वागर्थ में आज उमाकान्त मालवीय जी के दस नवगीत और
प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल
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(१)
दिन बौने हो गये
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रातें लम्बी हुईं
दिन बौने हो गयेT
ठिगने कद वाले दिन
लम्बी परछाइयाँ
धूप की इकाई पर
तिमिर की दहाइयाँ
रातें पत्तल हुईं
दिन दौने हो गये
कुहरों पर लिखी गयी
बिष भरी कहानियाँ
नीली पड़ने लगी
सुबह की जवानियाँ
रातें आँगन हुईं
दिन कौने हो गये
बर्फीले ओठों पर
शब्द ठिठुरने लगे
नाकाफी ओढ़ने
बिछौने जुड़ने लगे
रातें अजगर हुईं
दिन छौने हो गये।
(२)
गीत एक अनवरत नदी है
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गीत एक अनवरत नदी है
कुठिला भर नेकी है
सूप भर बदी है
एक तीर तोतले घरौंदे
खट्मिट्ठे गाल से करौंदे
नागिन की बीन
सुरसधी है ।
पत्थर के पिघलते मसौदे
पर्वत पर तुलसी के पौधे
सावन की सुदी है
बदी है
लहर -लहर किरण वलय कौंधे
मीनकेतु फिसलन के सौदे
अनलहक पुकार
सरमदी है ।
(३)
हिरनी फेंके खून
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हिरनी फेंके खून
दसतपा आग न बरसा रे ।
दुबके हुए मेमने बैठे
हाँफ रहे खरगोश
हरियाली का पता नहीं
जा बैठी काले कोस
हन हन.पड़ती किरन
कि जैसे बरछी फरसा रे ।
प्यास डोलती दर -दर
पानी ने पाया बनवास
अपनी प्यास पिए चल रे मन !
छाँड़ बिरानी आस
रस्ता बिसर गए क्या बादल ?
बीते अरसा रे !
दुपहरिया भर लू ठनके
नाचै अगिया बैताल
एक बेहया.झोंका
नंगी टहनी गया उछाल
उघरे कूल पुकारें
नदिया और न तरसा रे ।
(४)
भीड़ की जरूरत है
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भीड़ , जो दीन हो ,हीन हो
सिर धुनती हो
भीड़ , जो घूरे पर से
दाना बिनती हो
भीड़ जो नायक का सगुन है , महूरत है ।
भीड़ जो जुलूस हो , पोस्टर हो ,
नारा हो
भीड़ जो जुगाली हो ,
सींग दुम चारा हो
भीड़ , जो बछिया के ताऊ की सूरत है
भीड़ , जो अंधी हो
गूँगी हो ,
बहरी हो
भीड़ , जो बँधे हुए
पानी सी ठहरी हो
भीड़ जो मिट्टी के माधो की मूरत है ।
(५)
ये कैसा देश है
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ये कैसा देश है
कैसे कैसे चलन
अंधों का कजरौटे करते अभिनंदन ।
तितली के पंखों पर
बने बहीखाते
खुशबू पर भी पहरे
बैठाए जाते
डरा हुआ रवि गया चमगादड़ की शरण ।
लिखे भोजपत्रों पर
झूठे हलफ़नामे
सारे आंदोलन हैं
केवल हंगामे
कुत्ते भी टुकड़ों का दे रहे प्रलोभन ।
चाटुकारिता से
सार्थक होती रसना
क्षुब्ध चेतना मेरी
उफ् गैरिक वसना
ज्वालामुखि बेच रहे कुल्फियाँ सरीहन
(६)
गंगा मइया
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गंगोत्री में पलना झूले
आगे चले बकइयाँ
भागीरथी घुटुरवन डोले
शैल-शिखर की छइयाँ
छिन छिपती
छिन हौले किलके
छिन ता-झाँ वह बोले
अरबराय के गोड़ी काढ़े
ठमकत-ठमकत डोले
घाटी-घाटी दही-दही कर
चहके सोनचिरैया
पाँवों पर पहुड़ाकर परबत
गाये खंता-खैयाँ
पट्टी पूज रही है
वरणाव्रत की परिक्रमा कर
बालों में रूमाल फेन का
दौड़े गाये हर हर
चढ़ती उमर चौंकड़ी भरती
छूट गई लरिकइयाँ
भली लगे मुग्धा को
अपनी ही प्यारी परछइयाँ
दिन-दिन अँगिया छोटी पड़ती
गदराये तरुणाई
पोर-पोर चटखे मादकता
लहराये अँगड़ाई
दोनों तट प्रियतम शान्तनु की
फेर रहीं दो बहियाँ
छूट गया मायका बर्फ का
बाबुल की अँगनइयाँ
भूखा कहीं देवव्रत टेरे
दूध भरी है छाती
दौड़ पड़ी ममता की मारी
तजकर सँग-संघाती
गंगा नित्य रँभाती
फिरती जैसे कपिला गइया
सारा देश क्षुधातुर बेटा
वत्सल गंगा मइया'
(७)
आ गए फिर चारणों के दिन,
लौट आए चारणों के दिन।
सिर धुने चाहे गिरा पछताय
फूल क्या, सौगंध भी असहाय
तीर चुन तूणीर से गिन-गिन।
‘मत्स्य भेदन’ तेल पर है दृष्टि
एक फिसलन की अनोखी सृष्टि
बीन पर लेती लहर नागिन।
ध्वजाओं की कोर्निश दरबार
क्रांतियाँ कर ज़ोर हाथ पसार
दीन बन टेरें, नहीं मुमकिन।
क़सीदे औ’ चमकदार प्रशस्ति
सिर्फ़ एकोऽहं द्वितीयो नास्ति
नहीं संभव, सिंह तोड़े तृण।
(८)
दिन यों ही बीत गया!
