार थे,जो लिखा पुख्ता लिखा, और ऐसा लिखा कि लिखे का विस्तार सैकड़ों रचनाकारों की पंक्तियों मिल जाएगा।
              यह बात प्रसंगवश नहीं कह रहा हूँ बल्कि इसे पुख्ता प्रमाण के तौर पर भी कहना चाह रहा हूँ। फेसबुक पर आज के चर्चित वागर्थ समूह और वागर्थ ब्लॉग के आरम्भिक रूप चित्र में, मैंने (दादा के साथ कॉफी पीते हुए) तस्वीर जोड़ी थी। यह विशेष क्लिप हमें योगेन्द्र वर्मा व्योम जी के मोबाइल से मिली थी। वागर्थ के इस रूप चित्र को मैं दादा का आशीर्वाद ही मानता हूँ।आज समूह वागर्थ के स्तर की धमक पूरे देश में है यहाँ तक की देश से बाहर अनेक देशों में वागर्थ समूह पढ़ा जाता है। दादा वागर्थ के अनन्य प्रसंशकों में से एक थे। हमनें दादा के नवगीतों के साथ साथ समकालीन दोहों की कुछ पोस्ट समूह में जोड़ी जिनको मुक्तकण्ठ से सराहा गया। सोशल मीडिया पर दादा की उपस्थिति उनके स्वस्थ्य रहने तक बनी रही। वे निरन्तर अपनी वाल से लेकर विभिन्न समूहों में आवाजाही करते और अच्छा लगने पर टिप्पणियाँ भी करते थे उनकी सघन टिप्पणियाँ संग्रहनीय है और अब तो धरोहर भी वागर्थ उनका प्रिय समूह था जिसकी प्रसंशा वे मुक्तकण्ठ से किया करते थे। मुझे याद है जब उन्होंने वागर्थ समूह में उन्हीं के शहर मुरादाबाद की युवा कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर के नवगीत पढ़े और उन गीतों की सराहना की।
निःसन्देह इस सराहना ने मीनाक्षी ठाकुर को और बेहरत रचने के लिए प्रेषित किया है।
      ऐसा ही एक प्रसङ्ग मुझे कुछ वर्षों पहले का आता है जब जागरण में माहेश्वर जी का एक साक्षात्कार पढा था जिसमे उन्होंने नवगीत के क्षेत्र में उभरने वाली नई सम्भावनाओं में चार छह नाम लिए थे जो आज नवगीत के क्षेत्र में अपना श्रेष्ठ प्रदान कर रहे हैं। इन नामों में हमारे शहर के युवा नवगीतकार चित्रांश बाघमारे भी एक हैं जिन्हें दादा का आशीर्वाद मिला सिर्फ चित्रांश ही अनेक नवोदितों और स्थापितो का नाम माहेश्वर जी लिया करते थे प्रकारान्तर से कहें तो उनके के सृजन को सम्मान दिया करते थे। इसीलिए दादा बड़े थे।

