वागर्थ में आज की प्रस्तुति (देवेन्द्र कुमार बंगाली )
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(१)
अगहन की शाम
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यह अगहन की शाम !
सुबह-सुबह का सूर्य सिन्होरा
सोना, ईगुर, घाम ।
सोलह डैनों वाली चिड़िया
रंगारंग फूलों की गुड़िया
कहीं बैठ कर लिखती होगी
चिट्ठी मेरे नाम ।
देव उठाती, सगुन पठाती
रात जलाती घी की बाती
दोनों हाथ दूर से झुककर
करती चाँद-प्रणाम ।
सुनो-सुनो खेतों की रानी
तालों में घुटनों भर पानी
लम्बी रात खड़ी कुहरे में
खिड़की पल्ले थाम ।
(२)
अंधकार की खोल
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लो दिन बड़ा हुआ
अन्धकार की खोल फेंककर
सूरज खड़ा हुआ ।
खुलने लगीं दिशाएँ मन में
दूर कहीं आँखों के वन में
आसमान नंगी बाँहों पर
लगता अड़ा हुआ ।
देखो तो इस शाम को भला
अपने में खोई शकुन्तला
आधा-धड़ बाहर, आधा-
ज़मीन में गड़ा हुआ ।
नदी, पहाड़, वनस्पतियाँ हैं
बिस्तर-बन्द मनःस्थितियाँ हैं
नर्म हथेली पर
सब-कुछ
सरसों-सा पड़ा हुआ ।
(३)
अँधेरे की व्यथा
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झर रही हैं पत्तियाँ
झरनों सरीखी
स्वर हवा में तैरता है ।
यहाँ कोई फूल था
शायद यहीं इस डाल पर
तुमको पता है ?
ख़्वाहिशों की इमारत थी
ढह गई है,
ज़िन्दगी अख़बार होकर
रह गई है,
साँस है
या बाजरे का बीज
कोई पेरता है ।
हड्डियों का पुल
शिराओं की नदी है,
इस सदी से भी
अलग कोई सदी है,
आज की कविता
अँधेरे की
व्यथा है ।
(४)
जी हल्का कर लें
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ख़ाली जेबों को
कुछ बातों से भर लें
कुछ जी हलका कर लें,
आज की नियति से
इतना करें, उबर लें ।
घोंसले-घरौंदे
पानी के पौदे
सूखे को बाँध और बाढ़ को
प्रगति
माने बैठे हैं हम !
किस भोर के मसौदे
अधपके ख़यालों से
दाढ़ी के बालों से
ऐसी क्या बात पड़ी
घुटनों में सर लें ।
बहुत दिनों बाद सुने
मछुवों ने जाल बुने
आँधी का जिक्र चला
हम-तुम ख़ामोश रहे
पेड़ों को बहुत खला
सुबह न हो
शाम न हो
चीज़ों का नाम न हो
ऐसी जगह कोई --
छोटा-सा घर लें ।
(५)
जलता है गाँव, घर, नगर
धू... धू... धू...
रात गए आँखों से चलती है
लू... ऽ... ऽ... ऽ...
दाएँ जाना,
जाकर बाएँ को मुड़ना,
देखा है, चेहरों से
चिड़ियों का उड़ना।
याद आई क्या?
कोई, फिर —
नगरवधू !!
एक-एक, दो
फिर उसके बाद
टूट गया
मिट्टी-पानी का
रिश्ता
हम न हुए,
वरना,
क्या होते टेसू।
(६)
ये अधर दो पत्तियाँ
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ये अधर : दो पत्तियाँ
ये अधर : दो पत्तियाँ
दिन कि —
जैसे अन्धेरे में सुलगती हैं
बत्तियाँ।
उठ रहा कोई
नदी के छोर-सा
लग रहा जैसे
हुआ कुछ भोर सा
घाटियों में
गूँजती हैं
बादलों की पँक्तियाँ।
इस ज़मी को
आसमाँ से क्या मिला
दूर तक फैला
जड़ों का सिलसिला
जंगलों की गोद में
कुछ बत्तियाँ।
बाढ़ की औकात क्या है
नील में
तैरती हैं आँख के इस झील में
नींद में—
कुछ बत्तखें
कुछ कश्तियाँ।
(७)
सर्दी का गीत -
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जब तब सर्द हवा के झोंके
अगल बगल की दीवारों पर
रख जाते हैं
ताक झरोखे।
गोल तिकोना
कोई कोना
क्या अब भी बचा रह गया
याद आ रहा जिनका होना !
