गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

देवव्रत जोशी जी के 12 नवगीत प्रस्तुति समूह वागर्थ

विगत 2,अप्रैल 2021 को ख्यात कवि देवव्रत जोशी जी हमारे बीच नहीं रहे। समूह वागर्थ अपने पाठकों को देवव्रत जोशी जी के 12 नवगीत और उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर देवव्रत जोशी जी के परम शिष्य युवा रचनाकार आशीष दशोत्तर जी का एक आलेख चर्चार्थ जोड़ कर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
प्रस्तुति
वागर्थ सम्पादक मण्डल

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   स्मरण 
देवव्रत जोशी 
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 (१)

धूपवाले दिन
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शीत ने कितने चुभोए
कोहरे के पिन
अलगनी पर टँक गए
लो, धूपवाले दिन

ठुमकती फिरती वसंती हवा
उपवन में,
गीत गातीं कोयलें
मदमस्त मधुबन में
फूल पर मधुमास करता नृत्य
ता धिन-धिन
अलगनी पर टँक गए
लो, धूपवाले दिन

पीतवसना घूमती सरसों
लगा पाँखें,
मस्त अलसी की लजाती
नीलमणि आँखें।
ताल में धर पाँव
उतरे चाँदनी पल छिन
अलगनी पर टँक गए
लो, धूपवाले दिन

दूर वंशी के स्वरों में
गूँजता कानन,
वर्जना टूटी
खिला सौ चाह का आनन।
श्याम को श्यामा पुकारे
साँस भर गिन-गिन
अलगनी पर टँक गए
लो, धूपवाले दिन

(२)

कुंभनदास गए रजधानी 
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कुंभनदास
गए रजधानी।

खूब लिखा
औ नाम कमाया
दाम नहीं जीवन में पाया
राजाजी ने
अब बुलवाया
भारी मन, जाने की ठानी

कुंभन पहुँचे
पैयाँ-पैयाँ
देखा चोखा रूप-रुपैया
लेकिन कहाँ
आ गए भैया
यहाँ नहीं मिलता गुड़-धानी

‘धत्तेरे की’
कह कर लौटे
लोग यहाँ के सिक्के खोटे
बिन पैंदे के हैं
सब लोटे
जमना है पर खारा पानी

(३)

नदी पद्मावती
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सूखकर काँटा हुई है
भील कन्या सी
नदी पद्मावती

ठूँठ से उतरी चिरैया
चुग रही है रेत
बुन रहा वन एक सन्नाटा
तैरते वातावरण में
संशयों के प्रेत

उबलते जल में पड़ी है
सोन मछली हाँफती

जिंदगी है
आदि कवि की आँख से
हरती व्यथा
भूमि से हैं आज निर्वासित
जनक जननी आत्मजा

फेंकता है काल अपने जाल
काँपती असहाय सी
बूढ़ी शती

(४)
बादल गरजे
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घनन घनन घन बादल गरजे
बिजली चम-चम-चम,
हाथ उठाकर धरती बोली
बरसो जितना दम।

नदिया चढ़ी, सरोवर बोले
भूल किनारों से,
प्यार बढ़ाओ
बात करो इन उच्छल धारों से।
प्रखर चुनौती खड़ी सामने
आँक रही दम खम।

फुनगी चढ़े पात-पात यूँ
करते गुपचुप बात,
इंद्रधनुष की पहन ओढ़नी
निकली है बरसात।
अधगीली मिट्टी में अँखुआ
नाचे छम-छम-छम।

अँगड़ाई ले उठा गाँव
कि अधमुरझाए पेड़,
हवा बावरी वन-वन डोले
रस की मार चपेड़।
झूम झूम कर कहे जिंदगी
जग है, जग से हम।

बूँद-बूँद कर रिसता पानी
मन में अगन भरे
मनभावन की सुधि नैनन में
सौ-सौ रूप धरे।
घन, बरसो पिय के आँगन
पर कहना दुःख कम-कम।

घनन घनन घन बादल गरजे
बिजली चम-चम-चम

(५)
मेघ सलोने
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भारी-भारी बस्ते लेकर
मेघ सलोने फिर
सावन-भादों की शाला में
पढ़ने आए हैं।

जेठ दुपहरी देख
किसी कोने में दुबक गए
कभी देख पुरवाई नभ में
मन-मन हुलस गए।

नन्ही-नन्ही आँखों में
खुशियाँ भर लाए हैं।

कभी जेब से
ओलों की टॉफी ले निकल पड़े
कभी किसी कोमल टहनी पर
मुतियन हार जड़े।

स्वाति बूँद बन कभी
सीप का मन हुलसाए हैं।

नटखट बचपन बन
उलटा दी स्याही अंबर पर
इंद्रधनुष निकाल बस्ते से
फेंक दिया घर-घर।

बिजली पर चढ़
ढोल नगाड़े
खूब बजाए हैं।

कभी नदी के घाट नहाने
मिलकर निकले हैं
धरती के कण-कण को छूकर
हरषे-सरसे हैं।

हंसों की पाँतों सा
सजकर
नभ पर छाए हैं।

(६)
हमने सुने राग दरबारी 
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भूपालों के
नगर गए हम
हमने सुने राग दरबारी।

जाजम पर
हमको बैठाया
सारा कर्ज़ माफ़ फ़रमाया
फिर वे लगे
नाचने खुद ही –
अपनी छवि होते बलिहारी।

देखे सत्ता
के गलियारे
कागज के मुख होते कारे
जन तिनके-सा
उड़ता दीखा
रजधानी की धज ही न्यारी।

(७)

झाबुआ 
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रेत भरी राहों में 
मिला एक अंधा कुआ
संज्ञा जिसकी झाबुआ 

हर मनुष्य सूर्यदास
और हर दिशादर्शक
कृष्ण छल
मृग मरीचिकाएँ आश्वासन की 
भटके न पाया जल 
दो बूँद जल
टाँग दिया इस अरण्य में
किसने लोकगीत गाता हुआ
यह सुआ ?

