मंगलवार, 9 मार्च 2021

अनामिका सिंह जी की टिप्पणी और कीर्तिशेष वसु मालवीय जी के नवगीत

~ ।।वागर्थ ।।~
_____________

https://m.facebook.com/groups/181262428984827/permalink/1145641842546876/

युद्ध से इन्कार वाले और होंगे:वसु  मालवीय
____________________________________
    
    किसे देखा है पिघलते 
    मैं नहीं था
    बर्फ के आधार वाले और होंगे....

स्वाभिमान की यह बानगी 
     वागर्थ की आज की प्रविष्टि में शामिल है । कीर्तिशेष वसु मालवीय जी से हमारा परिचय नाम चीन्हने भर से था , किन्तु वागर्थ में उनके गीतों को टाइप करते /पढ़ते वक्त कब यह नाम संवेदना के गहन स्तर से जुड़ गया , मालूम ही न चला। जिसे कभी देखा नहीं , सुना नहीं , उसकी रचनाओं से गुजरते समय आँखें सजल हो जाने से यह बात फिर पुख्ता हुई कि रचनाकार /कलाकार की कभी ......नहीं होती , वह हमारे मध्य अपनी रचनाओं के कथानक के माध्यम से ,अपने ज़िंदादिली व अपनी बहुआयामी विस्तृत सोच के माध्यम से  स्मृतियों में जिंदा रहता है।
     साहित्यिक परिवेश में पले - बढ़े व वाणिज्य विषय से बी कॉम वसु मालवीय जी को साहित्य से अनहद अनुराग रहा।          कहानी ,नवगीत,छंदमुक्त , बाल साहित्य , रिपोर्ताज हर  विधा पर समान अधिकार रखने वाले कवि ने कविताई सिर्फ़ कागज पर ही नहीं की अपितु कभी मुट्ठी भर अठ्ठनियाँ किसी हथेली पर रखकर  कभी बैंक में गारंटर बनकर की , उस वक्त उन अठ्ठनियों की कीमत क्या रही होगी यह  बोधिसत्व जी से बेहतर कौन समझ सकता है । 
   साहित्यिक दृष्टिकोण व प्रवृत्तियों को रूपायित कर विकासोन्मुख करने में उनके पारिवारिक साहित्यिक परिवेश का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा । सहज सरल भाषा में गंभीर कथ्य कहना उनकी विशेषता रही ।
   सहिष्णुता व संवेदना का उत्स वसु मालवीय जी के गीतों की पृष्ठभूमि आम जनमानस की पीड़ाओं , विसंगतियों व उससे उपजे आक्रोश पर केन्द्रित है ।
    इसी क्रम में धार्मिक सौहार्द के क्षरण का पड़ताल व अनहोनी की आशंका में गड्ड -मड्ड  उनकी पंक्तियाँ धार्मिक उन्माद की भेंट चढ़ गये भाई -चारे पर उपजी टीस पर सवाल करती हैं ...

बहुत दिन से नहीं आये घर 
कहो अनवर , क्या हुआ ?
आ गया क्या बीच अपने भी 
छह दिसंबर , क्या हुआ ?

समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था की विसंगति की यथार्थपरक अभिव्यक्ति उनके गीतों में सहजता से स्पष्ट होती है ...

ये टोला बाह्मन का 
वो हरिजन का 
ठाकुर का कुआँ बीच में
कैसा भूगोल गाँव का .....

    इसी गीत के अंतरे में  बुआ की जगह स्थान दर स्थान किरदार  दादी , चाची ,माँ , मौसी के रूप में हम सबके आस -पास ही मिल जायेंगे ,अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है ।
      
बाँह जब चढ़ाते हैं 
बाप और चाचा
पड़ती है बुआ बीच में
बनती है वार पाँव का ....

    कर्ज और सूद की अंतहीन यंत्रणा से गुजरते गँवई परिवेश का दर्द , जिसने न जाने कितने जरूरतमंदों को सामंती व्यवस्था में भूमिहीन कर दिया  //

पुरखों का आखिरी निशान 
गिरवी है गाँव का मकान..

दरवाजे बँधा बैल 
खोल ले गये 
लेनदार माँ बेटी 
तोल ले गये 

बिकी खुशी चुका तब लगान ...

        
          विद्रूपताओं के मध्य अचानक बड़ा चीन्हा सा दृश्य उनके एक गीत में  उपस्थित होता है , यकीनन यह गीत हमारी तरह पाठकों को भी सुधियों के गलियारे तक ले जायेगा ।

 पीहर से आये 
 आलता लगाये
 भाभी के पाँव ...

      लोक धर्मी इस स्वर की साहित्य को आवश्यकता थी ...

