गुरुवार, 4 मार्च 2021

कवि जगदीश जैन्ड पंकज जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

~।।वागर्थ ।। ~
    वागर्थ में आज प्रस्तुत हैं कवि जगदीश जैन्ड पंकज जी के नवगीत ।
     इसे सुयोग ही कहेंगे कि कुछ दिनों पहले  ही जगदीश पंकज जी द्वारा भेजी हुई पुस्तकें प्राप्त हुईं व इधर वागर्थ संपादन मण्डल ने भी उनके नवगीतों पर चर्चा का अवसर प्रदान किया। अधिक कुछ न कहते हुये सीधे गीत ही आप सभी के समक्ष प्रस्तुत हैं , निश्चित ही चंद शब्दों में किसी क़ल़मकार व्यक्तित्व को बाँध पाना सँभव नहीं , कम से कम वरिष्ठ नवगीतकारों को तो कतयी नहीं , जिनके अनेक संकलन ,शोध पत्र आदि प्रकाशित हुये हैं , वागर्थ का यह लघु प्रयास नवगीतकार के नवगीतों को सुधी पाठकों के समक्ष रखना भर है , ऐसे में असावधानीवश यदि कोई त्रुटि रह /हो जाती / गई ,है /हो तो निवेदन है ,उसे बिसरा दिया जाये ।
      
        जैसा कि कीर्तिशेष  देवेंद्र शर्मा 'इन्द्र 'जी ने नवगीत पर कहा  " जहाँ तक नवगीतों के आभ्यांतरिक सौन्दर्य का प्रश्न है इन्होंने समकालीन जीवन की शुष्क और कड़वी सच्चाई का पक्षधर  होने के बावजूद स्वयं को विरस और बेसुरा नहीं होने दिया है , यह गीत लोक मंगल के संवाहक हैं , युग सापेक्ष हैं अतैव समष्टि भावी  भी हैं इनमें मालवीय मूल्यों की प्रतिष्ठापना की गई है , इनका विकास  अपनी सहज काव्य परंपरा के भीतर से हुआ है , इन्हें किसी विशिष्ट कालखण्ड का आंदोलन मानकर  इनकी व्याप्ति का परिसीमन  उचित नहीं होगा , यह गीत प्रथमतः और अंततः व्यक्ति को मनुष्य होने की प्रेरणा प्रदान करते हैं , वर्तमान जीवन की विषम और मारक परिस्थितियों की क्रूर अंगुलिमाल के प्रस्तर प्राणों में करुणा की आद्रता का संचार करना ही इन गीतों का एकमात्र  लक्ष्य है , इन्हें किसी राजनीतिक विचारधारा अधवा  वाग् विशेष खूँटें से भी बाँधा जाना स्वीकार नहीं है और सच्चाई यह भी है कि स्वछंदता के आधार पर खुला भी नहीं छोड़ा जा सकता "
         उपरोक्त कथन के निकष पर जगदीश पंकज जी  का प्रत्येक गीत ही नहीं अपितु प्रत्येक पंक्ति खरी उतरती है , युगीन सच व जनधर्मिता व विसंगतियों पर प्रश्न उठाता  हर गीत अपने कथ्य के जरिये सार्थक संदेश देने में पर्याप्त समर्थ है चाहे वह किसी श्रमिक की व्यथा के रूप में हो , किसी बूट पालिश वाले की , किसी रिक्शे वाले की याकि सीवेज साफ करने वाले का कटु किन्तु मार्मिक सच याकि सभ्य समाज में स्त्रियों की अस्मिता छिन्न -भिन्न करने के अनगिन दुःखद प्रसंग  , ऐसा कोई कारुणिक विषय नहीं जो , अर्थ व वर्ण की असंगतियों से जुड़ा हो , से संवेदनशील क़ल़म अछूती रही हो ।