हफ़्ते का सबसे उजाड़ दिन
यह इतवार —
न रुकता, रोके।
हाथों की गुमसुम रेखाएँ
लौट रहे सूने पठार से
आधे बच्चे - आधी गायें,
आग जलाकर बाट जोहते
कुछ सवाल
ख़ामोश घरों के।
(८)
हम ठहरे गाँव के
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हम ठहरे गाँव के
बोझ हुए रिश्ते सब
कन्धों के, पाँव के
भेद-भाव सन्नाटा
ये साही का काँटा
सीने के घाव हुए
सिलसिले अभाव के
सुनती हो तुम रूबी
एक नाव फिर डूबी
ढूँढ लिए नदियों ने
रास्ते बचाव के
सीना, गोड़ी, टाँगे
माँगे तो क्या माँगे
बकरी के मोल बिके
बच्चे उमराव के
(९)
बेला
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खिली थी
झर गई बेला ।
तुम्हारे प्यार के पाँवों पड़ी
अब तर गई बेला
खिली थी
झर गई बेला ।
हवा का
लाँघकर चौखट चले आना,
रोशनी का
अन्धेरे में फफकना,
फूटकर बहना
पड़ा रहना
बिला जाना
बताता है
कि किन मजबूरियों में
मर गई बेला
खिली थी
झर गई बेला ।
(१०)
रूठो मत प्रान-
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रूठो मत प्रान ! पास में रहकर
झरती है चाँद-किरन
झर... झर... झर... ।
सेनुर की नदी, झील इँगुर की,
माथे तुम्हारे तुम सागर की
चूड़ी-सी चढ़कर कलाई पर
टूटो मत प्रान ! पास में रहकर
झरती है चाँद-किरन
आँखों की शाख, देह का तना,
टप्-टप्-टप् महुवे का टपकना,
मेरे हाथों हल्दी-सी लगकर,
छूटो मत प्रान ! पास में रहकर
झ्गरती है चाँद-किरन
झर... झर... झर...।
एक घूँट जल हो तो पिए,
कब तक कोई छल में जीए,
टूटे समन्दर ठूठे निर्झर,
दो मत तुम प्रान, पास में रहकर
झरती है चाँद-किरण
झर... झर... झर...।
(११)
यह भी कोई बात हुई मन
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दिन डूबा औ रात हुई मन
यह भी कोई बात हुई मन ।
डार-डार पर टँगी हवाएँ
अपने रंग में रँगी हवाएँ
धुएँ-धुएँ बरसात हुई मन ।
टुकड़े-टुकड़े रात कटी है,
क्या कोई ख़ैरात बँटी है
कब की नींद हयात हुई मन ।
तालू से जुबान मिलती है
दाँतों की कोठी हिलती है
हर इच्छा आपात हुई मन
(१२)
फिर हुई बरसात झींगुर बोलते
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फिर हुई बरसात
झींगुर बोलते ।
फूटते कल्ले ज़मीं से
रह गए हैं हम हमीं से
इन्द्रधनु हर बार
ईंगुर घोलते ।
आँख तालों की झँपी है
मेघ-वन की कँपकँपी है
खिड़कियाँ, पल्ले
हवा में डोलते ।
क्या मिला पत्ते तने को
सिवा जड़ से टूटने को
वहीं तक कहिए
जहाँ तक हो सके ।
(१३)
बौरों के दिन
दादी-माँ के हाथों
कौरों के दिन ।
पत्तों के हाथ जुड़े
ये आँखों के टुकड़े
कितने अनुकूल हुए
औरों के दिन ।
पेड़ों की छाया है
अपनी भी काया है
फूलों की साँठ-गाँठ
भौरों के दिन ।
जहाँ नदी गहरी है
वहीं नाव ठहरी है
पत्थर के सीने
हथौड़ों के दिन ।
परिचय -
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जन्म -१८जुलाई १९३३
निधन: १८जून१९९१
उपनाम: बंगाली
जन्म स्थान कसया, गोरखपुर
कुछ प्रमुख कृतियाँ
कैफ़ियत, बहस ज़रूरी है (दोनों कविता-संग्रह), हड्डियों का पुल (नवगीत-संग्रह), खानाबदोश (कहानी-संग्रह)। विविध कहानियाँ भी लिखी हैं। शम्भुनाथ सिंह द्वारा सम्पादित ’नवगीत-सप्तक’ के एक कवि।
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