सोमवार, 22 मार्च 2021

कुमार शिव पर विशेष सामग्री प्रस्तुति समूह वागर्थ

नवगीत दशक -2 के नवगीतकार कुमार शिव अब हमारे बीच नहीं रहे उनकी रचना धर्मिता ने सदैव प्रभावित किया उनके नवगीतों में प्रकृति से जुड़े टटके बिम्बों की बहुलता के साथ ही मानवीय प्रवृत्तियों का अनूठा विश्लेषण देखने को मिलता है।
वे व्यक्तित्व को पढ़कर उसके मनोभावों का विश्लेषण करने में माहिर थे इस आशय का संकेत हमें उनके एक नवगीत में मिलता है।
द्रष्टव्य हैं उनके रचे एक नवगीत की चंद पंक्तियाँ
"लिखी हुई संदिग्ध भूमिका /जब चेहरे की पुस्तक पर/
भीतर के पृष्ठों/अध्यायों को /पढ़कर भी क्या होगा/
           आज हर आदमी के चेहरे पर एक नहीं सौ-सौ मुखौटे जड़े हुए हैं ऐसे में सही और गलत की पहचान का आसन्न संकट सदैव मंडराता रहता है।कुमार शिव ने अपने नवगीतों में स्वाभिमान को जिया है। तभी तो वह इतनी बेबाकी से इतना सुंदर नवगीत रच सके। हाथ नहीं जोड़े हमने /और नहीं झुके /पाँव किसी की अगवानी में /नहीं रुके /इसीलिए जो बैसाखियों /लिए निकले /वो भी हमको मीलों पीछे /छोड़ चुके /वो पहुंचे यश की मंडी में/
      समूह वागर्थ उन्हें उन्हीं के कृतित्व से अश्रुपूरित भावभीनी श्रधांजलि अर्पित करता है प्रस्तुत हैं उनके 12 नवगीत
प्रस्तुति 
वागर्थ सम्पादन मण्डल
_________________

1
सुबह बने हैं ओस
रात को बने सितारे 
मेरे होंठों पर जितने 
स्पर्श तुम्हारे।

देहगंध जो आसपास
बिखरी है मेरे
कई तुम्हारे उसने 
अद्भुत चित्र उकेरे 
महक नीम के फ़ूलों की
मेरी साँसों में 
इन्द्रधनुष बन लिपट गये
बाँहों के घेरे

जामुन जैसे कभी 
कभी लगते हैं खारे
मेरे होंठों पर जितने
स्पर्श तुम्हारे।

दाड़िम जैसे सुर्ख़ 
पके अंगूरों जैसे 
किशमिश जैसे मधुर
लाल अमरूदों जैसे 
है मिठास चीकू या 
खट्टी नारंगी की
अवर्णनीय प्यासे
रेती के धोरों जैसे 

मीठे हैं शहतूत
कभी जलते अंगारे 
मेरे होंठों पर जितने 
स्पर्श तुम्हारे।

2
बगिया में उतरे बसंत ने
 छक कर चाँद पिया।

रात फेरती जिव्हा अपने
कत्थई होंठों पर
गुदना गुँदवा रही चाँदनी 
गोरी बाँहों पर

झुक झुक कर महके कनेर ने
एकालाप किया।

पतझर में जो सूखे पत्ते थे
परित्यक्त हुए
खुशबूदार बैंगनी फूलों में
अभिव्यक्त हुए

प्रोषितपतिका के हाथों में
जलता रहा दिया।

3
 शर हैं हम विपरीत दिशा के 
मिले गगन में इक पल। 

वहाँ शून्य में किसी जगह 
अपने अपने रस्ते पर 
अपने सुख दुःख,संग साथ
अपनी स्मृतियाँ लेकर 

गुजरे हैं हम बहुत पास से 
लेकर मन  में हलचल । 

मिलन हमारा निश्चित था 
कड़की थी चाहे बिजली
चाहे चली तेज़ थी आँधी
गरजी चाहे बदली

वर्तमान जी लेंगे हम फिर 
हो जाएँगे ओझल।

बहुत निकट थे इक दूजे के 
गर्म गर्म उच्छवास 
पलकों पर थे कभी सितारे 
कभी लबों की प्यास

हमें ज्ञात है सफ़र हमारा
होगा यहाँ मुकम्मल।

4
खो गये थे तुम  उजाले  में 
तुम्हें पाया अँधेरे में !