                          दो
       संचारक्रांति के चलते सोशल मीडिया पर साहित्यिक उपस्थित पिछले दो ढाई दशकों में बहुत ज्यादा बड़ी है। हम में से हर एक के पास एंड्रॉइड फोन और टच स्क्रीन पर सॉफ्ट साहित्य का अनन्त रंगीन संसार उपलब्ध है। मैंने भी लोगों की साहित्यिक  अभिरुचि और सक्रिय उपस्थित पर मंथन किया और दो समूहों की स्थापना ठीक आज से दस से पहले की ।
            पहले साहित्यकारों को व्हाट्सएप्प समूह से जोड़ कर उन्हें सद्साहित्य परोसा फिर उन दोनों समूहों को पाठकों की अभिरुचि और बढ़ती सँख्या को देखकर उन्हें 'वागर्थ' और 'अंतरा' समूह से जोड़ दिया आज दोनों समूहों में पाठक सदस्यों की संख्या पाँच अंकों में है और जोड़ी जाने वाली पोस्ट को देखने पढ़ने वालों की संख्या देश विदेश में लाखों से ऊपर है। अकेले ब्लॉग वागर्थ में ही 50,000 पृष्ठों की सामग्री इन दोनों समूहों से उठाकर हमनें जोड़ी है। इन दोनों समूहों हमें और ब्लॉग वागर्थ को दादा माहेश्वर तिवारी जी का प्रत्यक्ष और परोक्ष आशीर्वाद था।
उनकी सैकड़ों टिप्पणियाँ इस बात का पुख़्ता प्रमाण हैं। द्रष्टव्य है दादा माहेश्वर तिवारी जी द्वारा समूह वागर्थ जोड़ी गई एक महत्वपूर्ण टिप्पणी
       प्रिय मनोज जैन, वागर्थ में श्रद्धेय अग्रज स्मृतिशेष उमाकांत मालवीय के गीतों को प्रस्तुत करके एक और उल्लेखनीय कार्य किया है। डॉक्टर शंभूनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह ,वीरेंद्र मिश्र और उमाकांत मालवीय जैसे लोगों को छोड़कर नवगीत की कोई पीठिका ही नहीं होती। ये लोग नवगीत की जययात्रा के रथ की वे धुरी और पहिए हैं जो एक तरफ उसकी अनवरत गति के आधार और विजययात्रा के नायक भी रहे अपनी अपनी रचनाधर्मिता के साथ ।
     उमाकांत मालवीय जी की जो अपार स्नेहयुक्त कुटुम्बवत आत्मीयता मिली उसने हम जैसे कई लोगों को अपनी रचनाधर्मिता के लिए नई ऊर्जा मिली । उनके व्यक्तित्व की यह विशिष्टता रही की किसी नये रचनाकार को सुनते और कुछ अच्छा लगता तो वह उनके स्मृतिकोष में जमा हो जाता और मिलने पर उसके अंश हमें सुनाते ।
       मेहंदी और महावार के गीतों से अलग थी उनके दूसरे संग्रह सुबह रक्त पलाश की भाषा और गीतों में शामिल सरोकार ।मेहंदी और महावार में एक अलग तरह की सौंदर्य दृष्टि और भाषा है तथा सुबह रक्त पलाश में अलग ।इसी तरह मेहंदी और महावार में लोक संस्कृति के प्रति लगाव है तो मेहंदी और महावार में एक वयस्क सामाजिक,राजनीतिक चिंतक का रूप सामने आता है । एक बात ध्यान में रखने की है की मालवीय जी शासकीय सेवा में थे और देश में प्रजातंत्र एक आंधी में घिरा था वे प्रजातंत्र पर चोट करने वालों को वैचारिक प्रतिरोध से भरे गीत लिख रहे थे एक जोखिम उतार हुए और उसके लिए उनके वार्षिक वेतन में होने वाली वृद्धि रोक दी गई लेकिन वे रुके नहीं और झूले एमबीएचआई नहीं क्योंकि वे तनी रीढ़ के व्यक्ति थे इसीलिए मैंने उनके लिए लिखा था हिंदी नवगीत का पौरूषेय बोध। वागर्थ में प्रस्तुत उनके गीतों में यह पढ़ा जा सकता है। यह उमाकांत मालवीय ही थे जो खबरों जैसी घटनाओं को गीतकविता बना देते थे 
        आ गया प्यारा दशहरा
        भेंट लाया हूं तुम्हारे लिए बेटे,
        पुलिस की मजबूत बूटों से
        अभी कुचला गया 
        ताजा ककहरा
       यामेज साफ करने को
       रह गईं ध्वजाएं
                        माहेश्वर तिवारी
(वागर्थ की वाल से साभार 
माहेश्वर तिवारी जी की टिप्पणी)
     दादा की टिप्पणियाँ बहुत कुछ कहती हैं और इसमें कहने से ज्यादा अनकहा रह जाने की कसक भी स्पष्ट देखी जा सकती है। इसी क्रम में हम दादा के नवगीत पाठकों के लिए जोड़ते गए और ब्लॉग में संग्रहित भी करते गए।
       1जून 2020 को हमनें दादा के गीत जोड़े। इन गीतों पर उनके पाठकों ने सैकड़ों टिप्पणियाँ जोड़ी और उनको पोस्ट को 88 लोगों ने अपनी अपनी वाल पर शेयर किया। यहाँ पाठकों के लिए हम उनकी चयनित पस्टों को पाठकों की चयनित
    टिप्पणियों के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं
 1
  माहेश्वर तिवारी जी के नवगीतों के बहाने
_____________________________
       समूह वागर्थ प्रस्तुत करता है अपने समय के सबसे ज्यादा चर्चित नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत 
            प्रस्तुत नवगीतों में कवि की पंक्ति-पंक्ति में कविता है जिसे ढूँढना नहीं पड़ता। जबकि हमारे यहाँ ऐसे-ऐसे धुरन्धर विराजमान हैं, जिनके कहने को तो छह दर्जन संग्रह हैं, लेकिन उनके यहाँ ढूँढने से भी उनकी पूरी नवगीत यात्रा में बमुश्क़िल से 15 पँक्तियाँ भी नहीं है। ऐसे फर्जी गुरुओं के सक्रिय चेलों नें उन्हें तमाम साहित्य के  विभूषणों से घोषित कर रखा है।
   बहरहाल ऐसे गुरु और शिष्य दोनों को माहेश्वर तिवारी जी को पढ़ना चाहिए। प्रस्तुत है अपने समय के सबसे ज्यादा चर्चित और चमकदार नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत 

