मंगलवार, 9 जुलाई 2024

कवि हुकुमपाल सिंह 'विकल' जी के दो नवगीत प्रस्तुति : ब्लॉग वागर्थ

हुकुमपाल सिंह विकल जी के दो नवगीत

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कवि हुकुमपाल सिंह 'विकल'जी के दो नवगीत

                    


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                                       विधागत संचरणशीलता मेरे स्वभाव का अभिन्न हिस्सा है पिछले हफ्ते देश के प्रख्यात साहित्यकार श्यामसुंदर दुबे जी के ललित निबन्ध के संकलन की एक पुस्तक 'कोई खिड़की इसी दीवार से' पढ़ रहा था। संकलन का नौवां ललित निबन्ध है "आग लगै तोरी आती-पाती" इस निबन्ध में श्यामसुंदर दुबे जी कवि त्रिलोचन जी की एक कविता 'चम्पा काले-काले अच्क्षर नहीं चीन्हती' के माध्यम से मानवीय संवेदना की सघन चर्चा की है।


                        लेखक ने संवेदनतहों की परत दर परत पड़ताल करते करते, मन की संवेदना को लोकमन की संवेदना से सलीके से जोड़ा है। पूरा निबन्ध बार-बार पठनीय है और हर बार नए अर्थ की व्याप्ति से पाठक को बाँध लेता है। निबन्ध में सहजता और स्वाभाविकता होने से ही यह बार-बार पठनीय है।

                              कुछ दिनों से मैं अपने अग्रलेख में स्वाभाविक और ठूँसे गए प्रतिरोध पर लगातार बात कर रहा हूँ और आगे भी करता रहूँगा। एक उदाहरण इस सन्दर्भ में मुझे प्रासंगिक लग रहा है। मंच पर एक कृषकाय कवि, वीर रस में पड़ोसी देश या सत्ता / विपक्षी पार्टी को सीधे-सीधे गरियाकर तालियाँ तो बटोर सकता है परन्तु अपने बनावटी संवेदन को स्वाभाविक संवेदन में नहीं बदल सकता।

       जैसे त्रिलोचन जी की कविता की एक पात्र चम्पा अनपढ़ होने पर भी संवेदना को पढ़ना जानती है, ठीक वैसे ही आम पाठक या आम श्रोता कविता में असली और नकली संवेदना और अवधारणा की सच्ची परख कर लेता है।

                              इसीलिए मेरी दृष्टि में पाठक बड़ा है और महत्वपूर्ण भी इस पूरे विमर्श का सार कवि हुकुमपाल सिंह जी अपने आत्मकथ्य में सिर्फ एक पँक्ति में पहले ही व्यक्त कर चुके हैं वे कहते है कि "गीत मानव मन के अन्तस् की प्रतीति है,अंतरदृष्टि और संवेदना की सरस अभिव्यक्ति भी।"

             प्रस्तुत गीतों में कवि की स्वाभाविक संवेदनाओं को पढ़ा समझा और महसूस किया जा सकता है।

आइए पढ़ते हैं सहज सरल सच्ची संवेदना के समय से मुठभेड़ करते हुए दो गीत


प्रस्तुति

©वागर्थ सम्पादक मण्डल

©वागर्थ ब्लॉग


खाते नहीं बने

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रोटी एक, खड़े आँगन में

भूखे चार जने

खाते नहीं बने


पहली किरण भोर की आई

उससे पहले जागे

पूरी धूप गई ऊपर से

हाथ न रुके अभागे


फिर भी रोटी के सौदागर 

रहते तने-तने


दिन-दिन बहा पसीना माथे

कटी रात सपनों में

संवेदन की एक झलक भी

नहीं दिखी अपनों में


आशा के अंबर में कितने

बादल घिरे घने


चार जनों ने उस रोटी को

सहज बाँट कर खाया

देख उसे आँगन का विरवा

मन ही मन मुस्काया

द्वार देहरी इसी खुशी में

लगे संग नचने


दो


अँधियारे छ्टे नहीं

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कितने जतन किए फिर भी

अंधियारे छ्टे नहीं


सूरज की तानाशाही ने

ऐसे रंग बिखेरे

राजपथों पर डाल दिए

ओछी किरणों ने डेरे


दर्प सुनहरी कड़ी धूप के

बिलकुल घटे नहीं


आतंकों के हाथ लग गई

उजियारों की चाबी

इसीलिए हो रहे धुंधलके 

द्वार द्वार पर हाबी


जिनके पुरखों वाले कर्जे

अब तक पटे नहीं


सांस हवन की दीपक ने तो

ऐसी चलीं हवाएं

लगी टूटने परम्परा से

नेह भरी निष्ठाएं


सुख तो बंटते रहे आज तक

पर दुख बंटे नहीं


घूरे के दिन भी फिरते हैं 

ये दिन कहाँ रहेंगे

और कहाँ तक दीप विचारे

अत्याचार सहेंगे


इसीलिए अब तलक आस्था 

से वे हटे नहीं


हुकुमपाल सिंह 'विकल'

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