बुधवार, 3 मार्च 2021

कुमार रविन्द्र जी का एक आलेख मेरी रचनाओं पर

‘बात इतनी सी’   
यानी  
बात पूरी और सही      

इक्कीसवीं सदी के लगभग डेढ़ दशक के कालखंड की कविता अधिकांशतः समसामयिक विसंगतियों की पड़ताल से ही जूझती रही है| इसीलिए उसमें नास्तिक स्वरों की प्रमुखता रही है| हमारी सनातन सामाजिक संरचना के एकदम टूट-बिखर जाने के कारण हिंदी कविता में भी वर्तमान राजनैतिक-आर्थिक सन्दर्भों से मोहभंग से उपजे नकारात्मक सोच की ही प्रधानता रही है| धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप के स्थान पर उसके आडम्बर एवं नक़ली प्रदर्शन की ओर रुझान ही प्रमुख रूप से प्रचारित हुई है| कविता की गीत विधा में भी ऐसे आडम्बरों के विरुद्ध नकारात्मक आलोचनात्मक स्वर ही प्रमुखता से उभर कर आया है, जो आस्तिक सोच से ही उपजा है, किन्तु धर्म के प्रति आस्था को नहीं उपजाता   है| ऐसे में युवा नवगीत कवि मनोज जैन मधुर के नये संग्रह ‘बात इतनी सी’ की रचनाओं के बीच से गुज़रना चारों ओर घिरी मरुभूमि के मध्य एक शस्य श्यामल नखलिस्तान से होकर गुजरने जैसा है| 

पिछली सदी के प्रथम विश्वयुद्ध के उपरांत के योरोपीय देशों की मानसिकता में आये नकारात्मक बिखराव के संज्ञान से रूबरू होते अंग्रेजी के उस कालखंड के सबसे प्रमुख कवि टी.एस.एलियट की प्रसिद्ध महाकाव्यात्मक कविता ‘दि वेस्टलैंड’ में एक ओर तो उस समय के योरोपीय समाज के पतनोन्मुख परिवेश का अंकन हुआ तो दूसरी ओर उस गर्हित स्थिति से उबरने हेतु आस्था के स्रोतों की भी खीज की गयी| मेरी राय में, जैसा टी.एस.एलियट ने किया, कविता को धर्म के विखंडन की स्थिति में आस्था एवं आस्तिक मूल्यों की स्थापना का कार्य भी करना चाहिए| मनोज के प्रस्तुत नवगीत संग्रह में इसी सात्त्विक भूमिका का निर्वाह बखूबी हुआ है और यही इसकी विशिष्टता है|  

संग्रह की दो प्रारम्भिक रचनाएँ इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं – ये एक प्रकार से अध्यात्म, विशेष रूप से जैन अध्यात्म के स्तवन गान हैं| ‘बूँद का मतलब समन्दर’ शीर्षक पहले गीत की शीर्ष पंक्ति है - ‘दृष्टि है इक बाहरी / तो एक अंदर है’ और फिर समूचे गीत में उस अंदर की दृष्टि की अंतर्मन की सार्थक सात्त्विक यात्रा है। ‘बूँद का मतलब समन्दर है’ यानी देह और देही एकात्म हैं, यह आध्यात्मिक दृष्टि पूरे गीत में एक अंतर्धारा के रूप में प्रवाहित है। यही भव-जलधि है, जिसमें देह-नौका को एक अज्ञात नाविक निरंतर गतिमान रखता है| उसी नाविक के नूर से सूर्य-चन्द्रमा ज्योतित होते हैं| कवि की स्थापना है कि ‘कंज- सम भव-पंक में/ खिलना हमारा ध्येय है’ और इस आंतरिक यात्रा में ‘सत्य, शिव, सुंदर हमारा / सर्वदा पाथेय है’ यानी सत्य शिव सुन्दर की कविता-साधना के पाथेय से ही हम उस ऊर्ध्वगामी बोध की सिद्धि प्राप्त कर पायेंगे| कविता का समापन एक आस्तिक ऋषि वाणी में हुआ है -     

बृह्म-वंशज हम सभी हैं / ब्रह्म-मय हो जायेंगे
बैन सुन अरिहंत भाषित / शिव अवस्था पायेंगे
जीतकर खुद को हमें / बनना सिकंदर है

