कवि विनय विक्रम सिंह जी के दो गीत
प्रस्तुति
~ ।।वागर्थ।। ~
पाथती कण्डे
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पाथती कण्डे बिचारी।
बौर ने टाँके हैं गोटे,
चूनरी की झिलमिलों में।
चूड़ियाँ गोबर से लिपटीं,
गुनगुनाएँ काकुलों में।
आलता चेहरे पे लट्टू,
देह की गौ-गन्ध ने नजरें उतारीं।
पाथती कण्डे बिचारी।
देह को फगुना रहे,
बाछे टिकोरे।
और काजल नींद के
भरता सकोरे।
आज गौरा सेंदुरी
माथा करेगी।
है सही नैनों ने तिथि की साहूकारी।
पाथती कण्डे बिचारी।
देहरी पर वो महावर
छोड़ आयी
दीप की बाती में पाती
जोड़ आयी।
सँझलके जब
रेल सीटी हो दुआरे,
जोत दिखलाना उसे बिसरी चिन्हारी।
पाथती कण्डे बिचारी।
दो
महलों की दीमक
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उजले महलों की नीवों में,
दीमक भी पलती।
चौखट पर नक्काशी है पर,
वो है कुतरन की।
कलाबत्तुओं के पर्दों पर,
झालर उतरन की।
फानूसों में बिना तेल की,
लालटेन जलती।
उजले महलों की नीवों में,
दीमक भी पलती।१।
दीवारों से ताख चुराकर,
दीपक भाग रहे।
पीछे छूटी कालिख कहती,
पुरखई जाग अरे!
देख! वसीयत के पन्ने की,
हर धन्नी हिलती।
उजले महलों की नीवों में,
दीमक भी पलती।२।
शीशम के दरवाजे डरते,
छज्जे तक हैं घुन।
पॉलिश की मोटी परतों में,
मची हुई कह-सुन।
पर ऊँचे कॉलर की टमटम,
टापों पर चलती।
उजले महलों की नीवों में,
दीमक भी पलती।
विनय विक्रम सिंह