नवगीत (१)
जबसे उग आये आँखों में,
काँटेदार सुमन,
तबसे रिश्तों में मधु कम है,
विषमय अपना पन।
तितली सा दिल घायल होता,
भँवरों के छल से,
मीन भला बाहर कब रहती,
नदियों के जल से।
निर्मल जल दूषित करने को,
कुछ मछुआरों ने ,
जाल फेंककर कैद किया तन,
कर ना पाये मन।
सदा जिये अलगोजे बनकर,
पिछले वर्षों में,
जीवन के हरपल बीते हैं,
दुख में, हर्षों में।
इत हरिया, उत राह जोहती,
बुधिया बीच डगर,
क्या जानें कब सांसे निकले,
करने देशाटन।
भला चाँद को कभी सुहाता,
ग्रहण लगे कोई,
संकट से जीवन निखरे ज्यों,
मैदे की लोई।
इतना कौन करे अब चिंतन,
व्यर्थ लगें हैं ये,
और तभी से बिन तुलसी के,
सभी हुए आँगन।
नवगीत (२)
खटपाटी लेकर बैठी है,
घर की बड़ी बहू,
और ससुर जी द्वारे बैठे,
चाय ढूंढने को।
सूरज निकस द्वार के बाहर,
कब से खड़ा हुआ,
लाल मिरच को तरस रहा है,
पागल एक सुआ।
तुलसी का पौधा व्याकुल है,
जल का अर्ध्य चढ़े,
और दुधारू गाय रंभाती,
धैर्य टूटने को।
गौरैया छत से उतरी पर,
दाना नहीं मिला,
नटी गिलहरी लोट-पीटकर,
हारी पूँछ हिला।
सारे करतब दिखला डाले,
क्या -क्या और करूँ,
शायद बड़ी बहू से अब है,
साथ छूटने को।
तन के घाव छुपाये बरगद,
मन में सोच रहा,
हुए उजागर तो लगता है,
घर का किला ढहा।
सभी फैंसले लिए उसी हित,
फिर भी बक-बक है,
शब्द-शब्द में नमक घुला है,
घाव फूटने को।
नवगीत (३)
जाते हो तुम पीठ दिखाकर,
जिस पगडण्डी को,
सच कहता हूँ वही एक दिन,
राह दिखायेगी
माना सच है रोशन होंगी,
कुछ काली रातें,
मोह जाल में भीगी-भीगी,
मीठी सी बातें।
चुपके से फिर समय बुनेगा,
मकड़ी का जाला,
उलझ गये तो जीवन क्या है,
थाह बतायेगी।
संस्कार में भीगे आखर,
खूब सुनोगे तुम,
सहज सलौने व्यवहारों में,
हो जाओगे गुम।
फिर शब्दों के मुख मंडल से,
जब झलकेगा छल,
रह जायेगी आह पास फिर,
आह रुलायेंगी।
पेड़, पखेरू, बाग, बगीचे,
सब कुछ गाँवों में,
पनघट, पोखर, लहर नदी की,
माँ के पाँवों में।
दिशाहीन चौराहे तुमको,
जब-जब करें भ्रमित,
लौट वही पगडण्डी तुममें,
चाह जगायेगी।
नवगीत (४)
बहुत सहेजे थे आँखों ने,
बादल फिर भी,
सावन वाले हर सपने,
बनजारे निकले।
मन में भाव उमड़ कर,
बिखर गये कुछ ऐसे,
कुछ धुनकों ने रुई धुनक,
रख दी हो जैसे।
तितर-वितर हो धवल वेश धर,
संग हवा के,
बिन संदेशे ये कैसे,
हरकारे निकले।
यादों के कुछ बीज हृदय में ,
पडे़ हुए हैं,
नमी नयन की पा मोती से,
जड़े हुए हैं।
बंजर धरती से इक दिन
यूँ ही फूट पडे़,
ज्यों अधियारा चीर गगन से,
तारे निकले।
नदिया बहती है माटी से,
ले सौंधापन,
प्यास धरा की रही बुझाती,
दे अपना मन।
अपना यौवन अर्पित करती,
है जिसको वह,
आखिर कार सभी वे सागर,
खारे निकले।
नवगीत (५)
निकल रही है घर से अब तो,
देखो रामकली,
कब तक देह छुपाकर राखे,
इस जालिम जग से।
भोर हुई खिड़की से झाँके,
सूरज आग लगा,
शापित करने रात चाँद भी,
ताके दाग लगा।
नहीं चाहिए मोक्ष किसी से,
और किसी पग से।
भीतर ही भीतर पीती जो,
नदिया अपना गम,
यौवन पर यदि बाँध बनाया,
तो निकलेगा दम।
उसे हटानी हैं बाधायें,
अपने ही मग से।
कुछ समरथ है, होंगे तो क्या,
डरना क्यों किसको,
इनके पौरुष औ'वैभव से,
करना क्या उसको।
इनके पाँव तले की भू भी,
नही हुई डग से।
नवगीत (६)
कौन जाने क्या हुआ इस देह को,
धूप से लड़ने चली है आजकल।
श्वेत कण तन को भिगोकर जा चुके,
लौटते पाँखीं निकेतन पा चके।
खप रहा यह तन सुलगती भूख से,
दृश्य अनगिन भूख के हम खा चुके।
पेट पापी हो गया भरता नहीं,
कूप से जाकर मिली है आजकल।
पाँव घायल हो गये हैं देह के,
दायरे बढ़ने लगे हैं नेह के।
फूल जैसा पथ कटीला लग रहा,
वार भी कैसे सहें हम मेह के।
वैभवी जीवन चलन में आ गया,
भूप की पोशी पली है आजकल।
हाथ में थामें हुए हैं आयना,
नित्य करता है उसी का सामना।
अक्श तो देगा वही जो दिख रहा,
व्यर्थ की लेकर जिये है कामना।
दम्भ है निज रूप का उसको अधिक,
रूप की पकड़ी गली है आजकल।
नवगीत (७)
सौंधी महक सपन- सी लगती,
वीर बधूटी भी,
खूब मजे से बाबा कहते,
बस, हम सुनते हैं।
पनघट, घाट नदी के अब तो,
सूने-सुने हैं,
चाकी, मथनी और मथानी,
नृत्य नहीं करते।
मेहमानों की आवभगत में,
शब्द वही, लेकिन,
वजनदार अब थोथे आखर,
सत्य नहीं लगते।
अतिथि देव-भव हैं लेकिन,
मन कब मिलते हैं।
गायब सभी अलाव गाँव के,
चौपालें चुप हैं,
पगडण्डी ने ओढ़ लिया है,
सड़कों का बाना।
नदिया सिमट गई आँचल में,
गन्ना चरखी बन्द,
नहीं नाचते मोर पपीहा,
भूल गए गाना।
तुलसानें में नागफनी के,
विरवे पलते हैं।
पंच जहाँ परमेश्वर बनकर,
बैठा करते थे,
दीन-हीन समृद्ध सभी की,
चर्चा होती थी।
नाम बदल कर उसी जगह,
मयखाना है,
जहाँ गाँव का अमन चैन निज,
सपने बुनती थी।
सपन हुए सपने बरगद के,
अब दिन कटते हैं।
नवगीत (८)
दरवाजे के पास पिता सा,
भीतर पावन माँ,
बरगद अरु तुलसी के विरवा,
पास बुलाते हैं।
बहुत किये उपवास कहीं तब,
घर में फूल खिला,
और तभी जीने का हमको,
एकल मार्ग मिला।
वही छीनकर तुम जा बैठे,
सात समन्दर पार,
श्रवण बुढ़ापे की लाठी की,
आस छुड़ाते हैं।
तुम कहते थे, पेड़ आम का,
पनघट तट पर हो,
और निबौली सहित नीम की,
छाँव लिए घर हो।
भोर होत कलरव सुनने पर,
मेरी नींद खुले,
सब कुछ है पर तुम्हीं नहीं दिन,
'रास' न आते हैं।
जिन मेघों पर किया भरोसा,
कोरे मिले सभी,
जिन सपनों की नींव रखी थी,
सारे हिले तभी।
नहीं जरूरत उसी जगह पर,
गरजे फिर बरसे,
मरते रहे प्यास से चातक,
खास न आते हैं।
नाम-रामअवतार सिंह तोमर'रास'
पिता-श्री स्व•रन्धौर सिंह तोमर
माँ-श्री मती स्व•राजा बेटी सिंह
जन्म-०५मई१९५०
जन्म स्थान-ग्राम-भिडौसा, जिला-मुरैना मध्यप्रदेश।
शिक्षा-एम•ए•बीएड, ए• व्ही •आर•
प्रकाशन-विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में गीत, नवगीत, गजल, दोहे, व स्वर्ण जयंती के अवसर पर साक्षारता मिशन द्वारा 'जागो'एवं 'उजाला' गीत संग्रह में सह सम्पादक व गीत।
सम्मान-सिद्ध बाबा श्री भानुप्रताप शिक्षा एवं जन कल्याण समिति से'गीत श्री'महाराजा मान सिंह तोमर संगीत एवं कला साहित्य समिति से 'गीत गौरव'दृष्टि साहित्य संस्था गुना से 'साहित्य सेवी' हिन्दुस्तानी भाषा ऐकेदमी नई दिल्ली से, हिन्दुस्तानी भाषा काव्य प्रतिभा सम्मान व ग्वालियर से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री परमार साहित्य सम्मान।
संम्प्रति-शिक्षा विभाग से शिक्षकीय कार्य से सेवा निवृत्त अब स्वतंत्र लेखन।
सम्पर्क-न्यू कालोनी ३/बी/१४, विरला नगर, ग्वालियर मध्यप्रदेश।
मो•८९८९४७२६११, ९७५३७३४८७१.
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