सोमवार, 8 जुलाई 2024

सत्यप्रसन्न जी के नवगीत : वर्तमान का दस्तावेज"


"सत्यप्रसन्न जी के नवगीत : वर्तमान का दस्तावेज"
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        20 वीं सदी के पाँचवें दशक के प्रारंभ में कविता ने अपने परंपरागत प्रतिमानों लय, छंद, तुक, संगीतात्मकता तथा भावात्मक तरलता को नकारकर, हिंदी कविता के प्रयोगवाद ने नई कविता के रूप में प्रवेश लिया था । अब कविता गद्यात्मक एवं बौद्धिक अस्त्रों से लेस हो गई । इसमें भाषा को नया तेवर मिला; नए प्रतीकों, बिंबों को बिना किसी झिझक के अपनाया गया । यह कविता प्रारंभ में तो कौतूहल का विषय रही किंतु बाद में अति बौद्धिकता, गद्यात्मकता, अति प्रतीकात्मकता एवं अगेयता के कारण जन-मानस से निरंतर दूर तथा नीरस होती गई । यह कविता सोद्देश्य तो रही लेकिन लोक-रंजन से विमुख रही । इस कविता की संप्रेषणीयता निरंतर जटिल होती गई । यद्यपि कविता में नवोन्मेष का सूत्रपात "नव गति, नव लय, ताल, छंद नव..." कहकर महाप्राण निराला पहले ही कर चुके थे तथापि कविता के इसी उबाऊपन, बोधगम्यता की जटिलता और दुरूहता के कारण कविता में नवता की आहट अब स्पष्ट रूप से सुनाई देने लगी थी । यह आहट और नवोन्मेष की छटपटाहट मुक्त छंद कविता से कई मायनों में भिन्न थी । इस नवतायुक्त कविता को तब के कई विद्वानों ने अलग-अलग संज्ञाएँ दीं । जहाँ डॉ रामदास मिश्र तथा सिया रामशरण आदि ने इसे 'आज का गीत' कहा तो बाल स्वरूप रही तथा 'शलभ' श्री राम सिंह ने कविता के इस नवोत्थान को 'नया गीत' कहा । कुछ और कवियों ने इसे विभिन्न नाम से अभिहित किया । इस नव्यताबोध, नूतन शिल्पयुक्त, छांदस कविता/गीत को सर्वप्रथम सन् 1958 में राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने "नवगीत" का नाम दिया । बाद के कवियों ने इसी नवता का समर्थन करते हुए नवगीत को पूर्णतः परिपुष्ट किया । यहाँ यह बात भी कह देना आवश्यक है कि जिस प्रकार प्रयोगवाद 'नई कविता' की पृष्ठभूमि बना उसी तरह छायावादोत्तर गीत का अर्थ और काम प्रेरित अकुंठ स्वर 'नवगीत' की पृष्ठभूमि बना । इनमें तब से अब तक 'नवगीत' शब्द के प्रथम प्रयोक्ता राजेंद्र प्रसाद सिंह, वीरेंद्र मिश्र, डॉ इंद्रनाथ मदान, डॉ विजयेंद्र स्नातक, डॉ शंभू नाथ सिंह, विष्णुकांत शास्त्री,  डॉ रवींद्र भ्रमर, डॉ0 रामसनेही लाल 'यायावर', बुद्धिनाथ मिश्र, श्याम नारायण मिश्र, डॉ कुंवर बेचैन, रमेश रंजन, दिनेश सिंह, कैलाश गौतम, माहेश्वर तिवारी, शांति सुमन, नचिकेता, आचार्य भागवत दुबे, राम सेंगर, चंद्रसेन विराट, सोम ठाकुर, रामदरश मिश्र, महेश अनघ, देवेंद्र शर्मा इंद्र, उमाकांत मालवीय, मधुकर आष्ठाना, श्रीकृष्ण तिवारी, रमेश चंद्र पंत, अमरनाथ श्रीवास्तव, इसाक़ अश्क़, पंकज परिमल, रामावतार त्यागी, बालस्वरूप राही, मणि मधुकर, कुमार रविंद्र, गुलाब सिंह, मयंक श्रीवास्तव, मुकुट सक्सेना, राधेश्याम बंधु, अवध बिहारी श्रीवास्तव, विद्यासागर वर्मा, राजा अवस्थी, जयप्रकाश श्रीवास्तव, विजय राठौर, पारसनाथ मिश्र, वीरेंद्र निर्झर, विनय भदोरिया, जयराम जय, जगदीश पंकज, गुणशेखर, पूर्णिमा बर्मन, डॉ संध्या सिंह, वीरेंद्र आस्तिक, रवि खंडेलवाल, रामकिशोर दहिया, राजेंद्र गौतम, महेंद्र श्रीवास्तव, शिवानंद सिंह सहयोगी, विजय किशोर मानव, अनूप अशेष, अवनीश त्रिपाठी, विजय बागरी 'विजय', ईश्वरी प्रसाद यादव, संजीव वर्मा सलिल, सत्यप्रसन्न, जय चक्रवर्ती, चित्रांश वाघमारे, अविनाश ब्यौहार, आनंद तिवारी, राजकुमार महोबिया, मनोज जैन 'मधुर', अनामिका सिंह, बसंत शर्मा, ईश्वर दयाल गोस्वामी, विनय विक्रम, राघवेंद्र तिवारी, राजकुमार राज़ आदि नवगीतकारों का नाम ससम्मान लिया जाता है । यहाँ सभी का नाम लेना संभव नहीं । वर्तमान में नवगीतकारों की सूची में निरंतर नए नाम जुड़ रहे हैं ।
        गीत जबकि अंतर्मन की कोमल संवेदनाओं का छांदस व भावनात्मक प्रकटन है वहीं आज का नवगीत नवता शब्द, भाव, शिल्प, विचार, छन्द, प्रतीक-प्रयोग, बिम्ब, कहन, नवीन शैलियों के खुरदुरे पथ की असीम यात्रा है । नवगीत भी गीत की परंपरा का अधुनातन वाहक है । सदियों पुरानी गीत की इस यात्रा को समय के साथ चलते हुए नए युग के नए आलोक में प्रवेश तो करना ही था । यही बात है कि परंपरा के पथ पर चलते हुए यह समय-सापेक्ष नए तेवर, नई भाषा, नया शिल्प स्वीकार करता गया । 
          इस यात्रा में पिछले डेढ़ दशक से हैदराबाद के चर्चित नवगीतकार सत्यप्रसन्न जी का नाम बड़ी तेज़ी से सामने आया है । उनकी गीत-यात्रा में नवता की छटपटाहट, युगीन स्वर बहुत पहले से देखा जा सकता है । सत्यप्रसन्न जी सर्वप्रथम गीतकार हैं बाद में नवगीतकार । इसीलिए वे अपने नवगीतों में कहीं भी छंदानुशासन से विचलित नहीं होते । तथापि उनके गीतकार और नवगीतकार होने के बीच कोई द्वंद्व या विभ्रम दिखाई नहीं देता । वे अगर गीतकार हैं तो विशुद्ध रूप से कोमल मन के गीतकार हैं और यदि नवगीतकार हैं तो आज के नवगीतकारों की बस्ती में नई बिरादरी के ठेठ नवगीतकार हैं । सत्यप्रसन्न जी के नवगीत अधुनातन बोध से प्रकट हुए बुद्धि छने संवेदन और संवेग की लयात्मक अभिव्यक्ति हैं । युग के संत्रास को गीतजीवी बना देना उनका वैशिष्टय है । युग की संश्लिष्ट पीड़ाओं की अनुभूतियाँ उनमें अक्षर, शब्द और वाणी पाती हैं--
"ओस चाटकर/प्यास बुझाने/की अपनी मजबूरी ।
 धरती सूरज/के जितनी/खुशियों से अपनी दूरी ।।
 खोज रहे/मरुथल में झोंकें/हम चंदनगंधी बयार के ।
 कैसे गाएँ गीत प्यार के ।।"

