मीनाक्षी ठाकुर के दो गीत
प्रस्तुति
~।।वागर्थ।।~
एक
आम आदमी
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सोच रहा है आम आदमी
वह भी होता खास आदमी।
भाग रहा रोटी के पीछे,
खुद को आगे ठेल रहा है।
सुबह- शाम की चिंताओं से
अक्कड़-बक्कड़ खेल रहा है।
घिसी- पिटी सी वही कहानी,
मजबूरी का दास आदमी।
ताक रही हैं आसमान को,
सूनी आँखें, ज़र्द पनीलीं।
चौमासे में बैठ गयीं घर,
उम्मीदें सब , होकर गीलीं।
भूरे, मटमैले बोरे में,
ढोता फिर भी, आस आदमी।
किस्मत के सौतेलेपन से,
बुझा- बुझा सा रहता चूल्हा।
महंँगाई से टूट गया है,
छोटे से वेतन का कूल्हा।
पूछ रहा है, क्या हो जाता,
खा लेता यदि घास आदमी?
दो
प्रेम के टुकड़े हुए हैं
प्रेम के टुकड़े हुए हैं,
काम के उन्माद में।
भेडिये छलने लगे हैं,
साधुओं के रूप में।
नग्न रिश्ते हो रहे हैं,
वासना के कूप में।
क्यो भरोसा बुलबुलों को,
हो रहा सय्याद में?
लग रहे माॅं-बाप दुश्मन,
गैर लगता है सगा।
सभ्यता का क़त्ल करके,
दे रहे खुद को दगा।
कंस बैठा हँस रहा है,
आजकल औलाद में।
हो रहे लिव इन रिलेशन,
के बहुत अब चोंचले।
भुरभुरी बुनियाद पर मत,
घर करो तुम खोखले।
सात फेरों की शपथ अब,
हो नहीं परिवाद में।
मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार मुरादाबाद
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