     " एक ही देश है किन्तु हैं देश में कुछ विभाजित सतह पर खड़े नागरिक " .... मुखड़ा ही समाज के भेदभावपूर्ण दोहरे चरित्र की बखिया उधेड़ रहा है । 
          जहाँ तक हमारी दृष्टि है 'इस निष्ठुर समय में नवगीत ' की ही बात करें तो  निम्न  पंक्तियों से प्रत्येक वह पाठक अपने जीवनकाल के किसी न किसी खण्ड से जुड़ा अवश्य पाता है जो प्रवंचनाओं का शिकार हुआ हो ।

भूमिका किस की ,
कहाँ पर कौन है 
शंकित नहीं हूँ 
जानता हूँ मैं किसी 
मुखपृष्ठ पर 
अंकित नहीं हूँ 

चकित अपनों को 
पराया देख 
इस निष्ठुर समय में

       एक कवि मन की पीड़ा का अकथ ,अवर्णनीय भाव जिसे सिर्फ़ और महसूस किया जा सकता है , यह वेदना का स्वर अकारण नहीं है , अकारण ही यह भाव निसृत नहीं हुये होंगे , निश्चित ही समाज में उपस्थित विसंगतियाँ ही कारक रहीं होंगी ।

केवल नहीं तन पर 
लगी है चोट 
मन की भीत पर 
अनगिन विरोधाभास हैं
कानून की 
हर जीत पर 

पर पोथियों में 
भी नहीं आखर मिले 
कुछ नेह के ...

// डेरे ,मठ ,आश्रम , शरणालय
सभी सवालों के घेरे में
ऐसी जगह कहाँ पर खोजें 
जहाँ सुरक्षित रहें बेटियाँ //...मुखड़ा ही सच की भयावहता को रेखांकित कर रहा है ...

      सुनो मुझे भी....

चेतना का स्वर जब अपना पक्ष रखना चाहता है तथापि वह अनसुना रह जाता है , या सुनकर उपेक्षित कर दिया जाता है , ऐसी स्थिति में क़ल़म से विवशता व आक्रोश का मिला- जुला दृश्य परिलक्षित होता है

कह रहा हूँ चीखकर
वह टीस जो अब तक
सुनी मैंने निरंतर
चेतना की 
अनसुने फिर भी रहे 
हैं शब्द जिनसे
व्यक्त होतीं वेदनायें
यातना की 

कब सुनोगे 
क्या मिलाऊँ क्रोध को
अपने रुदन में...
            ----------------

   चेतना के इस वरेण्य स्वर को वागर्थ  आत्मीय बधाई व शुभकामनाएँ प्रेषित करता है 💐💐💐💐

   प्रस्तुति
अनामिका सिंह
_____________
  
      

---------------------------------------------------------------------------

(१)
इस निष्ठुर समय में--
-----------------------

लिख रहा 
अनुभूति के आलेख 
इस निष्ठुर समय में 

मैं उपस्थित हूँ 
जहाँ संवेदनाएँ
जग रही हैं
त्रास की अन्तर्व्यथायें
एक जैसी 
लग रही हैं 

क्रूर सच का 
कर रहा उल्लेख 
इस निष्ठुर समय में 

भूमिका किस की, 
कहाँ पर कौन है, 
शंकित नहीं हूँ 
जानता हूँ मैं किसी 
मुखपृष्ठ पर 
अंकित नहीं हूँ 

चकित अपनों को 
पराया देख 
इस निष्ठुर समय में 

शब्द के संजाल में 
कसकर मुझे 
मोहित किया है 
आस्था का प्रश्न 
तर्कातीत कह, 
चुप कर दिया है 

दुःख विधाता का 
नहीं है लेख 
इस निष्ठुर समय में

(२)
कितने हरे,कितने भरे -
--------------------------
कितने हरे
कितने भरे , हैं घाव, 
मन के ,देह  के

अब तो नहीं है याद 
गणना भी करूँ 
कैसे करूँ 
किन-किन प्रहारों ने 
किया घायल मुझे
कैसे मरूँ

जिसको कहा 
अभियुक्त ,छूटा  
लाभ पा संदेह  के 

केवल नहीं तन पर 
लगी हैं चोट 
मन की  भीत पर 
अनगिन विरोधाभास हैं 
क़ानून की 
हर जीत पर 

