गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

वागर्थ में आज भगवान स्वरूप सरस जी के नवगीत प्रस्तुति वागर्थ समूह

~ ।। वागर्थ ।।~

         इस कुसमय में विवश हो साथ छोड़ गए समस्त साथियों को स्मरण कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है । समय कैसा भी रहा हो साहित्य ने समाज को निरन्तर प्रेरित व आशान्वित किया है  । इसी निरन्तरता को बनाए रखते हुए वागर्थ अपनी सम्पूर्ण संवेदना के साथ अपने पाठकों , जिन्हें अगले नवगीतकार की प्रतीक्षा रहती है व जो वागर्थ का संबल भी हैं , के लिए .....
   ...आज प्रस्तुत करता है  १९३३ उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में जन्मे भगवान स्वरूप सरस जी के नवगीत ।
जिन्होंने नवगीतकार के रूप में शालीनता से अपनी उपस्थिति दर्ज की और डॉ शंभुनाथ सिंह जी के सम्पादन में नवगीत दशक १ का हिस्सा भी बने । जीवन के कटु यथार्थ से सामना करते हुए उनका व्यक्तिगत जीवन काफी  संघर्षमय रहा ।
  भगवान स्वरूप सरस जी अपने समय के चर्चित पत्र पत्रिकाओं में संपादन में समय समय पर छपते रहे किन्तु अपने समकालीनों द्वारा बराबर उपेक्षित बने रहे ।

  शलभ श्रीराम जी से उन्हें समय -समय पर प्रोत्साहन भी मिलता रहा ।  वह अपने सृजन के प्रकाशन को लेकर बेहद उदासीन रहे ,उनके नजदीकी मित्र रामसेंगर के निजी प्रयास से उनके गीतों की पाण्डुलिपि तैयार हुई । दैनिक 'देशबंधु' के संपादक मायाराम सुरजन जी के अथक प्रयासों से यह पांडुलिपि 'एक चेहरा आग का' नाम से हिंदी साहित्य सम्मेलन से प्रकाशित हुई ।   
नवगीत के शिल्प पर खरे इन नवगीतों में कवि ने छन्द के पुराने ढाँचे को न सिर्फ तोड़ा बल्कि छन्द के नवीन प्रयोग किये स्वयं का डिक्शन भी गढ़ा ।
    व्यवस्था पर कटाक्ष करते गीत 'आग से मत खेल बेटे ' में उस समय की तस्वीर पेश करते हैं जो आज भी उतनी ही बल्कि अधिक प्रासंगिक है ....

मत अलग कर दूध -पानी
भेद मत कर गीत हो या मर्सिया
पृष्ठ पूरे उन्हें दे
जिनके लिए हैं
पकड़ अपना हाशिया।
नहींsss रोटीsss नहींsss

चाँद तारे और सूरज माँग
काठ के ये खिलौने भी
मिल गये हैं
भाग से ।

      आज उनके कुछ गीतों से जुड़कर वागर्थ उनके कृतित्व को श्रद्धापूर्वक  स्मरण करता है ....

                                               प्रस्तुति 
                                         ~ ।। वागर्थ ।। ~
                                          सम्पादन मण्डल

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(१)

आग से मत खेल
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आग से मत खेल बेटे
आग से

हिल रही पूरी इमारत
सीढ़ियाँ टूटी हुईं
मत चढ़
खोल बस्ता खोल गिनती रट
पहाड़े पढ़

मत दिखा उभरी पसलियाँ
बैठ झुक कर बैठ
दर्द भी गा
राग से

मत अलग कर दूध -पानी
भेद मत कर गीत हो या मर्सिया
पृष्ठ पूरे उन्हें दे
जिनके लिए हैं
पकड़ अपना हाशिया।
नहींsss रोटीsss नहींsss