जो कहीं लिक्खा नहीं था
दरअसल कहना वही था 
और कहने के लिए कवि 
आपको रहना   यहीं  था 

 किन्तु अनहोनी पर किसी का वश नहीं रहा ।

        बक़ौल बशीर बद्र साहब 

कभी बरसात में शादाब बेलें सूख जाती हैं ,
हरे पेड़ों के गिरने का कोई मौसम नहीं होता । 

      साहित्य के इस बिरवे की प्राणवायु  १६ मई.१९९७को असमय एक क्रूर अनहोनी ने सोख ली । 

वागर्थ उनकी पुण्य स्मृति को नमन करता है 💐💐💐💐

प्रस्तुति

अनामिका सिंह

सम्पादन मण्डल
समूह 
वागर्थ

(मनोज जैन जी के व्यावसायिक दायित्वों के चलते उनकी सक्रियता की अनुपस्थिति में वागर्थ के पाठकों तक रचनाएँ पूर्व
निर्धारित कार्यक्रम अनुसार पटल पर पहुँचाने का हमारा पूर्ण प्रयास रहेगा )
________________________________________________

(१)

किसे देखा है पिघलते 
मैं नहीं था 
बर्फ के आधार वाले होंगे 

भूख माथे पर सजाकर 
गर्दनों पर सिर टिकाकर 
दूर तक ठण्डी सड़क पर
आग भीतर की गँवाकर 

इस तरह चुपचाप चलते
मैं नहीं था 
युद्ध से इन्कार वाले और होंगे 

नहीं देते गालियाँ जो 
क्रोध भी कर नहीं पाते 
शब्द जिनके अर्चना में
पैलगी परनाम गाते 

किसे देखा हाथ मलते 
मैं नहीं था 
याचना स्वीकार वाले और होंगे

बेसुरे से इस समय में
चलो अपना राग गा दें
एक प्रतिनिधि चीख होकर 
कान के पर्दे  उड़ा दें

नहीं मैं सचमुच नहीं था
जिसे देखा होंठ सिलते 
मैं नहीं था
काठ की तलवार वाले और होंगे 

(३०/३१/०७ /९३)

(२)

ये टोला बाह्मन का 
वो हरिजन का 
ठाकुर का कुआँ बीच में
कैसा भूगोल गाँव का 

सुबह मरी मिलती हैं 
ताल की मछलियाँ
रंजिश में जलती हैं
आँख की पुतलियाँ

इधर खेत गेहूँ का
वो सरसों का
उठता है धुआँ बीच में
जीत हार पेंच दाँव का

हिस्से के झगड़े में
छूट गयी परती
प्यासी है वर्षों से
पुरखों की धरती 

बाँह जब चढ़ाते हैं
बाप और चाचा
पड़ती है बुआ बीच में
बनती है वार पाँव का 

पंचायत होती थी 
यहाँ था मदरसा 
बेटे को शहर गये 
बीत गया अरसा

कभी कोफ्त होती है 
कभी -कभी चिंता
पलती है दुआ बीच में
मोह जाल धूप छाँव का

(३०/०१/८८)

(३)

पुरखों का आखिरी निशान 
गिरवी है गाँव का मकान

दरवाजे बँधा बैल 
खोल ले गये 
लेनदार माँ बेटी 
तोल ले गये 

बिकी खुशी चुका 
तब लगान 

खूँटी पर पगड़ी 
है धूल से भरी
बित्ता भर भूमि
सुबह शाम कचहरी

क्रूर हँसी फेंकता प्रधान 

दादी की जिद थी
प्राण वहीं जायें
जिस घर में दादा
उसे ब्याह लाये

जली हुई रस्सी की शान 

(१०/०९/८६)

(४)

जो कहीं लिक्खा नहीं है
दरअसल कहना वही है 

पत्थरों को काटना है
शहर गढ़ना है
हमें छोटे फ्रेम में 
आकाश मढ़ना है

अब जगाना है समय को
खो गया शायद कहीं है 

लहर गिनना ही नहीं 
लहरें उठानी हैं
बहुत गहरे डूबकर 
मणियाँ जुटानी हैं

हाथ से छूटा हुआ है 
पर हमारा सच यहीं है 

हमें अपने पास का 
कुहरा खुरचना है
मेघ की स्याही बनाकर
गीत रचना है

तेज आँवें में हमारी 
भावनायें पक रही हैं 

(०२/०८/९२)

(५)

पीहर से आये 
आलता लगाये
भाभी के पाँव 

खेतों से चूल्हे तक
बजरे की गन्ध
खनक लोकगीतों की 
महके सम्बन्ध 

सोंधापन घोले
चुप-चुप कुछ बोले
घर आँगन गाँव 

चुहल से शरारत तक
रूठना मनाना
बिना बात का गुस्सा
आँख से दिखाना

टकटकी लगाये
कहीं हाथ आये
खोज रहे दाँव

ऐंपन के हाथ सुबह
चुनते शेफाली
तुलसी का बिरवा औ
पूजा की थाली 

धूप दीप वाले
आरती सँभाले
आँचल की छाँव 

(१२/०३/८७)