प्रस्तुति
वागर्थ
सुनो सभासद
__________

सुनो सभासद
हम केवल
विलाप सुनते हैं
तुम कैसे सुनते हो अनहद

पहरा वैसे
बहुत कड़ा है
देश किन्तु अवसन्न पड़ा है

खत्म नहीं
हो पाई अब तक
मन्दिर से मुर्दों की आमद

आवाजों से
बचती जाए
कानों में है रुई लगाए

दिन-पर-दिन है
बहरी होती जाती
यह बड़ बोली संसद

बौने शब्दों के
आश्वासन
और दुःखी कर जाते हैं मन

उतना छोटा
काम कर रहा
जिसका है जितना ऊँचा कद

दो

घर जैसे

खुद से खुद की
बतियाहट
हम, लगता भूल गए ।

डूब गए हैं
हम सब इतने
दृश्य कथाओं में
स्वर कोई भी
बचा नहीं है
शेष, हवाओं में

भीतर के जल की
आहट
हम, लगता भूल गए ।

रिश्तों वाली
पारदर्शिता लगे
कबंधों-सी
शामें लगती हैं
थकान से टूटे
कंधों-सी

संवादों की
गरमाहट
हम, लगता भूल गए।

माहेश्वर तिवारी 
दिन पर दिन है
बहरी होती जाती
यह बड़बोली संसद।।।
और
संवादों की 
गरमाहट हम 
लगता भूल गए।।
                         दोनों ही महत्वपूर्ण बहुत उल्लेखनीय और विचारणीय नवगीतों की यह अभिनव प्रस्तुति पटल के वातावरण को और भी ज्यादा सार्थक बनाती है। बहुचर्चित बहुप्रशंसित गीतकार आदरणीय श्री माहेश्वर तिवारी जी सहज सरल शब्दों की जादूगरी से लाजवाब बहुत विचारणीय और मर्मस्पर्शी गीत रचना करने में सिद्ध हस्त हैं। उनके महत्वपूर्ण नवगीतों में सहज सरल शब्दों का भरपूर इस्तेमाल हुआ है फिर भी उनकी प्रभावशीलता प्रशंसनीय और विचारणीय हैं। इन गीतों को प्रस्तुत करने के लिए मैं वागर्थ के  प्रमुख संस्थापक आदरणीय मनोज जैन जी का आभार और धन्यवाद ज्ञापित करना चाहूँगा।
     मुकेश तिरपुड़े
_______________

           वैसे नहीं, ऐसे गीतों से नवगीत समृद्ध हुआ है । वागर्थ का आभार अग्रज माहेश्वर जी के इन गीतों की प्रस्तुति के लिए।
        विनोद श्रीवास्तव कानपुर


दो


6 दिसम्बर 2020
_______________

कल तलक सुनते रहे जो आज बहरे हैं यशस्वी कवि दादा माहेश्वर तिवारी जी के दो गीत

     यश के महत्व को प्रतिपादित करती हुई एक सूक्ति पर कल मेरा ध्यान गया उस समय गया जब मैं भोपाल के भेल औधोगिक क्षेत्र से अपनी गाड़ी की सर्विसिंग कराने के उपरान्त घर लौट रहा था। सूक्ति का सार कुछ इस तरह था मनुष्य को यश की प्राप्ति बड़े पुण्यों से होती है, और पुण्य सद्कर्म और साधना का ही परिणिति है। दादा माहेश्वर तिवारी जी नवगीत के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। उनकी विचार धारा जन तक सम्प्रेषित होती है। विचारधारा के स्तर पर वे असमानता को जड़ से मिटा देने के पक्ष में हैं उनकी कविता जनधर्मी है यहाँ प्रस्तुत दादा के दोनों नवगीतों में प्रतिरोध के मद्धम नही अपितु तीखे स्वर हैं।
        प्राकृतिक प्रतीकों और बिम्बों से जनपक्षधरता उकेरना दादा माहेश्वर जी के बूते की ही बात हो सकती है। बेजोड़ प्रतीकों और बिम्बों के नायाब रचनाकार को प्रणाम नमन अपनी रचनाधर्मिता को जनपक्ष में समर्पित करके दादा अनायास ही अक्षय पुण्य के कोष से सदैव भरे रहते हैं और यही कोष उनके यश का एकमात्र राज है आइये पढ़ते हैं यशभारती सम्मान से विभूषित दादा माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत
प्रस्तुति
मनोज जैन

हँसो भाई पेड़ 
__________
कहती है दूब
हँसो भाई पेड़ 
बाहर जितना देखते हो 
धरती में 
धसो भाई पेड़ ।

जड़ें बहुत गहरे ले जाओ 
यहाँ वहाँ उनको फैलाओ
चील की तरह बाहों पंजों में 
आंधी को 
कसो भाई पेड़

चील किसे देती है सोचो 
आसमान गुर्राए तो नोचो 
गीत की तरह हरियाली पहनो 
जन-जन में 
बसो भाई पेड़।
2
चीख बनते जा रहे
हम सब खदानों की 
हो गए हैं शोकधुन 
बजते पियानो की

कल तलक सुनते रहे जो 
आज बहरे हैं 
आँसुओं के बोल जिनके-
पास ठहरे हैं
जिंदगी अपनी हुई है 
मैल कानों की 

देखते जब शब्द के 
बारीक  छिलके खोल 
देश लगता रह गया 
बनकर महज भूगोल 

एक साजिश है खुली
ऊंचे मकानों की।
           माहेश्वर तिवारी

आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी के नवगीतों में तरलता, सरलता और उत्कृष्टता का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। उनके नवगीत सीधे दिल में उतर जाने का हुनर रखते हैं। उन्हें सादर प्रणाम।
मृदुल शर्मा,  लखनऊ
________________

श्रद्धेय दादा माहेश्वर तिवारी जी वर्तमान में नवगीत के हिमालय हैं.दादा को पढ़ना और सुनना हमेशा मन को सुख देता है.दादा को सादर प्रणाम.लेख और गीत साझा करने हेतु आपका हार्दिक आभार.
रघुवीर शर्मा, खंडवा
_______________