चाँद तारे और सूरज माँग
काठ के ये खिलौने भी
मिल गये हैं
भाग से

(२)
घूमता है आदमी
-------------------

खींच कर
परछाइयों के दायरे
आइनों पर घूमता है आदमी।

अथ--
फफूँदी पावरोटी
केतली-भर चाय।
इति--
घुने रिश्ते उदासी
भीड़ में असहाय।

साँप-सा
हर आदमी को
सूँघता है आदमी।

उगा आधा सूर्य 
आधा चाँद
हिस्सों में बँटा आकाश।

एक चेहरा आग का है
दूसरे से झर रहा है
राख का इतिहास।

आँधियों में
मोमबत्ती की तरह
ख़ुद को जलाता-फूँकता है आदमी।

(३)
 घर दलालों के
-------------
और ऊँचे
और ऊँचे हो गये हैं
घर दलालों के।
कौन उत्तर दे सवालों के

कौन बोले
हमीं केवल हमीं थे
उस सड़क पर
संग्राम के पहले सिपाही।

वक़्त पर बेवक़्त पर 
हमको बिछाती-
ओढ़ती थी बादशाही

अब हमीं
नेपथ्य से भी दूर
धकियाये गये हैं
बज रहे हैं मंच पर
घुँघरू छिनालों के

खौलते जलकुण्ड में डूबी
किसी की श्लोक-सी सुबहें
किसी की ग़ज़ल -सी शामें
जन्म से अंधी मकड़ियाँ
इंद्रधनुषी जाल बुनती हैं
समय की उँगलियाँ थामे

हाथ बदले हैं
नकाबों में ढँके
चेहरे वही हैं
बंध ढीले पड़ गये
ठंडी मशालों के

कौन उत्तर दे सवालों के

(४)
आँखें बन्द किये
-------------------
जब-जब भी 
भीतर होता हूँ
आँखें बन्द किये

लगता, जैसे
जलते हुए सवालों-
पर लेटा हूँ ज़हर पिये।

दबे हुए अहसास
सुलग उठते हैं सिरहाने।
प्रतिबन्धों के फन्दे
कसते जाते पैंताने।

लगता, जैसे
कुचली हुई देह पर कोई
चला गया हो लोहे के पहिये।

(५)
 
 इस नगर में
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क्या किया आकर
तुम्हारे इस नगर में

हादसे-सा उगा दिन
काँपे इमारत-दर-इमारत
हाशियों-से खिंचे जीने
चीखते सैलाब में
धँस कर अकेली
थाहती है ज़िन्दगी
पल-क्षण-महीने

बाँह से जुड़ती न कोई बाँह
जैसे, आगये हों हम
किसी बंदी शिविर में
क्या किया आकर
तुम्हारे इस नगर में

रोशनी के इंद्रधनुषों
पर लटकते
प्लास्टिक के फ्यूज़ चेहरे
धुंधलकों में
चरमराती गंध के आखेट
हिचकियों पर हाँफते
संगीत ठहरे

सभ्यता रंगीन दस्ताने पहन
धकिया गयी मासूमियत
को चीरघर में
क्या किया आकर
तुम्हारे इस नगर में

(६)
अन्यथा हुआ 
------------------
अन्यथा हुआ 
सोचा सब अन्यथा हुआ 
व्यर्थ हुए हम तुम 
तुम हम 

आज तक किया गया सफर
कोरी चर्चाओं में बीता 
आंख से उतारकर मशाल 
भोगा कुछ स्वार्थ 
कुछ सुभीता
 बंजर विद्रोहों की भूमिका लिखी बंधा नहीं बांधे मौसम 

ऐसे भी लगता है बेहतर होगा चौतरफा बन्द रखूं  द्वार 
जो कभी न आवाजें दे 
मानूं बस उसका आभार 
सड़क का समुद्र लांघ लूं 
खिड़की पर खड़े खड़े 
गुमसुम!

मोड़ों पर जमी हुई रक्त की नदी में रुक-रुक कर चलती है
 कागज की नाव 
बियाबान में ठहरीं अजगर यात्राएं जल्दी मरुघाटी से पूछ रहीं
दूसरा पड़ाव 
अलगाना पुलों को तटों से 
एक यही काम रहा हरदम!