        उनके नवगीत उनके अपने भोगे समय और जीवन की आत्माभिव्यंजना तो हैं किंतु उनका यह जीवन उनके नवगीतों में अभिव्यक्त होकर सिर्फ उन तक नहीं रह गया बल्कि यह सबका जीवन और सब का सच बनकर प्रकट हुआ है । उनका अपना समय, अपना दर्द, सबके समय और सबके दर्द को अपना बनाकर आगे बढ़ता है । वे अपने दर्द को स्वर देते हैं तो सबके दर्द सिसक उठते हैं; सबकी संवेदनाएँ अनुप्राणित हो जाती हैं । समय और सत्ता के झूठे वादों पर ठगे जाने की  व्यथा उनकी अपनी ही नहीं बल्कि विकास की पंक्ति के अंतिम छोर के हर आदमी की है--
"वादों की/थाली में वो ही/आश्वासन के पोल दाने ।
 रख लेते हैं/सत्य समझ हम/अंधे बहरे गूँगे काने ।।
 हम केवल हैं/विषय आपकी/महफिल में बस वाग्विलास के ।"

          समय के भय से आक्रांत होकर आज सत्य ने खुद अपना स्वाभिमान और अपने अस्त्र त्याग दिए हैं--
"तिमिरवर्णा भाग्य के/लेखे अनूठे ।
 सत्य ने पहने हुए हैं/वस्त्र झूठे ।।
 जलज काले दृष्टि-पथ में/हैं घनेरे ।
 आग लेकर आ गया/सूरज सबेरे ।।"

         युग के संत्रासों को स्वर देते हुए जहाँ उनकी भाषा सीधे, सपाट लहजे और बिना किसी लाग-लपेट के लट्ठमार शब्दावली को अपनाती है, वहीं कथ्य के स्तर पर उनकी 'अप्रोच' बौद्धिक है । यह बौद्धिकता सत्यप्रसन्न जी के अपने युग की ही देन है; समय की ज़रूरत है, जिसे स्वीकार करने में उन्हें कोई झिझक नहीं । उन्होंने इस युग को स्वर देने में भावुकता के पुराने जाल को दरकिनार कर युग के एक नवीन स्वरूप को सजाया और निखारा है । परंपराओं के मकड़जाल के इसी त्याग ने उनके नवगीतों को समृद्ध किया है; नई पहचान दी है । उन्हें इस बात का भान है कि हर नवगीत पहले गीत है, बाद में नवगीत । गीत में 'नव' उपसर्ग जोड़ देने से नवगीत के गीत-तत्व त्याज्य नहीं हो जाते । उनके नवगीत वास्तव में युग की सच्ची गीतात्मक अभिव्यक्ति हैं । इसलिए वे नवगीत के नए तत्वों के हामी होते हुए भी गीत के प्रवाह-तत्व और छंद को कहीं भी नहीं छोड़ते--
   "हवा सहमकर आती/भी तो/सन्नाटा बुनती है ।
    क्षण भर ठिठकी/धूप द्वार पर/चार सगुन गुनती है ।।
    जाने कैसी है/दुनिया अब/उस खिड़की के पार ।
    बदल गई/संझा की सूरत/बदल गया भिनसार ।।"

          नवगीतकार सत्यप्रसन्न जी के नवगीतों में ठेठ आधुनिक भावबोध है । वो यह अनुभव करते हैं कि युग की आधुनिकता में प्रश्नों का अंबार है । यह आधुनिकता हर दिशा, हर क्षेत्र और हर ओर प्रश्न ही प्रश्न खड़े करती है । प्रश्नों के इस उद्वेलित भँवरजाल में तिनके जैसे तिरते रहना हमारी नियति बन गई है । आज़ादी के इतने सालों बाद भी आम आदमी विकास की पंक्ति के आख़िरी छोर पर ही है । क़ीमत और महत्वहीन 'कास घास' की तरह केवल कवि ही नहीं बल्कि समय के संत्रास को भोगता हर आम आदमी दिखाई देता है--
"क्या क़ीमत/दोगे बाबूजी/हम तो ठहरे फूल कास के"
          
