सोमवार, 13 सितंबर 2021

श्यामलाल शमी जी के नवगीत साभार संवेदनात्मक आलोक समूह प्रस्तुति : वागर्थ

【1】
  || विद्रोह फूटेगा ||
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   आदमी कब तक
     सहेगा क्रूरता
एक दिन विद्रोह फूटेगा

चक्कियों से हड्डियों का
      चूर्ण बोलेगा
हाँ! कढ़ावों खौलता जो
       खून डोलेगा
    देखना, चलता रहा
      यदि इस तरह 
  धैर्य का यह बांँध टूटेगा

   बस्तियाँ फूंँकी गईं तो
     आह! निकलेगी
   ताप से संघर्ष की यह
       बर्फ पिघलेगी
   होश मत खो रे ज़माने
           बात सुन
कब तलक सुख-चैन लूटेगा ?

सौख्य-सुविधा के महाजन
      विष नहीं रोपो
     आम जनता के
 छिने अधिकार को सौंपों
    भूख का कंकाल
      दस्तक दे रहा
 सब जमा पूंँजी समेटेगा

      - श्यामलाल शमी
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【2】
|| बात बोलेगी ||
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 हम रहें या ना रहें 
फिर भी, हमारी बात बोलेगी
एक दिन तो दमन का
        प्रतिकार होगा ही

इस कहानी का कथानक
आदि से इति दर्द में डूबा है
आमजन भटकाव लादे
फिर रहा, कैसा अजूबा है ?
चल मजूरा चल ठिकाना
ढूंँढते हैं इस भुवन में खुद
द्वार पर हम -सा कोई
           प्रतिकार होगा ही

आपदा की बर्फ़ जब पिघले
आस्था की धूप निकलेगी
यह तभी होगा कि- जब
मजलूम दुनिया रंग बदलेगी
जब तलक असमान वितरण
साधनों का देश में होगा
दुख रमे, सुख-चैन
         बंटाढार होगा ही

पूँजियों ने तो इजाफ़ों के
किले चहुँओर गढ़ डाले
निर्धनों को, पर अभी
'दो जून रोटी' के पड़े लाले
चूसता जो खून जनता
इस सदन से ढूंँढकर लाओ
कोई तो मक्कार-
          दाढ़ी जार होगा ही
                •••

      - श्यामलाल शमी
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【3】
|| आर्तनाद ||
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हाय गरीबी, बुन ना पाई
   बिना मूँज खटिया
बिन पैसों के पड़ी हुई है
   बाँस, फूँस-टटिया 

हाड़तोड़ मेहनत में अपना
     सारा तन सूखा
पड़ी भूख से पेट पपड़ियाँ
    कुनवा सब भूखा
रही सहालग में अबके फिर
    बिन ब्याही बिटिया

श्रम-धन मांँगा मिले 'धनी' से
      लट्ठ-लात-घूंँसे
हम भी पिटे, जाति को गाली
      रक्त-मांँस चूसे
  ऐसे निर्दय धनवालों को
      'मार जाय गठिया'

भोर भये पर गई शौच को
     जोरू 'ननुआ' की
 घेर खेत में लिया, दुष्टता
    मुखिया-बबुआ की
भागी इज्जत बचा, फंँसी थी
      मच्छी ज्यों कँटिया

शोषण-अत्याचारों का जग
     कब तक लूटेगा?
मत गरमाओ खून अधिक
     लावा बन फूटेगा
  जाने कब उद्धार करेगी
     राजनीति घटिया
             •••

       - श्यामलाल शमी
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 【4】
|| हम त्रिशंकु से ||
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हम त्रिशंकु से
घृणा पटल पर
टंँगे हुए हैं, अब अभी
ऊंँच-नीच के
रंग आदमी
रंँगे हुए हैं अब अभी

गांँव देश के
अभी अठारह-सदी
बीच जीते हैं
सड़ी मानसिकता में,
हम अपमान
घूंँट पीते हैं
प्रतिदिन पिटें
कहीं न कहीं, सच
ठगे हुए हैं, अब अभी

क्या मजाल है
'उनके' आगे
हम खटिया पर बैठें ?
देश स्वतंत्र हुआ
फिर भी 'वे'
अहम्-भाव में ऐंठें
जाति-व्यवस्था
के बाणों से
 बिंधे हुए हैं, अब अभी