दोनों गीत मर्मस्पर्शी भीतर तक आन्दोलित करते हैं दादा को चरणवन्दन। मनोज जी आपकी इस 
काव्य प्रस्तुति परम्परा को प्रणाम।
    रमेश गौतम,  बरेली उत्तरप्रदेश
___________________________
                    नवगीत विधा में देश के  सबसे सशक्त और वरिष्ठ हस्ताक्षर आ.माहेश्वर तिवारी जी के दोनों ही गीत आज के समय की त्रासद  सामाजिक व्यवस्था का प्रतिबिम्ब भी हैं और उनके खिलाफ सशक्त स्वर भी। 
    तिवारी जी के गीत अपने शिल्प, कथ्य भाषा और छंद से अपनी अलग पहचान रखते हैं। उन्हें पढ़ने और विशेषकर दादा तिवारी जी से साक्षात सुनने का आनन्द और अनुभूति ही कुछ और है। आदरणीय तिवारी जी की लेखनी को प्रणाम। 
          और मनोज जी को साधुवाद इतनी अच्छी पोस्ट के लिए

        माहेश्वर जी के नवगीत पढ़ने के बाद मुझको घरबाहर का परिसर  सामान्य ही नहीं, कोमल और मोहक भी दिखने लगा। माहेश्वर नवगीत  लिखकर मनःस्थिति और परिस्थिति भी बनाते हैं इनके गीत मनुष्यता के पर्याय हैं। ऐसा गीत लिखना सामान्य बात नहीं है। इन गीतों से नवगीत का मान बढ़ा है ।
शांति सुमन

तीन

        माहेश्वर तिवारी जी की मूल पहचान भले ही नवगीतकार के रूप में क्यों न रही हो पर उन्होंने
 नवगीत से इतर  ग़ज़ल भी कही है और समय की हाथ पर नब्ज़ रखते हुए समकालीन दोहे भी लिखे हैं। कुछ समय पहले मैंने अपनी वाल पर समकालीन दोहों की एक सीरीज़ चला रखी थी जिसमें एक दोहाकार के कम से दस दोहे और अधिकतम बीस दोहे पाठकों के समक्ष रखते थे
यह सीरीज़ चल पड़ी और दस कड़ियों से लेकर पन्द्रह कड़ियों तक हमें प्रकाशित करने के लिए अच्छी सामग्री मिली बाद में हमारे पास दोहे के नाम पर बहुत रद्दी सामग्री मिलने लगी और लोग सम्बन्धो के आधार पर हमारी श्रंखला में येन केन प्रकारणेन शामिल होने की जुगत में रहते हमनें माहेश्वर तिवारी जी के मानक दोहे प्रस्तुत कर सीरीज को अघोषित विराम दे दिया।

  7, जून 2021 को समूह में कड़ी के प्रकाशित होते ही समूह वागर्थ धड़ाधड़ शेयर किया जाने लगा। देखें दोहों का स्तर और दोहों पर टिप्पणियाँ

           माहेश्वर तिवारी

समकालीन दोहा चौदहवीं कड़ी
_______________________
दादा माहेश्वर तिवारी 
_______________
समकालीन दोहा में आज दूसरे पड़ाव की चौथी कड़ी में प्रस्तुत हैं प्रख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी के चुनिन्दा दोहे
             बहुत कम लोग ऐसे होते हैं  जिनकी लेखनी का परस पाकर सृजन सोने में बदल जाता है। दादा माहेश्वर तिवारी जी उनमें से एक हैं, जिनका सारा सृजन चमकदार है। चाहे नवगीत हों या दोहे उनके यहाँ क़्वान्टिटी की अपेक्षा क़्वालिटी वर्क ज्यादा है। प्रस्तुत समकालीन दोहे भी आज के लिखे नहीं हैं परन्तु आज जो लिखा जा रहा है उन दोहाकारों को, अपने सृजन को मापने का पैमाना जरूर हैं। अस्सी के दशक में दोहा कितनी ऊँचाईयों पर था इसका अंदाजा कम से कम इन दोहों को पढ़कर लगाया जा सकता है। दादा माहेश्वर तिवारी जी अपने आपको मूलतः गीत कवि ही मानते हैं और इस बात को लेकर स्वधर्मे निधनं श्रेयः की हद तक प्रतिबद्धता उनके यहाँ देखी जा सकती है।
हाँ, यदि उन्हें आस्वाद परिवर्तन के लिए गीत के अलावा कुछ लिखना भी हो तो वे स्तर से कम्प्रोमाइज नहीं करते। हम सब उनकी इस प्रस्तुति से यही प्रेरणा ले सकते हैं।
        दोहा छन्द को लेकर यश मालवीय जी के कथन को दोहराना समीचीन होगा वे कहते हैं कि " दो पंक्तियों में बड़ी बात कहना छोटे फ्रेम में आसमान मढ़ने जैसा है "। आइए पढ़ते हैं दो पंक्तियों के कैनवास में सुरमई आसमान जड़े दोहे।

