"समकालीन कविता में सामाजिक सरोकार, मेरी प्राथमिकताएंँ एवं प्रतिबद्धताएंँ।"
- श्यामलाल शमी
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समकालीन कविता में सामाजिक सरोकार का होना अत्यंत आवश्यक है। एक गंभीर एवं सामाजिक बात यह भी है कि जनसंघर्ष से निरपेक्ष रहकर साहित्यकर्म आज के युग में करना एक बेमानी एवं अनर्गल प्रक्रिया है। मेरी दृष्टि में कविता वह है जो समय सापेक्ष, देशज एवं समाज से गहरे जुड़ी हो। साहित्य दर्पण में जब तक तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के दिग्दर्शन नहीं होते, तब तक वह दर्पण धुँधला है, जिसमें सब कुछ स्पष्ट नहीं दीख रहा है। एक संवेदनशील एवं चेतनायुक्त रचनाकार इन सामाजिक परिस्थितियों से विलग नहीं रह सकता। वह एक सामाजिक प्राणी होने के नाते इन परिस्थितियों को देखता, परखता, महसूसता और कुछ सीमा तक उनसे प्रभावित भी होता है। यदि यह बात हम सामाजिक आंदोलन, जनसंघर्ष एवं विभिन्न प्रकार की जनसमस्याओं के संदर्भ में लें, तो यह कहा जा सकता है कि एक रचनाकार का इनसे सीमा संबंध नहीं होता है, परन्तु कहीं न कहीं वह इनसे जुड़ाव अवश्य महसूस करता है। चूँकि वह इसी समाज के बीच रहता है। अतः समाज में व्याप्त विसंगतियाँ, विकृतियाँ एवं बिडंबनाएँ रचनाकार के मन में एक प्रकार के 'नकार' का भाव उत्पन्न कर देतीं हैं और वह समय-समय पर इन्हीं विद्रूपताओं के विरुद्ध अपनी आवाज़ अपनी रचनाओं के माध्यम से उठाता रहता है। इस संबंध में यह कहना भी समीचीन होगा कि यहीं से उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता उजागर होती है। गहनता से देखें तो यहाँ कविता न तो मार्क्सवादी या समाजवादी होती है और न प्रगतिशील अथवा जनवादी होती है। वरन् यहाँ यह नितांत मानवतावादी होती है। रचना के केन्द्र में एक ऐसा मानव भी है जो, 'आम आदमी' है। इस 'आम आदमी' के विषय में न तो कोई गंभीरता से कहता है और न कोई सुनता है। कविता चाहे मुक्तछंद अथवा छंदबद्ध हो रही हो, उसमें 'आम आदमी' का प्रतिनिधित्व उतना नहीं हो रहा है जितने की साहित्य से अपेक्षा की जाती है। कविताओं में आज भी मध्यवर्गीय अथवा अपने एवं अपने आसपास के पारिवारिक जीवन की त्रासदियों का ही निरूपण हो रहा है। यहाँ तक कि वामपंथी कविता में भी समाज की आर्थिक विसंगतियों का ही चित्रण होता रहा है। परन्तु हमारे देश में, जहाँ विभिन्न जाति, धर्म, समुदाय, संस्कृति के जनमानस निवास करते हैं, वहाँ आर्थिक विसंगतियों से भी अधिक सामाजिक विसंगतियाँ हैं। यह एक सोचनीय विषय है और कविता लेखन में इस तथ्य से विमुख नहीं हुआ जा सकता है।
रचनाकारों को समझना चाहिए कि हमारा बहुसंख्यक समाज 'आम आदमी' से बना है। इस समाज की सामाजिक समस्याओं से बिना दो-चार हुए लिखना, मेरे अभिमत में कोरी लफ़्फ़ाजी है। मैं अपनी कहूँ तो कह सकता हूँ कि मैं जिस गाँव-गँवई अंचल, समाज एवं वर्ग से आया हूँ, वहाँ मैंने घोर निराशा, अभाव, गरीबी, शोषण, पीड़ा, अत्याचार एवं अन्याय, सामाजिक विषमताओं की जटिल एवं विकट दुरभिसंधियों को बड़े निकट से देखा और महसूस किया है। इन दुरभिसंधियों से निजात पाने के संघर्ष में, मैं इस वंचित एवं पीड़ित जनसमुदाय के साथ कहीं न कहीं जुड़ा एवं खड़ा रहा हूँ। यानि कि जीवन की अनुभूतिजन्य व्यथा-कथा में रचे-बसे अपने गीतों-नवगीतों में इस उत्पीड़ित जनमानस की पीड़ा, कुण्ठा एवं त्रासदियों के मर्म को छूता रहा हूँ। यह सच है कि हमारे समाज का बहुसंख्यक वर्ग 'आम आदमी' से बना है, किन्तु इस 'आम आदमी' की परिधि के बीच एक ऐसा वर्ग भी है जो सदियों से शोषित, वंचित गरीब दलित-आदिवासी है। यह समुदाय आज भी विकास एवं उन्नति के अंतिम पायदान पर खड़ा है। बिडंबना यह है कि इस जनमानस को समाज का भ्रष्ट, शोषक एवं बाहुबली वर्ग आगे ही नहीं बढ़ने देना चाहता है।