       उनकी दृष्टि में यह समय श्रेष्ठ मूल्यों की अग्नि-परीक्षा का समय है । इसमें आस्थाओं के निकष हैं; अनास्थाओं की भीड़ है; मन से संवेदनाएँ चुक गई हैं;  कुंठित ग्रंथियाँ छटपटा रही हैं; दर्द, वेदना, और घुटन है । महानगरीय जीवन में रहते हुए व्यक्ति यंत्रवत् हो गया है । तभी तो वह लिखते हैं-
"पेट हाँकता/हमें यंत्रवत्/नित अनजानी राह"

        नवगीतकार सत्यप्रसन्न पुराने और नए युग के संधि-काल के कवि हैं । नए युग तक आते-आते आदर्श मूल्यों की अस्मिता का संकट उन्हें पीड़ित एवं प्रताड़ित करता है और वो वेदनाविह्वल हो जाते हैं । अपने आपको चारों ओर से स्वार्थपरक रिश्तों से घिरा पाते हैं । अब न वो रिश्ते रहे, न वो अपनत्व ना ही वैसे लोग । साँध्य चौपालों के स्वर और कबीरी न्याय के चबूतरे बदल चुके हैं । मूल्यों के ह्रास की पीड़ा उनके नवगीतों में सर्वत्र दिखाई देती है । साँझ की फुर्सतों की वो बैठकें, स्वप्निल कहानियाँ एवं सबको सबकी रामकहानियाँ सुनने की आदतें बदल गई हैं--
"बदल गई/संझा की सूरत/बदल गया भिनसार ।
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 मौन एक आकर/कर जाता/है बातें दो-चार ।
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 जाने कैसी है/दुनिया अब/उस खिड़की के पार ।"
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"कल परसों तक/राम-राम कर जाते थे/कुछ चेहरे ।
 उन आँखों में/वितृष्णा के रंग/आज हैं गहरे ।"

          सत्यप्रसन्न जी में इस बदले युग को नई भंगिमा के साथ अभिव्यक्त करने की एक जीजीविषा है, एक ललक है । इसके लिए वो अपने तरह के छंदों, युगानुकूल नए बिंबों, नए प्रतीकों और नए शब्दों को गढ़ते हैं । उनके बिंब नितांत नवीन और टटके हैं । नए-नए बिंबों का सृजन करते समय उनके नवगीतों में सभी तरह के बिंब, यथा- ऐंद्रिय बिंब, घ्राण बिंब, स्पर्श बिंब, दृश्य बिंब, पौराणिक बिंब, लोक बिंब एवं सांस्कृतिक बिंब सहज ही आ गए हैं --
"पैताने है/अजगर अपने/सिरहाने है नाग ।
 उम्मीद की/टूटी खटिया/बैठी जैसे झाग ।
 ताली पीट/रही है किस्मत/और कह रही वाह !"
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"अपना नाम/लिखें पानी में और मिटाएँ ।
 झुक आया/आकाश, ठेलकर परे हटाएँ ।"
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"नहीं और अब/आया करते/मौसम के आमंत्रण 
 नहीं बुलाती देहरी/करता/याद नहीं है प्रांगण ।"
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'परिणय हुआ/वेदना से जब/दुख ने द्वाराचार किया"