'उनको' खलता
जूता-चप्पल
अच्छे वस्त्र पहनना
पढ़ना-लिखना
और कि अपने
अधिकारों को लड़ना
ढेढ़-ढोर
सम्बोधन पीछे
लगे हुए हैं, अब अभी 
             •••

       - श्यामलाल शमी
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【5】
|| दुखिया किसको टेरे ||
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 विषम परिस्थितियांँ, मुँहबाँये
     ठाढ़े चोर-लुटेरे
कोई रक्षक नहीं गांँव में
  दुखिया किसको टेरे

मेहनतकश की पीठ काम से
   झुकी, जर्जरी काया
बंशी बजे निठल्लों के घर
    भूखा 'रामलुभाया'
 भक्तों-ओझाओं के तो
  आडम्बर ढोंग घनेरे

पुनर्जन्म-फल, नरक-स्वर्ग भय,
    पाप-पुण्य के जादू
परमातम-आतम के नाहक
     पडो फेर ना दादू
मन में छूत-अछूत रमा तो
    काहे माला फेरे ?

एकलव्य-शंबूकों को अब
    धोखे नहीं परोसो
अहंकार को छोड़ कुलीनों
   समरसता को पोसो
चमरौटी भी खुली हवा ले
   सांँसें, सांँझ-सवेरे 
           •••

      - श्यामलाल शमी
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【6】
|| साखी बोल कबीरा ||
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 अपनी 'बानी' कह रैदासा,
अपनी 'साखी' बोल कबीरा

खरी-खरी
सच्ची, अक्खड़
पैनी, अनगढ़ -सी
लागलपेट बिना
सपाट पर,
मन की उजली
इस वाणी में निहित जागरण
ज्ञान-मार्ग का यही समीरा

ठोंक-ठोंक लिख
सच तो कड़वा
होता ही है
पर, संघर्षों
छुपा मुक्ति-पथ
होता भी है
पहले कब
साहित्य तुम्हारा मान्य,
दशा अब भी यह वीरा ?

'उनको' निर्धारित
करने दे
भाषा-शैली
मूर्धन्य ये लोग
चदरिया
जिनकी मैली
'रामविलासों' 'नामवरों' की
बहसों में मत उलझ फकीरा
              •••

        - श्यामलाल शमी
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【7】
|| जाति के बंधन तोड़ो ||
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दे सकते हो तो
मानव-अधिकार दो

बुध समय की
तरह जाति के
बंधन तोड़ो
मानव एक समान
आज वह
नाता जोड़ो
वंचित-पीड़ित को तुम
प्यार-दुलार दो

एक समूची
क़ौम रहे
पशु से भी बदतर
कब तक यह
अन्याय रहेगा
इस भू पर
प्रेम, सहिष्णुता का
तुम उपहार दो

सोये थे दुखियारे
अब कुछ
जाग गये हैं
माना, उनके लक्ष्य
व अनुभव
नये-नये हैं
उनकी प्रगति न रोको
नव विस्तार दो
          •••
      - श्यामलाल शमी
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【8】
|| एकता का सूरज ||
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नामचीन सत्ता-दलाल
अब क़ौमें बांँट रहे हैं
दलितों में अतिदलित
कौनसे, गिन-गिन छांँट रहे हैं ?

दलित-आदिवासी का जैसे,
बहुत भला कर डाला
पिछड़ों को भी तो 
अतिपिछड़ों के सांँचे में ढाला
थोड़ी खिसकी है जमीन
कर बंदरबांँट रहे हैं !

गोट यही इनमें न
एकता का सूरज उगने दो
कौड़ी पाँसा फेंक न
इनमें स्वाभिमान जगने दो
ओने-पौने दामों
बस्तर-जंगल काट रहे हैं !