दूसरी कविता है ‘वेदना’, जिसमें कवि ‘भव-भ्रमण की वेदना से मुक्ति’ पाने की कामना करता है| और इसके लिए, कवि की दृष्टि में, ’निज गेह शिवपुर को बनाना’ होगा| आगे इसकी प्रक्रिया भी गीत में परिभाषित की गई है -  

चार गतियों में / बहुत दुख पाये हैं 
चेतना को भूल / जड़ के / गीत गाये हैं 
आत्म को / निज-परणति में / अब रमाना है

में / अब रमाना है

खोजते हम / सुख रहे / भौतिक शरीरों में
हर्ष हम / ढूँढा किये / मणि रत्न हीरों में
पद-परम पाने हमें / अरिहंत ध्याना है

मेरी राय में, इन प्रार्थना-गीतों में कवि ने मानुषी आस्था के सात्विक मन्त्रों का आवाहन किया है| और निश्चित ही ये कविताएँ इस संग्रह की उपलब्धि-रचनाएँ हैं| इसी प्रकार के सकारात्मक सोच की कुछ और रचनाएँ हैं, जिनमें से ‘सुनहरी सुबह हो रही है’, ‘हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के’ और ‘फैसला’ मुझे विशिष्ट लगीं हैं | पहले देखें ‘सुबह हो रही है’ की आस्तिक ऋचा-मंत्र जैसी ये पंक्तियाँ -  

सुनहरी सुनहरी / सुबह हो / रही है
कहीं शंख ध्वनियाँ / कहीं पर /अज़ानें
चली शीश श्रद्धा / चरण में / झुकाने 
प्रभा तारकों की / स्वतः खो / रही है

प्रभाती सुनाते / फिरें दल / खगों के
चतुर्दिक सुगंधित / हवाओं / के झोंके
नई आस मन में / उषा बो रही है

‘हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के’ में यह आस्तिक स्वर समसामयिक सत्ता-तन्त्र के विरुद्ध एक जुझारू भंगिमा अख्तियार कर लेता है -

हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के / जो बोलोगे रट जाएंगे,
...
छू लेंगें शिखर - न  भ्रम पालो / हम बिना चढ़े  हट जाएंगे ...

,,,
उजियारा तुमने फैलाया / तोड़े हमने सन्नाटे हैं,
प्रतिमान गढ़े हैं तुमने तो / हमने भी पर्वत काटे हैं,
...
बेअसर हमारी बात नही / अपना भी ठोस धरातल है,
हम बोल नहीं है नेता के / जो वादे से  नट जाऐंगे,...

ऐसा ही स्वर है ‘फैसला’ शीर्षक गीत में भी, किन्तु इसमें कवि की मुद्रा स्वयं की  सात्विकता को बूझने, अपनी अस्मिता को परिभाषित करने की भी है| कविता में दोनों मुद्राएँ एक-साथ चलती हैं -     

फैसला छोड़िये तीसरे हाथ में / आप पूरे नहीं हम अधूरे नही।

मन की भाषा को पढ़ना / हमें आ गया,
...
हमनें जीता है पहले / स्वयं को ही तो
शेष बचता है क्या जीतने के लिए
तार कसते ही मन झनझनाने लगे
आपके हाथ के हम / तम्बूरे नहीं
...
ठोस आधार देते भवन के लिए / नींव की ईंट है हम / कंगूरे नहीं

मन में अभिमान को कब / पनपने दिया
निज के गौरव का हमने सम्हाला रतन
हमको निंदा प्रशंसा की /परवाह क्या
साधना का निरन्तर रहेगा जतन
अर्थ विभ्रम के चक्कर में हम क्यों पड़े / स्वर्ण ही हैं खरे हम / धतूरे नहीं
...
बात मानेंगे हम क्यों बिना तर्क की / मन के उस्ताद है हम / जमूरे नहीं

कवि की इन रचनाओं की यह दोहरी आस्तिक जुझारू एवं स्व की खोज की भंगिमा इन गीतों को आम गीतकविता से अलगाती है और मेरी राय में, इनकी उपस्थिति इस संग्रह को विशिष्ट बनाती है|   
 
और अब बात उन कविताओं की जिनमें आज के सन्दर्भों और सरोकारों की व्याख्या हुई है| वैसे तो पूरे संग्रह में ऐसी रचनाओं की उपस्थिति है, किन्तु इस दृष्टि से मुझे संग्रह की अंतिम कविता सर्वाधिक सटीक एवं सशक्त लगी है| उसमें कवि ने वर्तमान राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था से उपजे अनाचार का बड़ा ही सटीक एवं जीवंत अंकन किया है| ‘हम भी लड़ें चुनाव’ शीर्षक इस गीत के इस अंश में देखें कितनी सशक्त एवं सटीक दृष्टि से राजनीति में समग्र रूप से व्यापे भ्रष्टाचार का आकलन हुआ है -  

गाजर घास सदा फूली है / द्वापर हो या त्रेता।
लोकतंत्र में बन पाते हम / गर भेड़ों के नेता।
अलगू-जुम्मन को आपस में / कभी न मिलने देते
प्रेम प्रीत के बागानों में / अमन न खिलने देते।
राम कसम न पड़ने देते / घोटालों के टोटे।
छुटभइयों के चलवा देते / सारे सिक्के खोटे।
हर विभाग में फिट कर लेते / हम धीरे से गोटी।
बंदर जैसी बाँटा करते / हम बिल्ली को रोटी। 

गाजर घास के सर्वव्यापी सत्यानाशी बिम्ब के प्रयोग ने गीत को एक अतिरिक्त अर्थवत्ता से सम्पन्न किया है| इसी गीत में, आगे सत्ता के गलियारों में अनियंत्रित भोग की बढती प्रवृत्ति और उससे उपजे नेता वर्ग के भ्रष्ट आचरण का भी आकलन बड़े ही सशक्त रूप में हुआ है -   

अगर देश का गृह मंत्रालय / भार हमारा ढोता।
थाने-थाने में वीरप्पन / वर्दी पहने सोता।
सुरा सुंदरी शयन कक्ष में / रोज़ परोसी जाती।
पाँव लगाकर रिश्वत अपने / खुद बंगले पर आती।
जोगी जी जू देव सरीखा / कद विराट कर लेते।
सुरसा जैसा मुँह फैलाकर / धन अकूत भर लेते।
स्विस बैंक में सात पीढ़ियों / के खुलवाते खाते।
तुमने चरा प्रदेश देश हम / पूरा ही चर जाते।

समकालीन राजनीति में व्याप्त अनाचार के अनेकनेक सन्दर्भ इस गीत में बखूबी और पूरी शिद्दत से संकेतित हुए हैं|

इन कविताओं के रचयिता कवि मनोज जैन ‘मधुर’ की कविताई से मेरा परिचय पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लगभग एक दशक पहले हुआ था| तभी से मेरे मन में उनकी छवि एक सार्थक एवं समर्थ गीतकवि के रूप में घर कर गई थी| उसके बाद उनकी कविताई ने निरन्तर नये-नये आयाम खोजे हैं| उनके पहले गीत संग्रह

कविताई ने निरन्तर नये-नये आयाम खोजे हैं| उनके पहले गीत संग्रह ‘एक बूँद शहद’ की रचनाओं का भी मैं साक्षी रहा हूँ| ‘बात इतनी सी’ के गीत, निश्चित ही, उसके आगे के पड़ाव के गीत-सन्दर्भों का परिचय देते हैं| एक बात और नवगीत के चौथे यानी अधुनातन संस्करण में जिन युवा गीतकवियों ने पूरी सक्षमता और गहराई से अपनी उपस्थिति दर्ज़ की है, उनमें मनोज जैन ‘मधुर’ का नाम, निश्चित ही, अग्रणी पंक्ति में है| अमित सम्भावनाओं का यह युवा कवि हिंदी नवगीत को ऐसे ही अपना समर्थ अवदान देता रहे, यही मेरी कामना है|

                                                                                    क्षितिज ३१० अर्बन एस्टेट-२ हिसार-१२५००५                                    ---  कुमार रवीन्द्र
मो- ०९४१६९९३२६४                                                             
ई-मेल: kumarravindra310@gmail.com

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