‘जगदीश पंकज के नवगीत में चेतना के स्वर’
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नवगीत को यदि वंचितों के दर्द का आख्यान कहा जाय और प्रतिपक्ष की आवाज़ तो जगदीश जी के नवगीत अपनी सम्पूर्ण मेधा और तेजस्विता से इस क्षितिज पर उपस्थित हैं।करूणा और संवेदना के दोनों सिरों के मध्य नर्तन करती उनकी मनस्विता के पाँव बार बार हाशिए पर पड़े समाज की पीड़ा से लहूलुहान हो रहे हैं।ये वंचितों का दर्द ही उनके गीतों का मुख्य स्वर बन गया है। उनके तीन नवगीत संग्रह’अवशेषों की विस्मृत गाथा’’संवाद के स्वर’और आग में डूबा कथानक’मेरे पास समीक्षार्थ उन्होंने प्रेषित किए हैं, इससे पूर्व उनके तीन नवगीत संग्रह और भी आ चुके हैं ‘सुनो मुझे भी’’निषिद्धों की गली का नागरिक ‘’समय है सम्भावना का’अस्तु।
जगदीश जी के नवगीत की चेतना विविध मुखी और हाशिए के समाज के प्रति पूरी तरह समर्पित है।कगारों पर चलने का अभ्यास जिसे हो जाता है,उसे राजमहल की कालीनें कहाँ सुहाती हैं ? वे मानवता के ऐसे उत्प्रेरक बन जाते हैं, कि निरे बीहड़ों में,जलती धूप में ,धधकती चिता में और अवधूतों की समाधि में, भी वे श्वासों का लरजना ढूँढलेते हैं, और संवेदना के मरहम से उसके कटे फटे घावों का इलाज करना शुरू के देते हैं।
जगदीश जी की रचनाओं में विक्षोभ की छाया इतनी घनी है,कि अधिसंख्य रचनाएँ हताशा, आर्तनाद,विक्षोभ, प्रतिपक्ष के प्रति गहरा नैराश्य भाव और विद्रूपता के उत्प्रेरकों में आकंठ डूबी हुयी है।जिससे उनकी मौलिक वैचारिकी और यथार्थता की पारदर्शिता भी प्रभावित हुई है। कथ्य की प्रायः घनीभूत एकरसता के कारण मानव मन के विविध वर्णी संवेगों का अभाव सा है।कंटेंट राजनैतिक,दलित,हाशिए का आदमी,मध्य वर्ग की संत्रास भरी, आर्थिक स्थिति, सामाजिक विसंगतियों के अम्बार से लगे हैं रचना धर्म में , इसीलिए खुली खिड़कियों से जो हवा आ रही है,उसमें ताजगी तो है पर प्रदूषण की हल्की नमी सी भी है,जो मन को कहीं कहीं विचलित भी कर देती है।इसलिए भी मलयानिल के लिए अवकाश बहुत कम बच रहा।
‘’किस महा संधान में रत
पीढ़ियों की व्यस्तताएँ
सत्य अनगिन बार
झुठलाया गया हो जब सदन में
एक साझी सम्पदा का
इस तरह दोहन हुआ है
आ गया स्वामित्व छल बल से
सिमट कुछ हाथ में ही
जिस पसीने से लहू ने
सींच कर धरती सजाई
हाशिए पर वह पड़ा गुमनाम
रह कर साथ में ही’
लेकिन फिर भी त्रासद स्थितियाँ, विकट जीवन संघर्ष, अपने पूर्ण ताप के साथ, उनके नवगीतों में उपस्थित है, वे बेहद प्रखर प्रतिभा सम्पन्न वरिष्ठ और यथार्थ जीवी नवगीत कार हैं, अख़बारों की हेड लाइनों और नृशंस घटनाओं को गीतों में ढालना कठिन है,लेकिन फिर भी क्रूर समय की जटिलताओं को गीतात्मकता के युग साँचे में ढालना, कोई जगदीश जी से सीखे।
‘उपदेशों में दुहराईं हैं
कुछ झूठी बेताल कथाएँ
सेठों राजाओं के हित में
होती हैं अब आम सभाएँ
आहत हुई भावना कोई