          नवगीत ने शिल्प, प्रतीक, बिंब, छंद आदि के स्तर पर नवता को तो अपनाया ही है, साथ ही इसने परंपरागत मार्दवयुक्त कोमलकांत पदावली का मोह त्यागकर भाषा के स्तर पर सर्वथा नए प्रयोग किए हैं और इसी नई भाषा को अपनाया है । अब भाषा के क्षेत्र में नवगीत में खुरदुरी भाषा का प्रयोग होने लगा । नवगीत में ऐसे शब्दों का भी प्रयोग होने लगा जिन्हें 'अकाव्यात्मक' कहा जाता था, जो परंपरागत गीत में बहिष्कृत थे । नवगीत की भाषा अब किसी विशेष भाषा के पिंजरे में कैद होकर नहीं रही । हिंदी, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी भाषा के शब्दों के साथ-साथ बोली के शब्दों को भी इसने सहर्ष स्वीकार किया, धड़ल्ले से प्रयोग किया । भाषा के स्तर पर नवगीतकार सत्यप्रसन्न जी भी ऐसी ही भाषा के पक्षधर हैं, जो युगानुकूल हो; जिसमें लोक-संपृक्ति हो; जिसका दर्द है उसी की ही भाषा में वह अभिव्यक्त हो । सत्यप्रसन्न जी ने अर्थगर्भी लाक्षणिक और व्यंजनापरक भाषा-प्रयोग को स्वीकार किया है । उनकी भाषा में कहीं भी कृत्रिमिता दिखाई नहीं देती । सत्यप्रसन्न जी के नवगीतों में ध्वनि-संघात से नया अर्थ पैदा करने का कौशल सर्वत्र दिखाई देता है । उनके नवगीतों की भाषा चौकाने या भटकाने वाली नहीं, बल्कि वक्रता प्रधान और सरल है । उन्होंने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो उनकी जातीय ज़मीन का रस लिए हुए हैं--

"बित्ते भर का पेट/पेट में/गज भर की है भूख ।"
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"बँधवाकर देख लिए गंडे-ताबीज़ ।"
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"मन के परती/खेत उगी/कैसी दुख की फसल गझिन ।"
            
            सत्यप्रसन्न जी जिस कथ्य को उठाते हैं उसी के अनुकूल भाषा और शब्दों का चयन भी करते हैं । सहज बोधगम्य बोली के शब्दों को भी अपने नवगीतों में लेने से उन्हें कोई हिचक नहीं । उनकी यही विशेषता उनके नवगीतों को अत्यंत प्रभावी एवं मारक  बनाती है । परंपरागत गीत से बहिष्कृत शब्द- गंडे, ताबीज़, पिन, कास घास, खाल, वर्गमूल, बित्ता, गज, कंदील, चील, अजगर, नाग, खटिया, झाग, पॉपकॉर्न, कुल्हड़, पाजामा, जुमले, चूल्हा, पज़ल, सपेरे, चुल्लू, रार, दीनार जैसे बहुभाषी शब्दों को अपनाने में उन्हें कोई झिझक नहीं--

"खूब पटाफट/फूट रहे हैं/पॉपकॉर्न-से वादे 
 बता रही है/दिल्ली उसके/क्या हैं और इरादे ।"
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"उम्मीदों के/बरगद को हैं/कुल्हड़ जैसे गमले ।
 शब्दकोश में/और शेष हैं/कितने आखिर जुमले ।"

       कवि सत्यप्रसन्न अपने कथ्य को प्रस्तुत करने के लिए  बिना किसी पूर्वाग्रह के सिर्फ बहुभाषी शब्दों का ही प्रयोग नहीं करते बल्कि वह शब्दों को आगे पीछे करके मुहावरों का प्रयोग भी बड़ी कुशलता से करते हैं--
"पगडंडी की/खाल खींचकर/सड़कें ढालो जितनी चाहे"
                         --खाल खींचना
"ओस चाटकर/प्यास बुझाने/की अपनी मज़बूरी"
                         --ओस चाटना
"पर इच्छा लाँघ रही/रह-रह दहलीज"
                         --दहलीज लाँघना
"चलो एक तिल/बोकर उसको ताड़ बनाएँ"
                         --तिल का ताड़ बनाना