रेशमी स्पश॔ केशों के 
किये अनुभूत मैंनें 
चख लिये हैं शाख पर ही
रसभरे शहतूत मैंने

गंध में डूबी हुई थी शीश तक 
याद की काया अँधेरे में!

रास्ता अवरुद्ध था लेकिन 
सुरंगें सामने थीं
पेड़ पर लटकी हुई नीली 
पतंगें सामने थीं

क्या हुआ मुझको मैं अपना 
 ढूंढता साया अँधेरे में!

5
दरिया के बहते पानी 
जहाँ जहाँ से गुज़र गए हम 
नहीं वहाँ वापस लौटेंगे ।

कई बार देखा 
ललचायी नज़रों से 
तट के फूलों ने 
बहुत झुलाया 
तन्वंगी पुरवा की
बांहों के झूलों ने 

हम से मोह बड़ी  नादानी
जिन ऑखों से बिखर गए हम
नहीं वहाॅ वापस लौटेंगे।

चाहो तो रखना
हमको अपनी घाटी से
गहरे मन में
साॅझ ढले हम ही
महकेंगे नीलकमल बन कर
चिन्तन में

हम जिद्दी हैं हम अभिमानी
जिन अधरों से उतर गए हम
नहीं वहाॅ वापस लौटेगे।

6

होंठों तक आया कई बार 
वाणी तक पहुँच नहीं पाया 
वो  हुआ कभी भी नहीं व्यक्त!

मेरे मन में जितना कुछ था 
वह बिना सुने ही चला गया 
अब घिरा बैंगनी सन्नाटा 
चुप्पी ने  पाया अर्थ नया 

यादें  पीली  है बेशुमार 
अंजुरी में समा नहीं पाया 
सूखी रेती सा झरा वक्त ।

पीड़ा बिछोह की महक रही
दुख के पत्ते हो रहे हरे
मौसम के कुछ नीले निशान
नदिया के होंठों पर उभरे

आवेगयुक्त वो आलिंगन
उन्मीलित पलकें  सीपों  सी
नस नस में उबला हुआ रक्त।

7

मैंने तो कुछ धूप के टुकड़े माँगे थे 
तुमने वर्गाकार अँधेरे भेज दिये।

मेरी सुबह नक़ाब  पहन कर आई है 
चितकबरा सूरज   बैठा है पर्वत पर 
सन्नाटा   गूँजा    है   मेरे   होंठों   से 
फूल  नीम के महके  मेरी चाहत पर 

मैंने तो पुरवा के झोंके माँगे थे 
तुमने अंधड़ केश बिखेरे भेज दिये।

मैं तट पर बैठा बैठा यह देख  रहा 
नदी तुम्हारी कितनी  गोरी बाँहें हैं 
दो  नावें  जो  तैर  रहीं हैं  पानी में 
यही  तुम्हारी जादूगरनी  आँखें हैं 

नदी,भरोसे मैंने तुमसे माँगे थे 
तुमने तो भँवरों के घेरे भेज दिये।

घिरा खजूरों से मैं  एक किनारा हूँ
बहुत  टूट कर मैंने चाहा है तुमको 
सूखा हो या बाढ़ तुम्हारे होंठों पर 
मैंने बाँहें खोल  निबाहा है तुमको

मैंने तो अनियंत्रित धारे माँगे थे
तुमने तो लहरों के फेरे भेज दिये।

8

खुशबू बिखरी है कदम्ब के फूलों की
कभी गुज़ारी थी हमने यह  सुबह
तुम्हारे साथ।

यही समय था जब हमने सीखा था
चुप्पी का उच्चारण
इक दूजे की आंखों में रहना
कर लेना ऑसू का भंडारण

स्मृतियाॅ उभरी होंठों की भूलों की
कभी गुज़ारी थी हमने यह सुबह 
तुम्हारे साथ।

जल भीगा  एकान्त,  उर्मियों का 
मधुरम संवाद हठी चट्टानों से
दृष्टि नहीं हटती थी नदिया के
मुखड़े पर नीले पड़े निशानों से