करती हिंसा भरा प्रदर्शन
तब कोई निर्दोष कहीं पर
अपने प्राण गँवा जाता है’
‘जब झूठे प्रतिरोध उबल कर
सदियों का बदला लेते हैं
आकर्षक नारों के आगे
सब कुछ अर्पित कर देते हैं
इतिहासों का पुनर्पाठ तब
खुल कर अट्टहास करता है’
सत्ता पक्ष के प्रति विद्रोह और विक्षोभ उनकी पूरी रचना धर्मिता पर आच्छादित है।कुछ न के सकने की विवशता का केंद्रीय भाव उनकी रचनाओं को नैराश्य और अतृप्ति बोध की तरफ़ भी जाता है।
‘करते रहे न्यायविद अपने
आश्रय दाता का ग़ुण गायन
न्यायाधीश चकित हैं पाकर
विधि का नया नया रुपायन’
और
‘कितना तमस भरा है घर में
दिन भी आदमखोर हो रहा
नहीं भरोसा रहा किसी पर
जिसने अब तक बहलाया है
हमने अपना दर्द सदा ही
अपने आँसू में गाया है
घर की रखवाली करने को
जिसको रखा समझकर अपना
सारी सुविधाएँ पाकर भी
जाने क्यों कमज़ोर रहा है’
यह सत्य है,कि नवगीत यथार्थ का दस्तावेज है,पर क्या वास्तव में इतना अंधेरा है, कि कोई खिड़की या झरोखा खुलने की उम्मीद भी बाक़ी नहीं बची ?
लेकिन ऐसा है नहीं,खिड़कियाँ खुल भी रही हैं, और दरारों से खुली हवा भी आने को बेताब है,सदा से साहित्य सत्ता का प्रतिपक्ष तो है ? पर क्या सत्ता में सदा शुभ और कल्याणकारी कार्यों का नितांत अभाव ही रहता है ? धरातल और भी बहुत हैं,मानवीय संवेदनाओं के जिनका आपस में समन्वय, समाहार, संतुलन ज़रूरी है ,कार्यों को विस्तृत फलक पर स्थापित करने के लिए।
‘जलते हुए शहर में हमने
पग पग पर ठंडा पन देखा
आहत हुई भावनाओं का
अपना अपना विश्लेषण है
नारों अफ़वाहों के स्वर में
जब बारूदी संप्रेषण है’
एक सधे रचनाकार की क़लम जब संत्रासों विषमताओं और संघर्षों से होकर गुज़रती है,तो उसकी चमकीली स्याही से ज़िंदगी अपने आप चमकदार हो उठती है।
‘उठ रहें हैं अब
असहमत हाथ
इस घुटते समय में
पारदर्शी दिन छिपाती
धुँध में अब
साँझ की परछाइयाँ
दिखने लगी हैं
पर सचेतन उँगलियाँ
आक्रोश लेकर
मुक्ति का जलता हुआ
उद्घोष लेकर
ज्योति की संचित कथा
लिखने लगी हैं’
मानवता वाद ,आज कट्टरता वाद के चंगुल में कराह रहा है, दिनोदिन कठोर विकृत और बर्बर होता समाज बच्चों के चेहरे से हँसी और महिलाओं के बदन से कपडे नोचनें वाला कब और कैसे बनता गया ? ये तो एक अलग से पड़ताल और शोध का विषय हो सकता है,पर जिस संजीदगी और तरतीब से इन मुद्दों को जगदीश जी के नवगीतों में उठाया गया है ,वह इस निराशा के माहौल में एक उम्मीद जरूर पैदा करती है, कि ये जो शब्दों के नुकीले,औजार से लैस नवगीत कारों की वरिष्ठ समक़ालीन पीढ़ी है,वो हमारे कन्धों से मायूसी और पछतावे के बोझ को हलका जरूर करेगी,और इंसानियत की विरासत को बहुत दूर तक जिन्दा रखेगी ।
‘ जब डूबे हुए कछारों में
नदिया के गहन किनारों में
आवाज़ें लोकगीत गाकर
दिन भर की थकन मिटाती हैं
तब कर्कश कंठो की ध्वनियाँ भी
महाकाव्य बन जाती हैं
काँपते ठिठुरते हुए बदन
जब बैठ अलावों के आगे
