हुकुमपाल सिंह विकल जी के दो नवगीत
____________
कवि हुकुमपाल सिंह 'विकल'जी के दो नवगीत
_________________________________
विधागत संचरणशीलता मेरे स्वभाव का अभिन्न हिस्सा है पिछले हफ्ते देश के प्रख्यात साहित्यकार श्यामसुंदर दुबे जी के ललित निबन्ध के संकलन की एक पुस्तक 'कोई खिड़की इसी दीवार से' पढ़ रहा था। संकलन का नौवां ललित निबन्ध है "आग लगै तोरी आती-पाती" इस निबन्ध में श्यामसुंदर दुबे जी कवि त्रिलोचन जी की एक कविता 'चम्पा काले-काले अच्क्षर नहीं चीन्हती' के माध्यम से मानवीय संवेदना की सघन चर्चा की है।
लेखक ने संवेदनतहों की परत दर परत पड़ताल करते करते, मन की संवेदना को लोकमन की संवेदना से सलीके से जोड़ा है। पूरा निबन्ध बार-बार पठनीय है और हर बार नए अर्थ की व्याप्ति से पाठक को बाँध लेता है। निबन्ध में सहजता और स्वाभाविकता होने से ही यह बार-बार पठनीय है।
कुछ दिनों से मैं अपने अग्रलेख में स्वाभाविक और ठूँसे गए प्रतिरोध पर लगातार बात कर रहा हूँ और आगे भी करता रहूँगा। एक उदाहरण इस सन्दर्भ में मुझे प्रासंगिक लग रहा है। मंच पर एक कृषकाय कवि, वीर रस में पड़ोसी देश या सत्ता / विपक्षी पार्टी को सीधे-सीधे गरियाकर तालियाँ तो बटोर सकता है परन्तु अपने बनावटी संवेदन को स्वाभाविक संवेदन में नहीं बदल सकता।
जैसे त्रिलोचन जी की कविता की एक पात्र चम्पा अनपढ़ होने पर भी संवेदना को पढ़ना जानती है, ठीक वैसे ही आम पाठक या आम श्रोता कविता में असली और नकली संवेदना और अवधारणा की सच्ची परख कर लेता है।
इसीलिए मेरी दृष्टि में पाठक बड़ा है और महत्वपूर्ण भी इस पूरे विमर्श का सार कवि हुकुमपाल सिंह जी अपने आत्मकथ्य में सिर्फ एक पँक्ति में पहले ही व्यक्त कर चुके हैं वे कहते है कि "गीत मानव मन के अन्तस् की प्रतीति है,अंतरदृष्टि और संवेदना की सरस अभिव्यक्ति भी।"
प्रस्तुत गीतों में कवि की स्वाभाविक संवेदनाओं को पढ़ा समझा और महसूस किया जा सकता है।
आइए पढ़ते हैं सहज सरल सच्ची संवेदना के समय से मुठभेड़ करते हुए दो गीत
प्रस्तुति
©वागर्थ सम्पादक मण्डल
©वागर्थ ब्लॉग
खाते नहीं बने
___________
रोटी एक, खड़े आँगन में
भूखे चार जने
खाते नहीं बने
पहली किरण भोर की आई
उससे पहले जागे
पूरी धूप गई ऊपर से
हाथ न रुके अभागे
फिर भी रोटी के सौदागर
रहते तने-तने
दिन-दिन बहा पसीना माथे
कटी रात सपनों में
संवेदन की एक झलक भी
नहीं दिखी अपनों में
आशा के अंबर में कितने
बादल घिरे घने
चार जनों ने उस रोटी को
सहज बाँट कर खाया
देख उसे आँगन का विरवा
मन ही मन मुस्काया
द्वार देहरी इसी खुशी में
लगे संग नचने
दो
अँधियारे छ्टे नहीं
_____________
कितने जतन किए फिर भी
अंधियारे छ्टे नहीं
सूरज की तानाशाही ने
ऐसे रंग बिखेरे
राजपथों पर डाल दिए
ओछी किरणों ने डेरे
दर्प सुनहरी कड़ी धूप के
बिलकुल घटे नहीं
आतंकों के हाथ लग गई
उजियारों की चाबी
इसीलिए हो रहे धुंधलके
द्वार द्वार पर हाबी
जिनके पुरखों वाले कर्जे
अब तक पटे नहीं
सांस हवन की दीपक ने तो
ऐसी चलीं हवाएं
लगी टूटने परम्परा से
नेह भरी निष्ठाएं
सुख तो बंटते रहे आज तक
पर दुख बंटे नहीं
घूरे के दिन भी फिरते हैं
ये दिन कहाँ रहेंगे
और कहाँ तक दीप विचारे
अत्याचार सहेंगे
इसीलिए अब तलक आस्था
से वे हटे नहीं
हुकुमपाल सिंह 'विकल'
_________________
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें