वागर्थ में एक गीत
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अंतर्मन में चले निरन्तर,
एक अधोषित युद्ध।
धता बताए प्रगतिशीलता,
चुप हो जाती जड़ता।
पारे जैसा मन है अपना,
चरम बिंदु पर चढ़ता।
साम्य भाव हम रक्खें कैसे,
बन न सके हम बुद्ध।
धसे द्वंद्व में गहरे जाकर,
क्या योगी क्या भोगी।
अपना चिंतन छोड़ पराया,
लगता है उपयोगी।
प्रश्न खड़ा है परिणामों को,
कैसे रखें विशुद्ध?
कौन सगा है कौन पराया,
क्या रिश्ते क्या नाते?
समय सरकता पल-पल क्षण-
क्षण,हँसते,रोते,गाते।
चिंतन उठता ऊपर-नीचे,
पथ करता अवरुद्ध।
जीवन चलता अपनी लय में,
अपने रंग बदलता।
पूर्व दिशा से सूरज निकले,
पश्चिम में जा ढलता।
भावदशा आनन्दमयी हो!
कब हो जाए क्रुद्ध?
मनोज जैन
10/07/24