मिल जुल कर बैठ जोड़ते हैं
भूली कहानियों के धागे
अंगड़ाई लेकर गूँज रही
मीरा कबीर की जब बानी
अपनी धड़कन की भाषा में
जब गाते हैं अनपढ़ ज्ञानी’
वर्तमान की खूंरेज़ी से बहुत आतंकित और हताश होने कोई जरूरत नहीं,संवेदनायें शायद बची रहेंगी।,जगदीश जी मानवीयता के फलक पर आज ऐसे ही बड़े और सतर्क रचना कार के रूप में स्थापित हैं।
‘भयाक्रांत शब्दों को लेकर
क़िस्तों में कुछ करें समर्पण
उपमाओं की लोरी गाकर
बाँचे संकेतों के कण कण
क्रूर समय की अगवानी में
झुकें सभी सुलगी संज्ञाएँ
जहाँ मोर्चों पर निषेध के
लागू सारे नियम क़ायदे
खंडित जनादेश जनहित में
गिन रहा है छिपे फ़ायदे
भाषा का भदेसपन लेकर
अक्षर अक्षर को सुलगाएँ’
जगदीश जी के नवगीत भाषा के संस्कार से संयुक्त है, शैली का चमत्कार, लक्षणा, व्यंजना और अभिधा शब्द शक्तियों का भरपूर प्रयोग भी किया है उन्होंन,रूपकों के बहाने अपनी अंतर्व्यथा बाँचते समाज की कुटिलताओं से कहीं कहीं बहुत अधिक पीड़ा का अनुभव किया है,और वह सारा दुःख और वेदना के अनगिन पठार,सब कुछ उनके नवगीतों में सदा के लिए सुरक्षित हो गया है।
‘अंधकार के न्यायालय में
किरणों पर अभियोग चल रहा
बदचलनी के लिए गवाही
देने आती हैं उल्काएँ
संध्या ने आरोप लगाया
तारे उसको घूर रहें हैं
तारों का कहना है वे तो
सदा गगन से दूर रहें हैं
पारदर्शिता की मंडी में
कितना दुराचार बिकता है
पूछ रहीं किरणें लज्जा को
लेकर कहाँ कहीं छुप जायें’
रचना कार के रूप में कहीं कहीं जगदीश जी बहुत अधिक निराश भी लगते हैं ,पर उनके नवगीतों में काव्य की अर्थसत्ता’ शब्दसत्ता दोनों अपने प्रखर सामर्थ्य के साथ उपस्थित हैं,हमारे धर्म ग्रंथों में कहा गया है,कि सत्य परम ब्रम्ह का ही रूप है, पर प्रश्न तो यह है,कि सत्य है क्या ? क्या हम जो इस जीव जगत में देखते हैं, वह वास्तविक सत्य है ? क्योंकि हम दावा नहीं कर सकते,कि जो कुछ देख रहें हैं उसमें सत्य का अंश कितना है? या जो परिस्थितियाँ, बदलाव हमें दिखाई दे रहे हैं ,वह सामयिक संदर्भ में ही सही क्या वास्तविक हैं? प्रगल्भ हैं ? तत्कालिकता के आधार,पर सत्य की चेतना के सूत्र समावेशी भी हो सकते हैं, और नहीं भी।
अंत में मेरा बस यही कहना है,कि जगदीश जी आज एक नवगीत के प्रतिष्ठित और वरिष्ठ हस्ताक्षर हैं।उनके अपने विचार हैं, अपनी सोंच का एक व्यापक फलक है।
उन्होंने नवगीत के मानकों को निष्ठा और समर्पण का आधार दिया है।उनके स्तर और ऊँचाइयों तक अधिकतर नवगीत कार नहीं पहुँच पायें हैं।उनका विषय गत चयन उनका व्यक्तिगत निर्णय है,हाशिए का समाज और उसका दर्द, जिस सच्चाई और तीव्रता के दंश के साथ, यहाँ पाठकों को,सह्रदय को, नश्तर चुभा रहा है,उनकी सोच को बेचैनियों से लैस करके, उनकी संवेदना का नंगा तार छू रहा है, वह प्रामाणिक और विशेष उल्लेखनीय है,वही उनकी परख भी है,और ऊँचाई भी।
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