   प्रस्तुति
 मनोज जैन
   वागर्थ

  उधर साजिशों के नये, बुने जा रहे जाल
   ____________________________

वस्त्र पहनकर गेरुआ, साधू सन्त फकीर ।
नये मुकदमों की पढ़ें, रोज नयी तहरीर।।

परिवर्तन के नाम पर, बदली क्या सरकार ।
रफ्ता रफ्ता हो रहा ,पूरा देश बिहार ।।

चिन्तित हैं शहनाइयाँ, गायब हुई मिठास ।
बिस्मिल्ला के होंठ की,पहले जैसी प्यास ।।

रिश्तों  के बदले हुए, दिखते सभी उसूल ।
भैया कड़वे नीम- से,दादी हुई बबूल ।।

आँखों में दाना लिये, पंखों में आकाश ।
जाल उठाए उड़ गया, चिड़ियों का विश्वास ।।

दाने -दाने के लिए,चिड़िया है बेहाल ।
उधर साजिशों के नये ,बुने जा रहे जाल।।

मूल प्रश्न से हट गया,जब से सबका ध्यान ।
सूरज बाँटे रेवड़ी,चाँद चबाये पान।।

क्या सपने क्या लोरियाँ,खाली-खाली पेज ।
जिनकी नींदों को मिली,फुटपाथों की सेज ।।

लाकर पटका समय ने, कैसे औघट घाट।
अनुभव तो गहरे हुए, कविता हुई सपाट।।

शामें लौटीं शहर की,अंग लपेटे धूल।
सिरहाने रख सो गयीं, कुछ मुरझाये फूल।।

कैसे कैसे लोग हैं,कैसे कैसे काम ।
जाकर कुंज-करील में, ढूँढ रहे हैं आम।।

खुश है रचकर सीकरी,नया -नया इतिहास।
हैं उसके दरबार में,हाज़िर नाभादास।।

भोग रहे इतिहास का,हैं अब तक दुर्योग।
तक्षशिला को जा रहे,नालन्दा के लोग।।

पुल की बाँहों में नदी,मछली-सी बेचैन।
अनहोनी के साथ सब ,दे बैठी सुख-चैन।।

बरगद से लिपटी पड़ी, है बादल की छाँह।
घेरे बूढ़े बाप को, ज्यों बेटे की बाँह।।

तन की प्रत्यंचा खिंची, चले नज़र के तीर।
बच पाया केवल वही,मन से रहा फकीर।।

लाक्षागृह सबके अलग,क्या अर्जुन क्या कर्ण।
आग नहीं पहचानती, पिछड़ा दलित सवर्ण।।

सारंगी हर साँस में, मन में झाँझ मृदंग।
फागुन आते ही हुए, साज हमारे अंग।।

एक आँख तकती रही, दूजी रही उदास।
इन दोनों में ही बँटा, जीवन का इतिहास।।

खुली पीठ से बेंत का ,ऐसा हुआ लगाव।
लिये सुमरनी हाथ हम, गिनते कल के घाव।।


     सचमुच यह दोहे ख़ुशबू के शिलालेख हैं, मेरे समेत दोहों के उत्पादन में लगे तमाम दोहाकारों  को इन दोहों से सीखना चाहिए और दोहा नियोजन करना चाहिए ताकि इस विधा में लोगों की आस्था बनी रहे।कम लिखें और अच्छा लिखें का संकल्प लेना चाहिए,इन काल का अतिक्रमण करते दोहों से। आम आदमी के माथे की सलवटों-शिकनों से सीधा सरोकार रखते यह दोहे हमारी उजली परम्परा के संवाहक हैं।
यश मालवीय
               आदरणीय माहेश्वरी तिवारी जी वर्तमान में नवगीत के बड़े स्तंभ हैं। उनके नवगीतों में जो एक अलग सी महक है वही इन दोहों में भी रची-बसी है। यही तिवारी जी को आदर्श रूप में खड़ा करती है।जिन रचनाकारों की अपने भीतर की महक रचनाओं में महकने लगती है, वही बड़े रचनाकार कहाते हैं। क्या दोहे हैं? इनमें चमत्करण बैठा है। इन पर तो बस सोचते रहो, जब-तक सोच सको।
"मूल प्रश्न से हट गया,जब से सबका ध्यान।
सूरज बांटे रेवड़ी, चांद चबाये पान।।"
          मैं तो इसी में जमा पड़ा हूं।
आदरणीय भाई साहब आपको और आपकी मारक लेखनी को प्रणाम।
              मक्खन मुरादाबादी

