मछेरे फेंक न जल में जाल
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आत्मीय मित्रो वागर्थ में प्रस्तुत है एक गीत बहुत दिनों से बंधन और मुक्ति की छटपटाहट ऊहापोह उठा-पटक मन में चल रही है। बहुत सोचने पर भी मुझे बंधन की चाह समझ में ही नहीं आई।
विश्व में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो अकारण काल के गाल में समा जाना की चाहत रखता हो। और फिर कुटिल मछेरा कोई ईश्वर या अवतारी भी तो नहीं कि कोई भोली-भाली मछली इस दुष्ट आत्मा के हाथों मरकर मुक्ति की वाँछा इच्छा या कामना रखती हो।
मित्रो! हमनें तो "जिओ और जीने दो" के दर्शन को जिया है। यह दर्शन पढ़ा भी है और अच्छा भी लगता है। हम सभी को जुमलेन्द्रों के जुमलों पर विचार करना चाहिए। मछेरे सावधान हो जा की इस सीरीज में हम अन्य कवियों की रचनाएं भी देने जा रहे हैं।
बस प्रतीक्षा करें और यह गीत पढ़कर अपनी निष्पक्ष प्रतिक्रियाएं भी दें।
प्रस्तुति
वागर्थ
गीत
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मछेरे फेंक न जल में जाल
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मर जाएंगी कई मछलियाँ
मत बन इनका काल
मछेरे फेंक न जल में जाल।
बंधन की परिभाषा तूने
कितनी झूठी गढ़ ली।
उलटी पोथी पढ़ा रहा है,
और स्वयं भी पढ़ ली।
दोनों हाथ उठाकर ऊपर,
जुमले नहीं उछाल।
मछेरे फेंक न जल में जाल।
सोच कि तेरी थुलथुल काया,
पकड़े क्रेन उठाए।
जब मानू तब बंधन वाला
भाव हृदय में आए।
उत्तर देना पूछ रहा हूँ
तुझ से एक सवाल
मछेरे फेंक न जल में जाल।
मान कि तुझको धर दे कोई,
बुल्डोजर के नींचे।
चाह सँजोता बँध जानें की
तब क्या आँखें मींचे?
गङ्गा जल से मन को धो ले
डाल गले में माल
मछेरे फेंक न जल में जाल।
मान कि तू है बकरा तेरे
सनमुख खड़ा कसाई।
बंधन या फिर मुक्ति चुनेगा
बता सभी को भाई।
रखे थाल में प्रश्न सँजोकर
कर इनकी पड़ताल
मछेरे फेंक न जल में जाल।
मनोज जैन
@everyone
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