यों तो नवगीत की जीवन्त विधा में नगरीय-ग्रामीण जीवन एवं लोकजीवन की रोमानियत तथा त्रासदियों को उकेरा जाता रहा है। किन्तु यह भी बेबाक सत्य कथन है कि नवगीतकारों ने भी अपने नवगीतों या गीतों में इस दलित-आदिवासी जनसमुदाय को समुचित स्थान नहीं दिया है। दलित चेतना के इस जनसंघर्ष में साथ देने के लिए मैंने यथार्थ की भावभूमि पर रचित इन नवगीतों का आश्रय लिया है। क्योंकि अपनी वाचिक एवं गेय परम्परा के कारण सभी साहित्यिक मूल्यों, प्रतिमानों एवं मान्यताओं का निर्वाह करते हुए मानव हृदय की कोमल भावनाओं को जगाने एवं झकझोरने के निमित्त जितनी मारक क्षमता गीत-नवगीत में होती है उतनी क्षमता संभवतः छंदमुक्त कविता में हो ही नहीं सकती है। हमारे लोकगीत आज भी हमारी लोकसंस्कृति एवं लोकपरम्परा के वाहक हैं। यदि हम स्वतंत्रता आंदोलन का स्मरण करें तो पायेंगे कि आजादी के दीवानों का साथ गीतों एवं तरानों ने ही दिया था। यहाँ भी गीत की वाचिक एवं गेय परम्परा हमारे साथ रही है, जो हृदय एवं मस्तिष्क को मार्मिक एवं सहज भावनाओं से छूती रही है।
मैंने नवगीतों में देश के दलित-आदिवासी एवं सर्वहारा वर्ग की उस समूची मानवता के दुख-दर्द को उकेरा है, जो सदियों से और आज भी दमन, अत्याचार, शोषण, छुआछूत, तिरस्कार, अपमान एवं अमानवीय सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं राजनैतिक दुर्व्यवहार से जूझते हुए अपने अस्तित्व, अस्मिता, स्वाभिमान तथा सुखमय जीवन-यापन के लिए अपनी समस्त ऊर्जा के साथ संघर्षरत हैं। मैंने अपने इन नवगीतों में बिना किसी पूर्वाग्रह के बड़े खुले हृदय से वही 'कहा' है जिसे इस जनसमुदाय ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी 'सहा' यानि कि वंचित समाज के त्रासद जीवन की अनुभूत पीड़ाओं का एक लेखा-जोखा कहा जा सकता है। यदि मैं यों कहूँ कि मैंने अपने इन नवगीतों में दलित चेतना की अभिव्यक्ति की पहल करके एक 'गीतात्मक सौंदर्य शास्त्र' गढ़ने की ईमानदार कोशिश की है, तो अतिशयोक्ति न होगी।
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|| संक्षिप्त जीवन परिचय ||
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कवि का नाम : श्यामलाल शमी
जन्म : 15 जून, 1935 ई.
ग्राम-एलमपुर, अलीगढ़ [उ.प्र.]
शिक्षा : एम.कॉम. बारहसैनी कॉलेज
अलीगढ़, आगरा विश्वविद्यालय।
प्रकाशन एवं प्रसारण : पाँखुरियाँ नोंच दीं, हर डगर संत होती है, नयी रोशनी एवं नया उजाला [बाल- गीत संग्रह] एवं 'जो सहा सो कहा' गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशित। गीतायन, अधर प्रिया, दहकते स्वर, आस्था के स्वर, ज्योति कलश, सादृश्य, समन्वय आदि काव्य-संग्रहों में गीत-नवगीत संगृहीत। देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत प्रकाशित। 'क्षत्रप सुनें' काव्य- संग्रह यंत्रवत। आकाशवाणी दिल्ली, लखनऊ, अल्मोड़ा, इलाहाबाद तथा दूरदर्शन केंद्र लखनऊ, भोपाल से साक्षात्कार के साथ गीत प्रसारित।
संपादन : 'संघर्ष के स्वर' [दलित-आदिवासी कवि- कवयित्रियों का वृहद काव्य-संकलन] संपादित। 'उत्तर प्रदेश रोजगार पत्रिका' प्रशिक्षण एवं सेवायोजन निदेशालय, लखनऊ उ.प्र.तथा श्रावस्ती विशेषांक लखनऊ का संपादन।
सम्मान : दसवाँ अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य
(युवा मंडल) गाजियाबाद द्वारा वर्ष- 2002 में वरिष्ठ साहित्य-सर्जक,आश्वस्त संस्था उज्जैन द्वारा 1994 में कबीर काव्य-रत्न सम्मान से सम्मानित।
देहावसान : 12 फरवरी, 2019 ई.।
सम्प्रति : उत्तर प्रदेश राज्य सेवायोजन के क्षेत्रीय सेवायोजन अधिकारी पद से सेवानिवृत्त उपरांत, जीवन के अंतिम क्षणों तक स्वतंत्र लेखन।
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