       परंपरागत गीत में मुखड़ा एवं गीत के बंदों को एक ही छंद पर लेना ज़्यादातर उचित माना जाता था । कभी-कभी इन गीतों में मुखड़ा किसी और छंद पर और गीत के बंद किसी अन्य छंद पर होते थे । अब नवगीतकारों ने छंद के स्तर भी नए-नए प्रयोग किए हैं । परंपरागत छंदों को तोड़ा है । उनके लिए यह ज़रूरी नहीं कि उनके छंदों की पंक्तियाँ निश्चित ही हों । मुखड़ा किसी और छंद में तो बंद किसी और छंद में हो सकते हैं । उन्होंने परंपरागत छंदों का भी मोह त्यागकर बिना संकोच के अपने मन के छंद गढ़े हैं । 
          नवगीतकार सत्यप्रसन्न जी के लिए यहाँ यह बात कहना आवश्यक है कि उन्होंने अधिकतर नवगीतों में परंपरागत छंदों का ही प्रयोग किया है । इनमें राधेश्याम छंद, सरसी छंद, सार छंद, चामर छंद, नाराच छंद, मनोरम द्विगुणित छंद, विष्णुपद छंद, ताटक छंद, आल्हा छंद, कुकुभ छंद आदि सहजता से देखने को मिल जाएँगे । किंतु उनके कई नवगीतों के मुखड़े किसी अन्य छंद में तो बंद किसी अन्य छंद में हैं --
"पेट हाँकता/हमें यंत्रवत् 
 नित अनजानी राह ।"
   --मुखड़ा 16-11 की यति पर, चरणांत 21 
     (सरसी छंद में)
"भिनसारे से/जुगत भिड़ाते 
 दोपहरी हो जाती ।
"रोते-रोते/आँतों में जा
 थकी भूख सो जाती ।।"
    --बंद 16-12 की यति पर, चरणांत 22 
     (सार छंद में)
       कहीं-कहीं उन्होंने गीत के इस अनुशासन को भी तोड़ा है तथा नया प्रयोग किया है । उनके एक नवगीत के प्रथम बंद की प्रथम पंक्ति--
"वाग्जाल के/पजामे में
 उलझा रही है टाँग ।"
     --16-11 पर यति, चरणांत 21 
        (सरसी छंद)
        जबकि इसी नवगीत के द्वितीय बंद की प्रथम पंक्ति--
"कहते हो/मन की रोटी पर 
 जितना मन/घी चुपड़ो ।"
     --बंद 16-12 की यति पर, चरणांत 22 
         (सार छंद में)
        परंपरागत गीतानुशासन के अनुसार मुखड़ा किसी भी छंद में हो सकता है किंतु बंद एक ही छंद में हों तो उचित माना जाता है । किंतु सत्यप्रसन्न जी अपने कथ्य की अभिव्यक्ति में इन सब प्रतिबंधों से आगे निकलकर अपनी बात कहते हैं और छंद के स्तर पर भी प्रयोगधर्मी सिद्ध होते हैं । अन्य सिद्ध नवगीतकारों की तरह उन्होंने भी वैचारिक संवेदना की क्रमबद्ध उपस्थिति दर्शाने के लिए लयखंड के स्थान पर अर्थखंड को ही अपने नवगीतों में महत्व दिया है तथा लयखंड की एक पंक्ति को एक से अधिक पंक्तियों में लिखा है । उनके नवगीतों की अपनी गति एवं लय है, जो उनकी अपनी ही है । इसी कारण सत्यप्रसन्न जी अपने भावों को अधिक पैनेपन के साथ अभिव्यक्त कर सके हैं --
"दूरी अपनी/सिंहासन से/भले हज़ारों कोस ।
 भाँति-भाँति के/पर उसके हैं/पास कई ब्रह्मोस।।"