अंजुरी में भरा-भरा जल जैसे रीत गया।
सुबह हुई
तो प्राची ने डाले डोरे
शाम हुई पता चला
थे वादे कोरे
गोधूलि, लौटते पखेरू संगीत गया।
दिन यों ही बीत गया!
रौशन
बुझती-बुझती शक्लों से ऊबा
एक चाय का प्याला
एक सूर्य डूबा
साँझ को अँधेरा फिर एक बार जीत गया।
दिन यों ही बीत गया!
आज का अपेक्षित सब
फिर कल पर टाला
उदासियाँ मकड़ी-सी
तान रहीं जाला
तज कर नेपथ्य कहाँ, बाउल का गीत गया।
दिन यों ही बीत गया!
(९)
नाकाफ़ी लगती है हर ज़बान
कोई अक्षर
कोई शब्द किसी भाषा का
पूरा-पूरा कैसे व्यक्त करे
क्या कुछ कहता मन का बियाबान?
एक रहा आने की, जाने की
घिसे-पिटे पंगु कुछ मुहावरे
दीमक की चाटी कुछ शक्लें हैं
बदहवास कुछ, कुछ-कुछ बावरे।
कोई कितना ज़हर पिए कहो
नीला पड़ गया टँगा आसमान।
बाबा आदम से गुम हुए सभी
तोड़ते ज़मीन कुछ तलाशते।
रूढ़ हो गईं सारी मुद्राएँ
अर्थ जरा-जर्जर-से खाँसते।
कितना यांत्रिक! आदत-सा लगता
डूब रहा सूरज या हो विहान।
चाहे जितना कह दो फिर भी तो
रह जाता है कितना अनकहा।
कितनी औपचारिक हैं सिसकियाँ
कितना रस्मी लगता कहकहा।
अगुआता घर-घर भुतहा भविष्य
और अप्रस्तुत लगता वर्तमान।
(१०)
कभी-कभी बहुत भला लगता है—
चुप-चुप सब कूछ सुनना
और कुछ न बोलना।
कमरे की छत को
इकटक पड़े निहारना
यादों पर जमी धूल को महज़ बुहारना
कभी-कभी बहुत भला लगता है—
केवल सपने बुनना
और कुछ न बोलना।
दीवारों के उखड़े
प्लास्टर को घूरना
पहर-पहर सँवराती धूप को बिसूरना
कभी-कभी बहुत भला लगता है
हरे बाँस का घुनना
और कुछ न बोलना।
काग़ज़ पर बेमानी
सतरों का खींचना
बिना मूल नभ छूती अमरबेल सींचना
कभी-कभी बहुत भला लगता है
केवल कलियाँ चुनना
और कुछ न बोलना।
अपने अंदर के
अँधियारे में हेरना
खोई कोई उजली रेखा को टेरना
कभी-कभी बहुत भला लगता है
गुम-सुम सब कुछ गुनना
और कुछ न बोलना ।
-उमाकान्त मालवीय
उमाकांत मालवीय ( जन्म: 2 अगस्त, 1931 - मृत्यु: 11 नवम्बर, 1982) हिंदी के प्रतिष्ठित कवि एवं गीतकार थे। पौराणिक सन्दर्भों की आधुनिक व्याख्या करते हुए उन्होंने अनेकानेक मिथकीय कहानियां और ललित निबंधों की रचना की है। उनकी बच्चों पर लिखी पुस्तकें भी बेजोड़ हैं। कवि सम्मेलनों का संचालन भी बड़ी संजीदगी से किया करते थे।
जीवन परिचय
उमाकांत मालवीय का जन्म 2 अगस्त 1931 को मुंबई में हुआ उनका निधन 11 नवम्बर 1982 को इलाहाबाद में हुआ। उमाकांत मालवीय की शिक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई। इन्होंने कविता के अतिरिक्त खण्डकाव्य, निबंध तथा बालोपयोगी पुस्तकें भी लिखी हैं। काव्य-क्षेत्र में मालवीय जी ने नवगीत विधा को अपनाया। ‘नवगीत’ आंदोलन के वे एक प्रमुख उन्नायक थे। इनका मत है कि आज के युग में भावों की तीव्रता को संक्षेप में व्यक्त करने में नवगीत पूर्णतया सक्षम है। कई कवि सम्मेलनों में उनके ‘नवगीतों’ ने बड़ी धूम मचा दी थी। इन्होंने प्रयोगवाद और गीत-विद्या के समन्वय का प्रयत्न किया, जो एक ऐतिहासिक महत्व का कार्य था। उन पर एक स्मारिका भी निकाली है।
कविता संग्रह
मेहँदी और महावर, 'सुबह रक्त पलाश की', 'एक चावल नेह रींधा' जैसे नवगीत संग्रहों में उनकी रागात्मकता और जनसरोकारों को अलग से रेखांकित किया जा सकता है। डॉ. शम्भुनाथ सिंह उन्हें नवगीत का भागीरथ कहा करते थे। गीत-नवगीत के प्रस्थान बिंदु पर वह अलग से किनारे पर खड़े पेड़ नजर आते हैं। उमाकांत जी को निःसंकोच नवगीत का ट्रेंड सेटर रचनाकार कहा जा सकता है।
`मेहंदी और महावर'
`देवकी'
`रक्तपथ'
'एक चावल नेह रींधा'
'सुबह रक्तपलाश की'
निधन
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