पर पोथियों में भी 
नहीं आखर मिले,
कुछ नेह के

मुझको मिले कुछ शब्द 
तीखे तीर से 
आ कर गड़े
मेरे समर्थन के लिए
प्रतिबन्ध ही
मिलते कड़े 

इंगित किया तो
बंद सारे द्वार 
मुझको गेह के

(३) 

डेरे ,मठ ,आश्रम ,शरणालय  
सभी सवालों के घेरे में 
ऐसी जगह कहाँ पर खोजें 
जहाँ सुरक्षित रहें बेटियाँ 

नग्न-सत्य का खुला प्रदर्शन 
किया दबंगों ने घमंड से 
सीना ताने घूम रहे हैं 
ज़रा नहीं भय राजदंड से 
आँसू सूख रहे आँखों के 
घुटती रहीं सिसकियाँ भीतर 
घनीभूत पीड़ा शब्दों में 
किससे जाकर कहें बेटियाँ 

कहाँ मुजफ्फरपुर,देवरिया 
हरदोई का क्या मुकाम है 
दिल्ली जाते हुए मार्ग पर 
अभियोगी का कहाँ नाम है 
मासूमों के नयन पूछते 
मौन सभ्यता के खम्भों से 
करुणा दिखा छला अपनों ने 
आगे कितना सहें बेटियाँ  

कदम-कदम पर प्रश्न खड़े हैं 
क्रूर वासना के जंगल में 
नैतिकता के भ्रष्ट पहरुए 
कितने फँसे हुए दलदल में 
मादा जिस्मों के शोषण में 
किसकी स्वीकृतियाँ अंकित हैं
खण्डित विश्वासों के युग में 
किसकी उँगली गहें बेटियाँ

शासन सत्ता की छाया में 
कितने अपराधी ढलते हैं 
शुद्ध नागरिकता के डर से 
कितने परिष्कार  पलते हैं
प्रश्न निरुत्तर खड़े राह में 
बेबस पीड़ित नगर गाँव के 
किस भविष्य के निर्धारण को 
किस धारा में बहें बेटियाँ 

(४) 

आओ कविता को ले जाएँ 
सड़क,  नुक्कड़ों, चौराहों तक 

पंचर लगा रहा है यूसुफ़  
जूते चमकाता है किसना 
खड़ा खेत में रामखिलावन 
भट्टे पर भरतू का पिसना 

चुप्पी सुलग रही है सबकी 
हलवाहों से चरवाहों तक 

ताल खोदते ,सड़क बनाते 
भवन उठाते मजदूरों की 
बोझा ढोते ,झल्ली वाले 
रिक्शा वाले मंसूरों की 

थकन मिटाने वाली कविता 
पहुँचे  कद्दावर बाँहों तक 

नालों की कर रहा सफाई 
खोल रहा है गन्दे सीवर 
घर-घर कचरा बीन रहा है 
गर्मी,सर्दी ,बारिश सहकर 

जिनकी पीड़ा पहुँच न पाती 
सत्ता के दम्भी शाहों तक 

झुग्गी और झोंपड़ी के 
कोनों तक शब्दों को पहुँचायें  
भाषा की अनगढ़ पोथी ले 
अंगारों की आँच थमायें 

समता की बोली पहुँचायें 
मंदिर, मस्जिद, दरगाहों तक 

है विकास की नहीं रौशनी 
नहीं जहाँ खुशबू कल्याणी 
आओ वहाँ रोप दें मिलकर 
स्वाभिमान की गर्वित वाणी 

प्रेम भरे सन्देश सजायें  
गुरुघर ,चर्च ,खानकाहों तक 

श्रम से निकला हुआ पसीना 
महके मन के गुलदस्तों में 
शब्दों की माला लहराये 
समता वाले चौरस्तों में 

मिलकर संवेदन पहुँचायें 
पीड़ा की बेबस आहों तक 

(५) 

