रविवार, 7 जुलाई 2024

मनोज जैन का एक नवगीत


ठुकी खुरों में लंबी कीलें
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बिदक रही क्यों 
बूढ़ी घोड़ी,
मेरे एक सवाल पर?

कहता मैं आँखों की देखी।
वह लाती कागद की लेखी।
कहूँ आग को मैं क्यों पानी।
सोच हुई मुझको हैरानी।
बिना समझ के गुणा-भाग के,
कोलाहल वह कहे राग को।

ठुकी खुरों में 
लंबी कीलें,
इतराती है नाल पर।
बिदक रही क्यों 
बूढ़ी घोड़ी,
मेरे एक सवाल पर?

आपस में क्यों खींचा तानी।
गया कहाँ नदियों का पानी।
क्यों हाथों को काम नही है।
रंच मात्र आराम नहीं है।
सुन लेती है भोली जनता,
राजा कहता मैं अवतारी।

काटे जाते 
वही पेड़ क्यों,
बैठे जिसकी डाल पर?
बिदक रही क्यों 
बूढ़ी घोड़ी,
मेरे एक सवाल पर?

जन गण का मंगल कब होगा।
जिसने तिल तिल कर दुख भोगा।
हम भविष्य कब गढ़ पाएंगे।
मन चाहा कब पढ़ पाएंगे।
खादी कसती रही सिकंजा,
हमें मिले इससे आज़ादी।

इतराना इठलाना 
कैसा,
बोलो जी इस हाल पर?
बिदक रही क्यों 
बूढ़ी घोड़ी,
मेरे एक सवाल पर?
                   
      मनोज जैन 
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