          नवगीत ने अपनी प्रतीक-योजना के स्तर पर उन प्रतीकों को स्वीकृति दी है जो जीवन के अत्यधिक निकट, जाने-पहचाने और और नितांत नूतन हैं । इस तरह के प्रतीक नवगीत की व्यंजना, अभिव्यक्ति को नया तेवर देते हैं । नवगीतकार सत्यप्रसन्न जी युगीन संवेदनाओं की अभिव्यक्ति तथा अभिनव और अर्थ को चमत्कारिक भंगिमा देने के लिए सर्वथा नए-नए प्रतीकों का चयन करते हैं । उनके कुछ प्रतीक प्रकृति से उठाए गए हैं तो कुछ मानवीय संवेदनाएँ उनके नवगीतों में प्रतीक बनी हैं । कुछ आधुनिक जीवन को विसंगत करने वाले तत्व प्रतीक बनकर उभरे हैं । 
           प्रकृति और जीवन के प्रतीकों में कास, फूल, बरगद, सिंधु, कगार, साँझ, ओस, प्यास, मरुथल, धूप, चील, अजगर, नाग, जुगनू, आकाश, हवा, पारिजात, दूब, बालू जैसे शब्द आए हैं । मानव की भावनाओं और मानव विकृत तत्वों के रूप में-सत्ता, रोटी, धुआँ, पजामा, किताब, अंधे-बहरे, टाँग, भाँग, कुल्हड़, गूँगे-काने, महफिल, दहलीज, कंदील, झोपड़ी, चौपाल, यंत्र, आँत, खटिया, सँपेरे, चुल्लू आदि शब्द हैं, तो वहीं जीवन की विसंगतियों को अभिव्यक्त करने में, कागज की बटलोई, कौंड़ी, पज़ल, चरणदास, वर्गमूल, गंडे-ताबीज़, पिन, जुमले, पॉपकॉर्न, ब्रम्होस, सन्नाटा प्रतीक के रूप में अभिव्यक्त हुए हैं ।
           परंपरागत गीतों से आज का नवगीत शिल्प के स्तर पर भी सर्वथा भिन्न है । जहाँ परंपरागत गीत अपेक्षाकृत आज के नवगीत से अधिक विस्तृत, लंबा तथा पाठकीय दृष्टि से श्लथ होता था वहीं आज का नवगीत संक्षिप्त है । नवगीतकार सत्यप्रसन्न जी के सभी नवगीत तीन या चार बंद में अपनी बात पूरे प्रभाव के साथ कहने में सक्षम हैं । महानगरीय एवं आमजीवन की व्यस्तता, भागम-भाग एवं समय की कमी को दृष्टिगत रखते हुए कम समय में पाठक की संवेदनाओं तक पहुँचाना उनका ध्येय है ।  
          नवगीतकार सत्यप्रसन्न जी अपने युगबोध को वाणी देने, सामाजिक धारणाओं के खंडन-मंडन, जीवनगत यथार्थ को अधिक क्षिप्र बनाने और जीने की यातना, संघर्ष और जिजीविषा को प्रकट करने के लिए मिथकों का प्रयोग बिंब, प्रतीक, अप्रस्तुत के रूप में करते हैं । कथ्य के प्रकटीकरण में सटीक मिथकों का प्रयोगकर उन्होंने प्रभावोत्पादकता उत्पन्न की है । इससे उन्होंने कथ्य के संप्रेषण को जनसामान्य के लिए सरल बनाया है; कथ्य को नई भंगिमा तथा कथन को प्रमाणिकता प्रदान की है । ऐसे मिथक पुराण, धर्म, इतिहास, लोकगाथा, दंतकथा और परंपरा आदि स्रोतों से लिए गए हैं--
"यह क्षुधातुर उदर/जैसे जल रहा है ।
 प्यास का *तक्षक*/गले में पल रहा है ।।"
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"बैठ गई बस/मन की *रंभा*/उपलों की माला जपने ।
 भाग्य-लेख लिख/नहीं *राम" ने/उसे पर पुनर्विचार किया ।"
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"कैसे भूलें/हम ही तो हैं/आखिर वंशज *चरणदास* के ।
           बड़ी बात यह है कि सत्यप्रसन्न जी युग के प्रश्नों के भँवरजाल में ही पाठक को नहीं छोड़ते बल्कि उसे एक नई आशा और विश्वास का आलोक देखने के लिए रास्ता भी सुझाते हैं । अपने ही हाथों इन प्रश्नों के हल खोजने के लिए उद्धत भी करते हैं--
"आसमान की/डाली से/कुछ तारे तोड़ें 
 चलो हथेली/पर रख सूरज/खूब उछालें ।
 लाकर चाँद/बाँध खूँटी से/उसको पालें ।।
 आग बुझ रही/उसमें कुछ/अंगारे जोड़े..।।"
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"सूख न जाएँ/सारे सागर इससे पहले ।
 चलो बाँधकर/कुछ लहरें मुट्ठी में धर लें ।।"
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"चलो एक तिल/बोकर उसको ताड़ बनाएँ ।
 हरी दूब का/वंश बदलकर झाड़ बनाएँ ।।"