जब शहर में 
सूर्य आने का ढिंढोरा पीटते ही 
छा गया तम ,तब कहाँ 
जाकर कहें दिन की व्यथा को

जब उजाले की प्रतीक्षा में 
सरोवर भी मगन था 
चूमने को बिम्ब का माथा
स्वयं के स्वच्छ जल में 
तब कहाँ से झूठ के 
विज्ञापनों का सच पिघलकर 
देखते ही बह गया कैसे 
किसी अभिशप्त पल में

बतकही में 
मग्न हैं आशय बदलकर जो रसिकजन 
अब विषय से दूर हट
कहते अँधेरी पटकथा को

उठ रहा है शोर जब हर क्षण 
ठिठुरती बस्तियों से 
आँगनों में आग का उत्सव 
मनाने का चलन है 
सोच की विकलांगता घोषित
कहीं से हो रही जब  
तब समय के जुगनुओं का दल 
सुझाता आकलन है  

जब कहीं पर 
फैलता कल्पित कुहासा उग्रता से 
तब बदलना ही पडेगा
क्रूरता की हर प्रथा को 

आत्महंता युद्ध के 
उद्घोष से काँपी दिशाएँ 
हम सुबह की कामना 
लेकर प्रतीक्षा में खड़े हैं 
रागिनी गाते किसी 
ऊँचे शिखर की वन्दना में 
वंचनाओं के सभी 
प्रतिबन्ध भी कितने कड़े हैं 

राजमद में   
ऊँघते-सोते सभासद जो सदन के 
स्वप्न में दुहरा रहे 
अभिशाप की झूठी कथा को 

( ६ ) 

एक ही देश है
किन्तु हैं देश में
कुछ विभाजित सतह पर
खडे नागरिक

त्रासदी के भयानक महाकाल में
प्राथमिक स्वास्थ्य के सभ्य संजाल में
श्रेणियाँ खिंच गयीं बेबसी तानकर
एक सूखे हुए से किसी ताल में
सिर्फ वित्तीय पूँजी
नियत कर रही
और कितना सहेगा 
सड़क पर श्रमिक

आत्मनिर्भर मिली शिष्ट शब्दावली 
है अभावों भरी मेहनती हर गली
भाषणों में सिमट कर कहाँ खो गयी
शुद्ध करुणामयी भावना निश्छली
नीतियों को प्रभावित 
किये जा रहा
कर रहा जो कि अनशन
सड़क पर क्रमिक 

भूख ने गाँव छोडा शहर आ गयी
कुछ शहर की चकाचौंध भी भा गयी
जब घृणा आपसी ही बवंडर बनी
आपसी प्रेम सौहार्द ही खा गयी
सच छिपाकर
कहाँ रख दिया ताख में
तोड़कर कर दिया है 
विभाजन अधिक 

अब बदलती हुई सोच को साध लें
पूर्ण विश्वास को सत्य में बाँध लें
वैभवी सभ्यता छोड अपनत्व के
तत्व लेकर समर्पित दिशा में चलें
छोडकर भेद का 
विषभरा व्याकरण
खिलखिलाता चले 
राह का हर पथिक 

(७)
ताप मैं भरता रहूँ आक्रोश में भी-
---------------------------------------

मैं रिझाने के लिए
तुमको लिखूँ जो 
हैं नहीं वे शब्द 
मेरे कोश में भी

दोपहर की 
चिलचिलाती धूप में जो 
खेत-क्यारी में 
निराई कर रहा है
खोदता है घास-चारा 
मेंड पर से 
बाँध गठ्ठर ठोस 
सिर पर धर रहा है

है वही नायक 
समर्पित चेतना का 
मैं उसी को गा रहा 
उद्घोष में भी

जो रुके सीवर 
लगा है खोलने में 
तुम जहाँ पर 
गंध से ही काँपते हो
दूरियों को नापकर 
चढ़ता शिखर तक 
तुम जहाँ दो पाँव 
चलकर हाँफते हो