                जीवन में साधन चतुष्टय- धर्म अर्थ काम मोक्ष की सीढ़ियां चढ़ने पर जब धर्म के सार्थक निर्वहन से अर्थोपार्जन उपरान्त काम (कर्म) के प्रति समर्पित होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है तो जो आनंद आता है आज उसी आनंद की अनुभूति हो रही है मधुर दोहावली की चौदहवीं प्रस्तुति में। दोहा सृजन के परिप्रेक्ष्य में देखें तो उपर्युक्त विवेचन अपने मंतव्य को स्वत: ही प्रमाणित कर देता है। "एक तुम्हारा होना ही क्या से क्या  कर देता है, " यह पंक्ति आज की प्रस्तुति के मूलाधार में समाहित है।  आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी से प्रत्यक्ष भेंट शिवपुरी में आयोजित नवगीत पुरस्कार वितरण समारोह में हुई थी, उनके मुख से झरते गीत-नवगीत की वर्षा ने ऐसा रसविभोर किया था कि उसकी मिठास आजतक महसूस हो रही है। अग्रज यशमालवीय जी के कथन से मैं पूर्णतः सहमत हूं और दोनों हाथ उठाकर यह कहने मैं कोई संकोच भी नहीं कर रहा हूं कि सुरमयी आसमान में जड़े दोहे अपनी आभा से क्षितिज को दैदीप्यमान कररहे हैं। श्रध्देय तिवारी जी के दोहे धर्म के मर्म को बेधते हुए राजनैतिक परिदृश्य पर तीक्ष्ण दृष्टिपात करते हुए मानवीय रिश्तों में आई बदलाव की बयार से परिवार को न बचा पाने की पीड़ा को अभिव्यंजित करने में सफल रहे हैं। दोहा दृष्टव्य है-- रिश्तों के बदले हुए,दिखते सभी उसूल। भैया कड़वे नीम से,दादी हुईं बबूल। अपनी आस्था-विश्वास की सामर्थ्य को सर्वोच्च स्थान प्रदान करते हुए उसे "श्रध्दा विश्वास रूपिणौ " परमसत्ता का मान दे दिया जो असंभव को भी संभव कर देता है-- आंखों में दाना लिए, पंखों में आकाश। जाल उठाये उड़ गया, चिड़ियों का विश्वास।  मात्र दो पंक्तियों में अनूठा बिम्ब संयोजन जो व्यंजना शब्दशक्ति और वक्रोक्ति का अनुपम उदाहरण बन गया जिसे सिर्फ और सिर्फ माहेश्वर तिवारी जी ही सृजित कर सकते हैं-- मूल प्रश्न से हट गया जब से सबका ध्यान।  सूरज बांटे रेवड़ी, चांद चबाएं पान। , जबकि मुहावरा है अंधा बांटे रेवड़ी। श्रमिक वर्ग के असहनीय दर्द को अपनी लेखनी की शक्ति से अमर करने वाला दोहा- क्या सपने क्या लोरियां,खाली खाली पेज। जिनकी नींदों को मिली फुटपाथों की सेज। अविस्मरणीय है। ऐतिहासिक संदर्भ हों या प्रकृति का मानवीकरण, श्रृंगार का रसमय आकर्षण हो या मन फकीरी का साधन,अगड़े पिछड़े वर्ग की आरक्षण की तात्कालिक समस्या, रचनाकार ने अपनी लेखनी से अनछुआ नहीं रहने दिया। और फिर जीवन की सांध्यवेला का मार्मिक चित्रण कर मन के घावों को सहलाने तथा बेंत और सुमिरनी से साथ निभाने का मूल मंत्र भी दे दिया-- खुली पीठ से बेंत का , ऐसा हुआ लगाव, लिए सुमिरनी हाथ हम, गिनते कल के घाव। यह कहकर दोहाकार अपने लेखिकीय दायित्व से उऋण होने का प्रयास भी कर गया।  गीत ऋषि माहेश्वर तिवारी जी के सृजन सामर्थ्य को सादर प्रणाम करते हुए भाई मनोज जैन मधुर जी की मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा पूर्ति की शुभेच्छा है। 
वागर्थ पटल की टीम को साधुवाद। 
               डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी

                 परम आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी जितने समर्थ साहित्यकार हैं उससे बड़े वो नेक व संवेदनशील रचनाकार हैं जो हर समय साहित्य के नए रचनाकारों को दिशा दिखाने व उनकी हर अच्छी बात पर खुली तारीफ़ करके उनका उत्साहवर्धन करते हैं। आपके दोहे आपके गीत सभी कालजयी रचना हैं यहाँ पर (१)लाक्षागृह का दोहा(२)बरगद से लिपटी पडी(३)पुल की बाँहों में नदी(४)मूल प्रश्न से हट गया(५)वस्त्र पहनकर गेरुआ ये सभी दोहे  आप भुलाना चाहें तब भी आपकी मन की देहरी अपनी उपस्थिति दर्ज एक लम्बे समय तक कराते रहेंगे। ऐसे ही लेखन के कारण मुझ जैसे न कितने रचनाकारों के आप प्रेरणादायी हैं व सदैव रहेंगे 

 डॉ  अजय जनमेजय
________________

                     बहुत अलग तरह के दोहे सच्ची कविता के आस्वाद में नहाए हुए। दोहों की ऐसी खुशबू केवल यश के दोहों में मिलती है। सच कहा  यश कह दें तो फिर कुछ और कहना बिना पेट्रोल की गाड़ी हांकना है। 
सचमुच यश जी ये दोहे खुशबू के शिलालेख हैं।
                 डॉ ओम निश्चल

             आदरणीय तिवारी जी प्रयोगधर्मी कवि हैं और उनकी यह प्रयोगधर्मिता हर विधा मे परिलक्षित है बिम्बो प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त करने मे वे सिद्धहस्त हैं सूरज बाटे रेवडी, चांद चबाये पान जैसे अनूठे प्रयोग करना आपका शगल है नई पीढी के प्रेरणास्रोत दादा को प्रणाम निवेदित कर मनोज जी को अप्रतिम दोहे प्रस्तुत करने के लिए कोटिशःसाधुवाद प्रेषित है।

