गीत-(1)
स्वर मौसम के---
हैं बुझे- बुझे स्वर मौसम के
चल रही हवाएँ भी उदास।
चुपचाप खड़ा चौराहे पर
मुँह लटकाये ये अमिलतास ।
उल्लास हीन इस जीवन के
हो गये रंग सारे फीके
क्या फागुन क्या बरखा, बसंत
सारे दिन एक तरह दीखे
घिर रही दिनोंदिन ये कैसी
मायूसी मन के आस-पास।
अब कहाँ हवाओं से आती
वो महुवाई मादक सुगन्ध
खो गये कहाँ अमराई में
गुंजित कोयल के मधुर छंद
अब रंग कहाँ भर पाता है
सपनों में ये गुमसुम पलाश ।
छलका करते थे रस कितने
सखियों की हंसी ठिठोली में
गाता था फागुन झूम झूम
संग होरियारों की टोली में
हो गया मौन धीरे-धीरे
मुखरित त्यौहारों का हुलास।
थे पान बतासो से मीठे
रिश्ते देवर भौजाई के
चलते थे किस्से कई दिनों
फिर भंग मिली ठंडाई के
खो गयी कहाँ वो नेह पगी
गुझियों के भीतर की मिठास।
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गीत--(2)
(समय लेकिन चल रहा है )
जिन्दगी ठहरी हुई है,
समय लेकिन चल रहा है ।
मौन, ये गुमसुम दिशायें
क्या न जाने सोचती हैं
रात दिन अपने सवालों
के ही उत्तर खोजती हैं
भटकती इन बियाबानो
में सुबह से शाम तक
प्यास की आकुल चिरैया
पंख अपने नोचती है
सफर है अब तक अधूरा
और सूरज ढल रहा है ।
खनकते सिक्के पलों के
हम खरचते जा रहे हैं
कीमती दिन कोडि़यों के
मोल बिकते जा रहे हैं
रह गये थे रेत से ,
दो चार दिन जो हाथ में
मुट्ठियों से वक्त की पल छिन
सरकते जा रहे हैं
उम्र के सोपान चढ़ते
बर्फ सा तन गल रहा है ।
मनचला शिशु भाग्य का
मुझसे अकारण रूठ जाता
देखती हूँ जिसमें खुद को
वही दर्पण टूट जाता
पकड़ती हूँ फिर वही
तिनका सहारे के लिये
भँवर में हर बार मेरे
हाथ से जो छूट जाता ।
नित नयी काया बदल कर
मोह का मृग छल रहा है ।
मौसमों में अब कहाँ वो रंग,
खुशबू ,ताजगी है
मन के रिश्तों में न दिखती
वो सहजता, सादगी है
खो गयी सुधियाँ सभी
इन अनुभवों की भीड़ में
रह गयी मन को कहाँ
अब किसी से नाराजगी है
गोद में विश्वास के ये वहम
कैसा पल रहा है ?
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गीत-3
(अब कहाँ रिश्ते बचे)
बन गये हिस्से सभी
किस्से कहानी के
अब कहाँ रिश्ते बचे,
वो आग पानी के
डोर से जिसकी बँधे थे,
गाँव-घर-आँगन
साथ रहते थे सदा
बनकर घनी छाजन
पड़ गयीं ढीली बहुत
विश्वास की कड़ियाँ
जोड़ती थीं जो दिलों में
सहज अपनापन
घोलती थीं गंध जिनकी
प्रीति साँसों में
झर गये वो फूल सारे
रातरानी के।
माँग कर एक-दूसरे से
आग लाते थे
नित नये संवाद के
रिश्ते बनाते थे
आस्थाएँ-भावनाएँ
रीतियां कुल की
साथ मिल -झुल कर
सहजता से निभाते थे
हो गईं हैं रेत भावों की
सरस नदियाँ
उड़ गये हैं रंग जैसे
जिन्दगानी के।
खो गये जाने कहाँ
मौसम उछाहो के ?