           सत्यप्रसन्न जी की दृष्टि से युग और वर्तमान का कोई भी कोना अछूता नहीं रहा । उनकी संवेदना ठगे हुए आमजन की पीड़ा के साथ है तो समय की सबसे बड़ी चिंता पर्यावरण, के साथ भी है । शहरी अंधाधुंध औद्योगीकरण से हुए प्रकृति के नुकसान से भी वह पीड़ित और अत्यंत चिंतित हैं--
"अपने चुल्लू भर पानी में डूब मरी नदिया ।
 साथ खड़ा था/जंगल जब तक/लहर-लहर डोली ।
 कटे पेड़ फाड़ी/चीनी मिल/ने उसकी चोली ।
 नीर नहीं/पसरा अब केवल/बालू का दरिया ।।"

           उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश में हम पाते हैं कि नवगीतकार सत्यप्रसन्न जी ने अनायास ही नवगीत लिखना प्रारंभ नहीं किया, बल्कि उन्होंने जब परंपरागत गीत को आधुनिक चुनौतियों के अनुरूप नहीं पाया तब उन्होंने युगानुकूल एक नया रास्ता चुना, जो उन्हें नवगीतकार होने तक ले गया । यह रास्ता गीत में सर्वथा नवता का रास्ता था । कथ्य, शिल्प, छंद, प्रतीक, बिंब आदि तत्व उसके नए पड़ाव थे । नवगीतकार सत्यप्रसन्न जी के नवगीत छंद-विधान, युगबोध, पारंपरिकता और आधुनिकता का अद्भुत समन्वय हैं । उनके नवगीतों में पारंपरिक शास्त्रीय छंदों का प्रयोग तो है किंतु वे छंद, लय से पूरी तरह नियंत्रित हैं । उनमें तुक का अनुशासन है वे छंद और लय में कथ्य के संप्रेषण को महत्व देते हुए कहीं-कहीं नए प्रयोग भी करते हैं, तथापि छंद और प्रवाह का परित्याग नहीं करते । उनके नवगीत अपने युग के सच्चे स्वर हैं; वर्तमान का दस्तावेज हैं । उनके नवगीतों का युगबोध समूचे वर्तमान से जुड़ा हुआ है । 
        सत्यप्रसन्न जी नए युग के उच्च कोटि के नवगीतकार हैं । छंद, गीत और नवगीत में उन्हें समान महारत है । अपनी रगात्मक चेतना, गहन संवेदना, समकालीन जीवन, लोक संस्कृति के प्रति गहरी संपृक्ति, भाषा-प्रयोग, कहन में पैने तेवर, प्रभावी बिंब एवं प्रतीक-योजना के स्तर पर सत्यप्रसन्न जी एक सफल एवं आज के नवगीतकारों की प्रथम पंक्ति के नवगीतकार सिद्ध होते हैं ।
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    -राजकुमार महोबिया, उमरिया, म.प्र.


   सम्पर्क-9893870190, 7974851844

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