चुभन पाँव में अब तक हरे बबूलों की
कभी गुजारी थी हमने यह सुबह
तुम्हारे साथ।

9

राखदान   में   पड़े    हुए 
हम सिगार से जला किये।

उँगलियों  में  दाब  कर  हमें 
ज़िंदगी   ने  होंठ  से   छुआ
कशमश में एक कश लिया 
ढेर  सा  उगल  दिया   धुआँ 

लोग  मेज़   पर   झुके  हुए
आँख बाँह  से मला किये।

बुझ गए अगर पड़े पड़े 
तीलियों ने मुख झुलस दिया 
फूँक गई त्रासदी कभी 
और कभी दर्द ने पिया

झंडियाँ उछालते हुए 
दिन जुलूस में चला किये।

बोतलों गिलास की खनक 
आसपास से गुज़र गई 
बज उठे सितार वायलिन
इक उदास धुन बिखर गई 

राख को उछालते रहे 
हम बुलन्द हौसला किये।

10

कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति का 
विदा गीत 

काले कपड़े पहने हुए 
सुबह देखी 
देखी  हमने दिन की  
सालगिरह  देखी!

हमको सम्मानित  होने  का 
चाव  रहा 
यश की मंदी में पर मंदा 
भाव रहा 
हमने चाहा हम भी बने
विशिष्ट यहाँ 
किन्तु हमेशा व्यर्थ हमारा 
दांव रहा 
किया काँच को काला 
सूर्यग्रहण देखा 
और  धूप भी हमने 
इसी तरह देखी!

हाथ नहीं जोड़े हमने 
और नहीं झुके 
पाँव किसी की अगवानी में 
नहीं रुके 
इसीलिए जो बैसाखियों 
लिए निकले 
वो भी हमको मीलों पीछे 
छोड़ चुके 
वो पहुंचे यश की 
कच्ची  मीनारों पर 
स्वाभिमान की हमने 
सख्त सतह देखी!

11

 साँझ सकारे 
अस्त ,सूर्य के साथ हुए हम 
बिना तुम्हारे 
ओ शतरूपा!

ऐसे बिछुड़े 
पुनर्मिलन  फिर सम्भव कभी 
नहीं हो पाया 
यादों के जंगल में 
किये रतजगे 
कोई भोर न आया 

नदी किनारे
लहरें देखीं नयन हुए नम
बिना तुम्हारे 
ओ शतरूपा!

कितने दिन बीते 
जब हम पर
हरसिंगार के  फूल झरे  थे
बारिश में भीगे थे 
बाँहों में हमने
 कचनार भरे थे 

आँसू खारे 
ढूंढ रहे हैं अपना उदगम
बिना तुम्हारे 
ओ शतरूपा!

12

लिखी हुई संदिग्ध भूमिका 
जब चेहरे की पुस्तक पर
भीतर के पृष्ठों, अध्यायों को
पढ़   कर  भी क्या  होगा 

चमकीला आवरण सुचिक्कन
और   बहुत  आकर्षक  भी 
खिंचा घने केशों के नीचे
इन्द्रधनुष सा मोहक भी 

देखे,मगर अदेखा कर दे 
नज़र झुका कर चल दे जो 
ऐसे अपने-अनजाने के सम्मुख 
बढ़ कर भी क्या होगा।

अबरी गौंद शिकायत की है
मुस्कानों की जिल्द बँधी 
होंठों पर उफनी रहती है
परिवादों से भरी नदी 

अगर पता चल जाय ,कथा का 
उपसंहार शुरू में ही 
तो फिर शब्दों की लम्बी सीढ़ी 
चढ़ कर भी क्या होगा
#कुमारशिव

परिचय
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नाम: कुमार शिव
शिक्षा :एम ०ए०, एल० एल ०बी०
जन्मतिथि: 11 अक्टूबर,1946
मृत्यु: 21 मार्च 2021
जन्मस्थान :जयपुर
व्यवसाय: राजस्थान उच्च न्यायालय के सेवा निवृत न्यायधीश, स्वतन्त्र लेखन

कृतियाँ : शंख, रेत के चेहरे, पंख धूप के, हिलते हाथ दरख्तों के,आईना जमीर का देखा, एक गिलास दोपहरी
विशेष :नवगीत दशक -2
नवगीत अर्धशती में शामिल नवगीतकार
सम्पर्क: ए ०-10,गाँधी नगर,जयपुर

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