बड़ी योजनाएंँ कागज पर
बड़े-बड़े हैं वादे
सब विकास लाभों को
चटकर जाते हरामजादे
कलुआ के बापू तो
अब भी जूते गाँठ रहे हैं
               •••

         - श्यामलाल शमी
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【9】
|| जाति न पीछा छोड़े ||
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चाहे हो भूकम्प
और चाहे
हो लहर सुनामी
जाति न पीछा
छोड़े अपना
ढोये सतत गुलामी

सामूहिक था
भोज मगर
प्रभुओं ने साथ न खाया
धर्म भ्रष्ट
आरोप हमारे
माथे पर चिपकाया
विपदा में भी
उच्च वर्ण है
छुआछूत अनुगामी

मुर्दों को भी
ऊंँच-नीच की
खाई, खंदक लाया
अलग बना
शमशान, क्योंकि
अपनी
अछूत थी काया
डसने बैठे
हाथ न डालो
यह सर्पों की बामी

पुनर्वास की
सूची में भी
नाम नहीं था अपना
हम झोपड़ियों
से वंचित
पक्के घर
उनको बनना
थोड़ी राहत राशि हमें
उनके गुर्को ने थामी

उठा ले गये
दलित नारियांँ
अनाचार
को बल से
तब क्या
छूत नहीं लगती थी
पूछे कोई इनसे ?
करें भयानक
पाप कि-
अत्याचारों के ये हामी
          •••

     - श्यामलाल शमी
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【10】
|| तुम क्या जानो पीर ||
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सहानुभूति औ'
स्वानुभूति में
बड़ा फर्क है भाई

तुमने कब
पत्थर तोड़े हैं
मैला ढोया
करी चमारी ?
नहीं तुम्हारी
फटी बिवाई
तुम क्या जानो
पीर हमारी
मेहनतकश की
मुफ्तखोर
खा जाते
यहांँ कमाई

लाठी-डंडे खाये
कब-कब
कहांँ बैठकर
जूते गांँठे ?
काढ़ी कब
खालें पशुओं की
खाये कब
गालों पर चाँटे ?
शोषण-गाथा का
यथार्थ, जहांँ
सबरी देह पिराई

इसीलिए कहता,
दलितों को
अपनी व्यथा-कथा
लिखने दो
करो नहीं
घुसपैठ यहांँ भी
बिना वजह
बहसें मत छेड़ों
मजलूमों के
इस लेखन में
सच की
खिली जुन्हाई
           •••

  - श्यामलाल शमी
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|| संक्षिप्त जीवन परिचय ||
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कवि का नाम : श्यामलाल शमी
जन्म : 15 जून, 1935 ई.
ग्राम-एलमपुर, अलीगढ़ [उ.प्र.]
शिक्षा : एम.कॉम. बारहसैनी कॉलेज
अलीगढ़, आगरा विश्वविद्यालय।

प्रकाशन एवं प्रसारण : पाँखुरियाँ नोंच दीं, हर डगर संत होती है, नयी रोशनी एवं नया उजाला [बाल-गीत संग्रह] एवं 'जो सहा सो कहा' गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशित। गीतायन, अधर प्रिया, दहकते स्वर, आस्था के स्वर, ज्योति कलश, सादृश्य, समन्वय आदि काव्य-संग्रहों में गीत-नवगीत संगृहीत। देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत प्रकाशित। 'क्षत्रप सुनें' काव्य- संग्रह यंत्रवत। आकाशवाणी दिल्ली, लखनऊ, अल्मोड़ा, इलाहाबाद तथा दूरदर्शन केंद्र लखनऊ, भोपाल से साक्षात्कार के साथ गीत प्रसारित।

संपादन : 'संघर्ष के स्वर' [दलित-आदिवासी कवि-कवयित्रियों का वृहद काव्य-संकलन] संपादित। 'उत्तर प्रदेश रोजगार पत्रिका' प्रशिक्षण एवं सेवायोजन निदेशालय, लखनऊ उ.प्र.तथा श्रावस्ती विशेषांक लखनऊ का संपादन।

सम्मान : दसवाँ अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य (युवा मंडल) गाजियाबाद द्वारा वर्ष- 2002 में वरिष्ठ साहित्य-सर्जक,आश्वस्त संस्था उज्जैन द्वारा 1994 में कबीर काव्य-रत्न सम्मान से सम्मानित।

देहावसान : 12 फरवरी, 2019 ई.।

सम्प्रति :  उत्तर प्रदेश राज्य सेवायोजन के क्षेत्रीय सेवायोजन अधिकारी पद से सेवानिवृत्त उपरांत, जीवन के अंतिम क्षणों तक स्वतंत्र लेखन।
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