          डॉ.विनय भदौरिया
                 सूरज बांटे रेवड़ी चांद चबाए पान। क्या बात है...दादा माहेश्वर जी के शब्दों में छंद स्वयं अपनी पूरी संवेदना को समेटकर बिंध जाता है। 
भारतेंदु मिश्र 
                 सभी दोहे श्रेष्ठ हैं। यह दोहा तो कमाल का है -- "ख़ुश है रच कर सीकरी..... हाज़िर नाभादास।।" 
आदरणीय माहेश्वर भाई साहब को प्रणाम!
       डॉ सुभाष वसिष्ठ
            इन दोहों की प्रस्तुति पर माहेश्वर तिवारी जी अपनी ओर से वागर्थ के पाठकों के लिए अपनी तरफ से एक महत्वपूर्ण टिप्पणी वागर्थ के पटल पर जोड़ी थी जो यहाँ जस की तस चस्पा है।  "अपने सभी आत्मीय तथा स्नेह देकर मेरे लेखन को सराहने और प्रोत्साहित करने वालों के प्रति हार्दिक आभार। मनोज जैन को धन्यवाद देना उसे अपने से कुछ दूर खिसका देने जैसा है। यश और ओम निश्चल, भारतेन्दु मिश्र, सुभाष वशिष्ठ की टिप्पणियाँ आगे के लेखन के लिये चुनौतियों जैसी है कि अब आगे सीढ़ी से उतरने की सोची तो खैर नहीं। अन्य पारखी और प्रबुद्धजनों के प्रति भी आभार।"
              माहेश्वर तिवारी
 1, दिसम्बर 2022 को वागर्थ समूह में जोड़ी गई एक पोस्ट वागर्थ समूह  से साभार। माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत समय के प्रख्यात नवगीतकार दादा माहेश्वर तिवारी जी के दो नवगीत 1964 में, बस्ती प्रवास के दौरान रचे इन नवगीतों में आज भी सौंधी मिट्टी की सुगन्ध जस की तस मौजूद है। अपनी बोली-बानी में बतियाते इन नवगीतों में आकुल मन की व्यथा के साथ-साथ समूचा परिवेश समाहित है। इन नवगीतों में एकाकीपन और ऊब की सहज और चित्ताकर्षक अभिव्यक्ति देखने मिलती है। दोनों नवगीत "हरसिंगार कोई तो हो" से साभार  हैं।
अकेलापन
_________
तना जाले-सा
अकेला पन
कहाँ, तक झेले 
अकेला मन

किसी ठहरी 
झील-सा
हिलता नहीं तिनका
साथ हम 
कब तक निभाएँ
अधमरे दिन का

कट नहीं पाता 
नसों में 
उगा नंगा पन

थक गया है
बाँस वन की
सीटियों का मौन
आहटों में 
चुप्पियों को
सिल गया है कौन

दिशाओं में 
झूलता है
क्षितिज का बन्धन

दो
सारे दिन
__________

सारे दिन 
पढ़ते अखबार
बीत गया 
यह भी इतवार

गमलों में 
पड़ा नहीं पानी
पढ़ी नहीं गई 
संत वाणी

दिन गुजरा 
बिलकुल बेकार
सारे दिन 
पढ़ते अखबार

पुँछी नहीं
पत्रों की गर्द
खिड़की-
दरवाजे बेपर्द

कोशिश की है 
कितनी बार
सारे दिन 
पढ़ते अखबार

मुन्ने का 
तुतलाता गीत
अनसुना गया
बिलकुल बीत

कई बार 
करके स्वीकार
सारे दिन 
पढ़ते अखबार

माहेश्वर तिवारी         
बैंकटेश्वर मिश्र
____________
बहुत खूब ! आदररणीय चाचा जी ( माहेश्वर तीवारी जी ) बस्ती ( मिश्रौलिया, बस्ती ) मेरे घर पर  लगभग 1662--19667 रहे है । प्रसिद्ध गीत " याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलस भरे  ---- । जैसे कई चर्चित गीत लिखे गये थे   कई संस्मरण  हैं ।  बस्ती की चरचा करने हेतु साधुवाद ।
                  नवगीत के पुरोधा कवि है आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी अभिधा में होते हुए भी इन गीतों में सामुद्रिक गहराई है। लेकिन  कवि का मन तो सागर से भी अधिक गहरा होता है।स्वयं कवि के ही गीत की पंक्ति है----
        कितना गहरा है मेरा मन
        सागर क्या जाने!
इस स्तरीय प्रस्तुति के लिए कवि के साथ-साथ  मनोज जैन साहब को भी बधाई!
    •  उदय शंकर अनुज
               दादा तिवारी जी के नवगीत स्थूल से सूक्ष्म की ओर भावनात्मक संचरण होते हैं। शब्दलय और अर्थलय को साधते गीत रचनाकारों को प्रेरित करते हैं। दादा तिवारी जी को सादर नमन तथा वागर्थ समूह को श्रेष्ठ गीतों की प्रस्तुति के लिए आभार!
                जगदीश पंकज
जब जब माहेश्वर तिवारी जी का नाम आता है, मुझे उनका "सुर्ख सुबह चंपई दुपहरी मोरपंखिया शाम, तरह तरह के लिख जाता मन पत्र तुम्हारे नाम" याद आता है।। कभी 72-73 में मुरैना के कवि सम्मेलन में उन्होंने यह गीत सुनाया था।। आठवें दशक के उत्तरार्ध में वे विदिशा भी रहे थे।
            उपेंद्र पुरुषोत्तम कुमार
              सीधी-सादी बोली-बानी का अप्रतिम बिम्ब,एकाकीपन का अनूठा रेखाचित्र प्रयोग धर्मिता का प्रतीकात्मक सौंदर्य एवं प्रतीकों का अनुशासित प्रयोग। दोनों गीतों में प्राण तत्व हैं ।
रचनाकार को प्रणाम मनोज जी को हार्दिक बधाई।
            ईश्वर दयाल गोस्वामी
 