(७)

दिन पहाड़ से
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दिन पहाड़ -से
कल तक तिल थे
आज ताड़ -से

कितनी तेज धूप तो पहले
 कभी नहीं थी 
गर्द बहुत पहले भी थी 
पर इतनी गहरी 
जमी नहीं थी 

ऐसा क्या हो गया कि 
घर आंगन चौराहा 
अपने ,सपने 
सब उजाड़ से 

जीवन एक ग़ज़ल था 
अन्धा कुआं रह गया 
टूटे सभी रदीफ काफिये
 गया तरन्नुम
 धुआं रह गया 

आंख चुराकर 
फागुन के सम्बन्धों वाली
 हवा सो गई 
जड़ किवाड़  से


 फिर मुट्ठी भींच दी
----------------------

वैसे भी
क्या कम थे दायरे
एक और रेखा
अलगाव की
तुमने भी खींच दी ।

मुश्किल से
लौटी थी वंशी की टेर
अधरों के
कांँपते स्वरों पर
मुश्किल से
फूले थे प्यार के कनेर
बहुत दिनों बाद
आज पहनी थी
उजली पोशाक
बिलावजह तुमने ही
गरम राख
ढेर -सी उलीच दी ।

मुश्किल से रोपे थे 
कँकरीली
क्यारी के कोने में
नये-नये वायदे
तोड़े थे
आंँगन दहलीजों के
जंग लगे कायदे
मुश्किल से फैली थीं
काठ की अँगुलियाँ
फिर एक बार
तपा हुआ लोहू-पिण्ड
थमा दिया तुमने
फिर मुट्ठी भींच दी ।

 देश चढ़ रहा
---------------

औरों की
सीढ़ियांँ उधार ले
हाथी की पीठ पर
देश चढ़ रहा ।
आंँगन में भूखों का
वंश बढ़ रहा ।

मुट्ठी भर चावल की
किनकी
धूप मांँग लायी
कांँखती दुपहरी ने
ले-दे के
सिगड़ी सुलगायी
लक्ष्य तक
पहुंँचने के रास्ते
बहुत से हैं
परिवर्तित मौसम का
पांँव गलत पड़ रहा ।

छलनी-छलनी
लटका बाबा के
बाबा का
रेशमी अंँगरखा
कोने में पड़ा हुआ
वर्षों से
दादी के दादा का
दिया हुआ चरखा
झोली भर
झुर्रियांँ समेटे
बूढ़ा श्रम यायावर
रेती में गड़ रहा ।

निर्वासित मान्यता कुँआरी
बार-बार सीती है
फटी हुई अंँगिया
गली-गली चर्चे हैं
ऋतुकन्या मांँ बनी
दिन डूबे तक
पीसे घर-घर की चकिया
सूरज की हत्या का
पाप कौन झेलेगा
अंधा निर्णायक है
न्याय वृन्त उखड़ रहा ।

१०
इस तरह दिन कट रहे हैं
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इस तरह
दिन कट रहे हैं
भागवत के पृष्ठ से हम
महाभारत रट रहे हैं ।

सुबह की सोची कहानी
शाम को बदली
कण्ठ पर जो भैरवी थी
ओठ पर कजली
क्या शिकायत
और क्या अफसोस
आदत हो गई है
मातमी धुन पर
बताशे बँट रहे हैं ।

दूर से आता
हवन का धुआंँ, मंत्रोच्चार
बुझे चूल्हे पढ़ रहे हैं
धर्म का आचार
भीड़ से होकर
गुजरते हुए रिश्ते
मोड़ पर,
नीबू निचोड़े दूध जैसे 
फट रहे हैं ।

       ~ भगवान स्वरूप  'सरस '

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परिचय 
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जन्म- जुलाई १९३३ को ग्राम -लाखनमऊ, जिला-मैनपुरी (उ.प्र.)
शिक्षा- आगरा विश्वविद्यालय से स्नातक

कार्यक्षेत्र-
दैनिक जीवन में भगवान स्वरुप श्रीवास्तव के नाम से १९५४ से ५९ तक अध्यापन। पुनः कई नौकरियों के बाद म.प्र. शासन ग्रामीण विकास अभिकरण में सेवा निवृत्त होने तक कार्यरत। लेखन १९५० से अपने अंतिम समय तक। नवगीत दशक - एक के प्रमुख कवि।

प्रकाशित कृतियाँ --
गीत संग्रह- माटी की परतें, एक चेहरा आग का।
छंदमुक्त संग्रह- डैनों से झाँकता सूरज

निधन --१२ मार्च १९८५ को रायपुर, म.प्र. में

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