रविवार, 7 जुलाई 2024

मनोज जैन का एक नवगीत

वाल्मीकि कविता के,
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वाल्मीकि कविता के, छंद के 
निराला।
           लिखते हो आ'ला।

भूमिका नवोदित की, गेंद-सी 
लपकते हो।
आलोचक ठसियल हो, हर कहीं 
टपकते हो।
           झुक जाती ग्रीवा जब 
           पड़ जाती माला।
               
गौरवर्ण धवल केस,रूप के
पुजारी जी।
बूते,गुटबाजी के,जीती यह 
पारी जी।
नचते हो 'बापू'-सा
            ओढ़कर दुशाला।

बहुत लिखा तुमने जी,पढ़ा नहीं 
जाता है।
मूरत को अब हमसे,गढ़ा नहीं 
जाता है।
धवल पृष्ठ जानें क्यों,
           करते हो काला?

शब्दों की दुनिया में,फैलाते
नित दूषण।
कहलाते तुम खुद को ,कवि-कुल
का आभूषण।
लगता है आँखों में 
           छाया है जाला।

मनोज जैन