(६)

पीढ़ियों तक शाप चलते हैं
अपशकुन चेहरे बदलते हैं

जन्म लेकर मान्यतायें
टूट जाती हैं
हाथ से बर्तन सरीखी 
छूट जाती हैं

शोर सुनकर हम सँभलते हैं

टूटता है कुछ कहीं पर
अंश रह जाते
शब्द प्रचलन से हटे
अपभ्रंश रह जाते

व्याकरण बचकर निकलते हैं 

कौन सा क्रम कहाँ 
निश्चित हो नहीं पाये 
वर्णमाला सा व्यवस्थित 
हो नहीं पाये 

हम जगह पर ही उछलते हैं

(१८/१९--/११/८८)

(७)

जिनसे सभी गणित चलते हैं
मतगणनाओं के 
हम तो केवल वर्गमूल हैं
उन संख्याओं के 

अगले खाने बिच्छू बैठा
पिछले खाने अजगर 
अपनी सीमा में गति करते 
रह जाते हैं थककर 

छोटे -मोटे वृत्त खींचते
हम त्रिज्याओं के

परिचय भूले खुद का 
क ख ग घ में बदले 
समीकरण सिद्धांत हमारे
हाथों से फिसले

हम विलोम अनुपात रहे हैं
आम सभाओं के

सही बटे की मार पाँव में
बाँध गयी पत्थर
दो रेखायें एक बिन्दु पर 
काट गयी आकर 

इति सिद्धम पर आकर टूटे 
अर्थ भुजाओं के 

   (२१/११/८७)

(८)

कुछ सपने धारावाहिक से -
--------------------------------

कुछ सपने धारावाहिक से
आकर चले गए

हम केवल दर्शक थे
केवल मंच हमारा था
उन दृश्यों को हमने
अपनी आँख उतारा था
कुछ गायक आए औ’ हमको
गाकर चले गए

कई कई अंको में हमको
यूँ ही बँटना था
पूर्व कथा निर्धारित मुद्रा
क्रमशः घटना था
भाषा के जादूगर
सब उलाझकर चले गए

१ अगस्त २००१

(९)

बहुत दिन से नहीं आए घर-
--------------------------------

बहुत दिन से नहीं आये घर
कहो अनवर , क्या हुआ 
आ गया क्या बीच अपने भी 
छह दिसंबर , क्या हुआ 

मैं कहाँ हिन्दू मुसलमां
तू कहाँ थे 
सच मुहब्बत के सिवा 
क्या दरमियाँ था 
जब बनी है खीर घर में
पूछती है
माँ बराबर क्या हुआ

आसमाँ बैठा खुदा 
तेरा कहाँ था 
पत्थरों का देवता 
मेरा कहाँ था
जिस समय हम खेलते थे 
साथ छत पर 
क्यों बिरादर 
क्या हुआ

वो सिंवैयाँ
प्यार से लाना 
टिफिन में
दस मुलाकातें 
हमारी एक दिन में
और अब चुप्पी तुम्हारी 
तोड़ती जाती निरंतर
क्या हुआ 

तुम्हें मस्जिद से 
हमें क्या देधस्थानों से
हमें बेहद मोह था 
अपने मकानों से
फोड़कर दीवार अब 
उगने लगा है
कुछ परस्पर 
क्या हुआ

टूटने को बहुत कुछ टूटा
बचा क्या
छा गई है देश के ऊपर 
अयोध्या 
हो गए तलवार अक्षर
क्या हुआ 

बहुत दिन से नहीं आए घर 
कहो अनवर , क्या हुआ

(१०)

कहाँ?
किधर?
कैसे?
क्यूँ?
कब?
सीख लिये जीने के ढब

ख़ुद को जितना किया तरल,
जीना उतना हुआ सरल

सत्य अहिंसा बेमतलब

बेच दिया ख़ुद को सस्ते
खोज लिये छोटे रस्ते

हँस-हँस दिखा रहे करतब

छिपे झाड़-फ़ानूसों में
पीछे रहे जुलूसों में

माले पहन रहे हैं अब।

               ~ वसु मालवीय

--------------------------------------------------------
परिचय -

जन्म -१०नवंबर १९६५
रचनारंभ -१९७६
पहली कहानी -१९८४
बच्चों के लिए बहुविध लेखन
एक नाटक कबीर अप्रकाशित
नवगीत रचना शिल्प में विलक्षण प्रयोग
इलाहाबाद क्षेत्रीय बैंक में कार्यरत रहे
ट्रेड यूनियन और सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी 
कथाकार कमलेश्वर के साथ टी वी धारावाहिक लेखन हेतु मुम्बई प्रस्थान
ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया -१६ मई १९९७