अलगोझा , माँदल या ढोल
ऊपर की मस्ती है 
भीतर है क्रन्दन 
आते हैं जब -जब भी राजकुँवर
भूमिपुत्र करता अभिनंदन 
धरती यहाँ की 
है खाँडव वन
हर मौसम 
जहर उगलता हुआ ।

(८)

अपना दोष कबूल हमें
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बड़े मजे में रह लेंगे
कुछ दिन और सलाखों में
हमने उँगली डाली थी
बदगुमान सपनों वाली उन आँखों में ।

अपना दोष कबूल हमें
फिर -फिर करनी होगी 
ऐसी भूल हमें

कुछ अपने हमशक्ल अगेंगे
बुझी हुई इन राखों में ।

यूँ इतराते मत डोलो 
खूब जहर है हममें 
ज्यादा मत घोलो

सूरज कभी दिखाई देगा
तुमको इन्ही सुराखों में ।

(९)

अदना सी औकात दिखाएँ 
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चुप न रहें 
ऐसे मौसम में
क्या कर लेंगे आप
अगर हम गाएँ तो ?

तितली -फूल -पात 
सब गाते 
आप इन्हें तो
टोक न पाते
हम भी ले फागुनी बहाना

बात निबौली-सी
कड़वी यह जाएँ तो ?

माना , मस्ती 
राख हो गई 
और बाँझ
हर शाख हो गई 
जैसे दिखे /लिखे वैसा ही
अपनी -अदना -सी 
औकात दिखाएँ तो ?
क्या कर लेंगे आप...

(१०)

कुछ बातें अफसोस की
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सुनने में बुरी 
किन्तु बातें अफसोस की 

खण्डकाव्य लिखा किए आप 
कथा कभी लिखी नहीं 
पास की , पड़ोस की ।
उखड़ रहे आँगंन के नीम
तुलसी के सौदे होते रहे
आप बस अदीब बने 
सलीबें स्वयं की 
ढोते रहे
कुआँ बुलाता ही रहा वहाँ

चाह आपकी न गई
चुटकी -भर ओस की ।

देशज परिवेश से कटे-कटे
भीड़ से हटे रहे सदा
सिर धुनती रहीं लोकभाषाएँ
आँग्ल -अभिजात्य से 
आप तो सटे रहे सदा
कछुए जैसी आत्मा पड़ी रही
देह दौड़ती रही 

मरुस्थल में 
भटके खरगोश सी  ।

(११)

महुए पके
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महुए पके 
मजूर थके 
सुस्ताने आए । इसके नीचे ।

तोड़ पहाड़ 
हाड़ अपने
वे देख रहे
कुछ कच्चे सपने 
मैं इनको तकता हूँ 
बैठे -बैठे ही थकता हूँ

आँख शर्म से मीचे ।

महुआ इनके लिए 
सिर्फ़ महुआ
उनको है माणिक -मोती
लेकिन भूमिपुत्र की 
आँखों में दमकी अब 
कोई जोती 

सिंहासन की ओथ घूरता
आज -
धनुष की डोरी खींचे ।

(१२)

देखो दिल्ली 
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आओ भाई दिल्ली देखो
कभी राजरानी यह 
और कभी खिसियानी बिल्ली , देखो 

खेल यहाँ के 
बड़े निराले
मधुर निवाले 
मीठे प्याले

वेश्या कहो 
याकि सतवन्ती
पर है बड़ी चिबल्ली देखो

शहर गाँव सब 
लील रही यह 
बिना उस्तरा 
छील रही यह

इसका भारी 
डण्डा देखो
नीचे दबती गिल्ली देखो

         ~ देवव्रत जोशी 

परिचय -
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देवव्रत जोशी
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जन्म- १ दिसंबर १९३५ को रावती जिला रतलाम में
प्रकाशित कृतियाँ-
कविता संग्रह-
अपने से गुजरते हुए, बापू के बेटे, जूती रैदास की, छगन वामानी एवं अन्य कविताएँ।
गद्य संग्रह-
कबीर किसकी जायदाद है (ललित व्यंग्य संकलन), शब्दकार और लोहे की सरगम (विचारात्मक निबंध), गद्य शिल्पी दिनकर (दिनकर का गद्य साहित्य)।
निधन -०२ /०४/२०२१

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही प्रभावी सारगर्भित सृजन,,, आदरणीय के प्रति विनम्र श्रद्धांजलि । आपकी इस श्रमसाध्य साहित्य सेवा का बहुत अभिनन्दन भाई मनोज जी ।।

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