मैं उसी की 
मौन भाषा बोलता हूँ
प्राणपण से 
दनदनाते रोष में भी

घाव,टीसें ,आह ,आँसू 
छोड़कर मैं 
किस तरह उल्लासमय 
उत्सव मनाऊँ 
या किसी की यातनामय 
चीख सुनकर 
मैं रहूँ चुप ,और 
रो-रोकर रिझाऊँ

जब असंगत हैं 
सभी अनुपात तो फिर
ताप मैं भरता रहूँ 
आक्रोश में भी

(८) 
सुनो मुझे  भी--
-----------------

सुनो मुझको
इस समय,मैं भी 
उपस्थित हूँ सदन में 

बिन सुने ही पक्ष मेरा 
हो रहा निर्णय सदा 
अनुमान से 
हमदर्द बनकर 
पर निरुत्तर प्रश्न 
सबके सामने अब भी 
खड़े वाचाल से 
हैं ढीठ तनकर  

और कितनी बार 
दूँ विस्तार भर 
अपने कथन में 

जो सुनाया या 
दिखाया जा रहा है 
वह नहीं सब सत्य 
इस मेरे समय का 
घुट रहे अवसाद में 
उल्लास के  भी क्षण 
कहाँ विस्तार 
पीढ़ी की विजय का 

ऊब-उकताहट चुभोती 
नित्य पिन 
अनगिन बदन में 

कह रहा हूँ चीखकर 
वह टीस जो अब तक 
सुनी मैंने निरंतर 
चेतना की 
अनसुने फिर भी रहे 
हैं शब्द जिनसे 
व्यक्त होती वेदनायें ,
यातना की 

कब सुनोगे 
क्या मिलाऊँ क्रोध को 
अपने रुदन में  

(९)
 

अन्धकार के न्यायालय में 
किरणों पर अभियोग चलरहा 
बदचलनी के लिए गवाही 
देने आती हैं उल्काएँ 

संध्या ने आरोप लगाया 
तारे उसको घूर रहे हैं 
तारों का कहना है ,वे तो 
सदा गगन में दूर रहे हैं 

पारदर्शिता की मंडी में 
कितना दुराचार बिकता है 
पूछ रहीं किरणें लज्जा को 
लेकर कहो, कहाँ छिप जाएँ 

कितनी व्यथित याचिकाओं के 
निर्णय न्यायाधीन पड़े हैं
और जुगनुओं के प्रकाश पर 
भी अनगिन प्रतिबन्ध जड़े हैं 

अधिवक्ताओं के तर्कों से 
सारा दृश्य बदल जाता है 
फरियादी को ही अपराधी 
कह-कहकर उपहास उड़ायें 

जहाँ अँधेरे के परिसर में 
किरणों का आना निषिद्ध हो 
सारे साक्ष्य मिटा डाले जब 
सच कैसे निर्दोष सिद्ध हो  

कुछ वैकल्पिक समाधान भी 
दूर खड़े हो झिझक रहे हैं 
किस तटस्थता की ऐनक से  
न्याय-दंड किस ओर झुकायें

(१०)
 
दागी कुर्ते चमक रहे हैं -
----------------------------

कुछ टीवी के समाचार हैं
कुछ हैं अखबारों की कतरन
खड़ा केन्द्र में आम आदमी
देख रहा है अंधा दरपन

दूर - दूर से चकाचौंध के
दीख रहे भारी संसाधन
भरमाने के लिये मीडिया
थोप रहा थोथे विज्ञापन
खाली जेबें खरीदार की
खूब हो रहा है परिवर्तन

कितनी अंतर्कथा छिपी हैं
कितनी हैं विकास की गाथा
शब्दों के पीछे का आशय 
सुनकर पीट रहे हैं माथा
किस संवेदी सूचकांक से
किसको हुआ लाभ आवंटन

अनगिन निहित स्वार्थ बैठे हैं
सुविधाओं के अनुबंधों पर
अब सारा दायित्व आ गया 
न्याय व्यवस्था के कंधों पर
दागी कुर्ते चमक रहे हैं
करके खुलेआम कर -वंचन