             उपर्युक्त सभी फेसबुक, ब्लॉग और वागर्थ से साभार प्रस्तुतियों से उनके विराट व्यक्तित्व और कृतित्व को पहचाना जा सकता है। निःसन्देह, वे बड़े और जमीन से जुड़े रचनाकार लोकप्रिय कवि थे। वाचिक परम्परा हो या पत्र- पत्रिकाएँ, उनकी दोनों जगह समान रूप से उपस्थिति अंत तक बनी रही। उन्होंने सदैव नई पीढ़ी के रचनाकारों का उत्साह वर्धन किया उन्हें सराहा और आगे बढ़ाया।

          4,अक्टूबर 2014 के गीतोत्सव के आयोजन गीत चाँदनी जयपुर राजस्थान में हुई पहली मुलाक़ात से लेकर भोपाल के दुष्यंत अलंकरण, अभिनव कला परिषद का श्रेष्ठ कला आचार्य, सहित अनेक समारोहों एवं गोष्ठियों सम्मेलनों में मुझे उनका आशीर्वाद मिलता रहा। 
            अब, जब दादा नहीं हैं तब उनसे जुड़ी यादें और और सघन हो चलीं। मेरी कृति "धूप भरकर मुट्ठियों में" उनका लिखा फ्लैप अब धरोहर है। दादा का इस तरह असमय जाना हम सब के लिए पीड़ादायक है। उनका जाना हम सबकी अपूर्णीय क्षति है। इस लेख को लिखने के कुछ माह पहले ही उनका एक कॉल आया था मुझे नहीं पता था अब इसके बाद नेह उड़ेलने वाला कॉल कभी नहीं आएगा।
     ठीक से तो याद नहीं पर हाँ, अन्तिम कॉल पर जो बात हुई तब उन्होंने शायद किसी शोध सन्दर्भ ग्रन्थ का जिक्र किया था जिसे वह पढ़ना और देखना चाहते थे पर वह उन तक पहुँच नहीं सका। 
       शायद इस ग्रन्थ में माहेश्वर तिवारी जी के नवगीत सम्मिलित किए गए पर उन तक ग्रंथ की प्रति नही पहुँची। काश ! मैं, उस ग्रंथ का नाम ठीक से  सुन पाता तो उन तक, उस ग्रन्थ की प्रति उन तक भेजने की कोशिश जरूर करता। अफ़सोस ! ऐसा कर नहीं सका।
        खैर,1998 में रिरीज हुई एक मूवी 'दुश्मन' का एक गीत जो आंनद बक्शी ने लिखा और जिसे जगजीत सिंह नें दिलकश अंदाज़ में में मखमली आवाज़ में अपना रेशमी स्वर दिया,
खासतौर से इस प्रसंग पर हमें बहुत रुलाता है।
       "चिट्ठी ना कोई संदेश,
        जाने वो कौन सा देस, 
        जहाँ तुम चले गए!
    मैं, यह भली भाँति जानता हूँ कि, कॉल पर ना मुखड़ा, ना अंतरा, और ना वह समापन की पुनरावृत्ति वाली, ठीक है ! ठीक है ! ठीक है ! की आवाज़ मेरे और मेरे जैसे अनेक उनके प्रसंशको के कानों में कभी नहीं आएगी।
       नम आँखों और भारी मन से उन्हें याद करते हुए पूछता तो हूँ पर कोई उत्तर ही नहीं देता ...
              कहाँ तुम चले गए..........।
अंत में पहले लंबे आलेख का श्रेय जाता है अत्यन्त प्रिय मेरे बड़े भाई मित्र योगेन्द्र वर्मा व्योम जी को उन्होंने ठीक उसी वेसे ही जैसे हनुमान जी उनकी प्रेरणा से जलधि लाँघ लंका जा पहुँचे।
       उसी तर्ज पर  मुझ जैसे अलाल से यह काम करवा लिया साथ ही समूह वागर्थ, समूह अंतरा और ब्लॉग वागर्थ में प्रस्तुत स्तरीय सामग्री की शक्ति अहसास भी करा दिया जिसका का मुझे  अभी तक भान ही नहीं था।
  
मनोज जैन 
________

संस्थापक संपादक 
समूह / ब्लॉग वागर्थ 
106 विट्ठलनगर
गुफ़ामन्दिर रोड लालघाटी 
भोपाल
462030