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कीर्तिशेष रमेश यादव जी के दो नवगीत
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जरूरी नहीं है की कवि का परिचय दस-बीस पेज का हो और खाते में दस-पचास संग्रह और दो-चार आलोचनात्मक ग्रन्थ हों तभी वह चर्चा में आएगा।
चर्चा में लाता है कवि का मौलिक चिंतन और धारदार कथ्य आइए पढ़ते हैं कीर्तिशेष कवि रमेश यादव जी के ऐसे ही धारदार कथ्य के दो गीत ।
प्रस्तुति
वागर्थ
1
संचय की क्षमता न रही तो त्यागी हो गए
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संचय की क्षमता न रही तो
त्यागी हो गए
नंगा किया समय ने तो
वैरागी हो गए
जीवन के कड़वेपन से हम प्यार नहीं करते
मन के सूरज का ढलना स्वीकार नहीं करते
सोने के पानी में हमने पीतल पाला है
हमने मरघट पर मधुवन का पर्दा डाला है
जहाँ व्यवस्था स्वारथ के पग
पूज नहीं पाई
भृकुटि तानकर हम जनहित में
बागी हो गए
पतझर की ऋतु में टेसू के फूल हो गए हम
और इस तरह मौसम के अनुकूल हो गए हम
निद्रा पर जागृति की तख़्ती टाँगें रहते हैं
निरुद्देश्य हैं पर जुलूस में आगे रहते हैं
अक्षमता के आँगन जबसे
राग 'द्वेष' जन्मा
इसी राग के अनु होकर
अनुरागी हो गए
2
बहुत महँगा पड़ेगा
शहर के बारूद में रहना
साथ रखना फुलझड़ी चिन्तन
इस दिमागी धूप के वन में
रोपना यह चांदनी सा मन
बहुत महँगा पड़ेगा
पुज रहीं षड़यंत्र की नदियाँ
हस्तियाँ जिन में नहाती हैं
सभ्यता का नाम है बँगला
कुर्सियाँ सूरज कहाती हैं
सामने सबके नहीं करना
मित्र, यह भागीरथी-पूजन
बहुत महँगा पड़ेगा
कोई पूछे तो पसीने को
सिर्फ़ काला धन बता देना
मुख़बिरों से कुछ नहीं छुपता
सत्य का सोना हटा देना
त्यागकर नंगे जुआघर को
मन्दिरों को सौंपना अर्चन
बहुत महँगा पड़ेगा
खिचड़ियाँ अंजाम तक पहुँचें
साजिशों का घी उबलता है
आँच की कोई कमी ना हो
इसलिए इनसान जलता है
नीचता की इस तिजोरी में
मत रखो ऊँचाइयों का धन
बहुत महँगा पड़ेगा
3
रूप की किताब का
हर पन्ना पुष्प-दंश
और मुझे पढ़ना है बार-बार
यह छुअन कबूतर के पंखों सी
ज्यों फूलों की कटार पर कोई
जगती है धूप मगर लगता है
अब तक क्यों चाँदनी नहीं सोई
प्यार का कशीदा हूँ
अधरों के रेशम पर
और मुझे कढ़ना है बार-बार
यह कुन्तल-वन, उस पर सूनापन
चन्दन के पात सरसराते हैं
रस के क्षण गंधवती साँसों पर
पारे की आत्मा झुलाते हैं
चित्र हो गया हूँ मैं
काजल की चौखट में
और मुझे मढ़ना है बार-बार
बाँहों पर झूलते-मचलते से
देहयष्टि के सुघड़ सवेरे हों
उस पल मुस्कान सहम जाती है
जिस पल नीलाभ नयन घेरे हों
संयम का हर प्रयास
मंत्र-मुग्ध विषधर सा
और मुझे लड़ना है बार-बार
--रमेश यादव, भोपाल.
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