-----------------------------------------
                  ~ जगदीश पंकज

परिचय -
---------------

जगदीश प्रसाद जैन्ड 
जन्म: १०  दिसम्बर१९५२
स्थान: पिलखुवा, जिला-गाज़ियाबाद (उ .प्र .), 
शिक्षा: बी.एससी. 
प्रकाशित कृतियाँ:
नवगीत संग्रह –

सुनो मुझे भी

निषिद्धों की गली का नागरिक

समय है सम्भावना का

आग में डूबा कथानक

मूक संवाद के स्वर

अवशेषों की विस्मृत गाथा (नवगीत संग्रह-प्रकाशनाधीन )

नवगीत के समवेत संकलन –

नवगीत का लोकधर्मी सौंदर्यबोध

गीत सिंदूरी गन्ध कपूरी

सहयात्री समय के

समकालीन गीतकोश

गुनगुनाएँ गीत फिर से

’गीत प्रसंग' में नवगीत संकलित एवं साझा संग्रह 'सारांश समय का' और 'शतदल' में कवितायें प्रकाशित 

'समकालीन भारतीय साहित्य', 'इन्द्रप्रस्थ भारती', 'गगनांचल', 'कथाक्रम', 'कथादेश', दिल्ली मासिक, मधुमती, डाक तार, पालिका समाचार, शब्द, जरूरी पहल, उद्भावना, संवेदन, उत्तरायण, सार्थक, साहित्य समीर दस्तक, शिवम् पूर्णा, संवदिया, पहला अन्तरा, दलित दस्तक, आजकल, बाबूजी का भारतमित्र, निहितार्थ, शुक्लपक्ष, तीसरा पक्ष, दलित अस्मिता, साहित्य सागर, कविता बिहान, परिंदे, लोकोदय, मध्य प्रदेश सन्देश, वेबपत्रिका अनुभूति, रचनाकार, शब्द व्यंजना, साहित्य रागिनी, प्रतिलिपि, पूर्वाभास, हस्ताक्षर, अभिव्यक्ति, ओपन बुक्स ऑनलाइन, जनकृति, परतों की पड़ताल, अनन्तिम,कविकुंभ, एक और अंतरीप आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं/वेब पत्रिकाओं में गीत,नवगीत, समीक्षाएँ एवं कवितायें प्रकाशित।
प्रसारण: आकाशवाणी दिल्ली से काव्य-पाठ का प्रसारण
सम्पादन: साहित्यिक पत्रिका 'संवदिया' के नवगीत-विशेषांक का सम्पादन 
सम्मान: 

मुरादाबाद की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था 'अक्षरा' के द्वारा नवगीत कृति  'सुनो मुझे भी' एवं अमूल्य साहित्यिक साधना के लिए 'देवराज वर्मा उत्कृष्ट साहित्य सृजन सम्मान -2015' से सम्मानित 

भोपाल की साहित्यिक पत्रिका 'साहित्य सागर' के तत्वावधान में 'अर्घ्य कमलकांत सक्सेना जयंती उत्सव' द्वारा 'नटवर गीत साधना सम्मान- 2016 ' से सम्मानित 

युवा रचनाकार मंच, लखनऊ द्वारा 'नवगीतकार महेश 'अनघ' सम्मान -2018 से सम्मानित

मुरादाबाद की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था 'अक्षरा' के द्वारा 'माहेश्वर तिवारी नवगीत सृजन सम्मान'

लखनऊ की संस्था 'उत्तरायण' द्वारा नवगीत संग्रह ' मूक संवाद के स्वर' को प्रथम पुरुष सम्मान 2019 से सम्मानित किया गया

सम्प्रति: सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया में वरिष्ठ प्रबन्धक के पद से सेवानिवृत्त एवं स्वतंत्र लेखन

1 टिप्पणी:

  1. अधिकांश गीतों में अल्पविराम किसी शब्द से पहले लगा है, जबकि अल्पविराम हमेशा किसी शब्द के एकदम बाद ही लगाया जाता है।

    जवाब देंहटाएं