वो उमंगें, वो खुशी,
वो रंग चाहों के
लौटती थीं जिस डगर से
खुशनुमा ऋतुएँ
मुड़ गये जाने किधर
वो मोड़ राहों के?
गूंजते थे सुर जहाँ पर
फाग, कजरी के
चल रहे चर्चे वहाँ
अब राजधानी के।
अब कहाँ रिश्ते बचे
वो आग पानी के।
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गीत--(4)
[दुविधाओं की काई]
मन तो चाहे अम्बर छूना
पाँव धंसे हैं खाई ।
दूर खड़ी हंसती है मुझ पर
मेरी ही परछाई।
विश्वासों की पर्त खुली
तो खुलती चली गई
सम्बन्धों की बखिया
स्वयं उधडती चली गई
चूर हुए हम स्थितियों से
करके हाथापाई।
इच्छाओं का कंचनमृग
किस वन में भटक गया
बतियाता था जो मुझसे
वो दर्पण चटक गया
अपना ही सुर अब कानों को
देता नहीं सुनाई।
परिवर्तन की जाने कैसी
उल्टी हवा चली
धुआँ-धुआँ हो गयीं दिशाएँ
सूझे नहीं गली
जमी हुई हर पगडंडी पर
दुविधाओं की काई।
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गीत - (5)
(हम जंगली बबूल हो गये )
काँटे -काँटे देह हो गई,
रेशा-रेशा फूल हो गये ।
राजपथों ने ठुकराया तो
हम जंगली बबूल हो गये ।
किससे कहते पीड़ा मन की
क्यों मैंने वनवास चुना है
इच्छाओं को छोड़ तपोवन
ये कठोर उपवास चुना है
धारा के संग बह न सके तो
नदिया के दो कूल हो गये ।
अनचाहे उग आते भू पर
नहीं किसी ने रोपा मुझको
क्रूर समय ने सदा मरूथलों
के हाथों ही सौपा मुझको
ऐसे गये तराशे हर पल
पोर -पोर हम शूल हो गये ।
रहे सदा ही सावधान हम
मौसम की शातिर चालों से
इसीलिये हैं मुक्त अभी तक
छद्म हवाओं के जालों से
इस जग ने इतना सिखलाया
अनुभव के स्कूल हो गये ।
जब जब बढ़ती तपन ह्रदय की
खिलते फूल मखमली पीले
भरते एक हरापन मन में
रंग धूप के ये चटकीले
सुधियों ने जिसको दुलराया
ऐसी मीठी भूल हो गये ।
भूल सभी संताप ह्रदय के
रहे पथिक को छाँव लुटाते
सांझ लौटते बिहगो के संग
गीत रहे जीवन के गाते
ढाल लिया खुद को कुछ ऐसा
हर युग के अनुकूल हो गये ।
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गीत--(6)
(आओ इक पाती )
खोई- खोई सुबह लिखें
अलसाई शाम लिखें
आओ इक पाती रूठे
मौसम के नाम लिखें।
लिखे मेघ जो भेजे तुमने ,
आकर लौट गये
प्यासे मन को तनिक और
तड़पाकर लौट गये
कुछ छल गया अषाढ़
छल रहा कुछ सावन-भादों
साँस तोड़ती फसलों का
आखिरी सलाम लिखें।
तुम क्या रूठे, जीवन की
सब खुशियाँ रूठ गईं
शुभ सकुनो वाली कलशी
हाथों से छूट गई
सूख गयी पल में बगिया
हरियाये सपनों की
चुका रहे भूलों का अपनी
क्या-क्या दाम लिखें।
पाँव जमाकर आ बैठी है
धूप मुंडेरों पर
ढूँढ़े रैन बसेरा पंछी
सूखे पेड़ो पर
मौन हुआ संगीत तटों का
उजड़ गये मेले
रेत-रेत होती नदिया के
दर्द तमाम लिखें।
कुशल क्षेम की चिट्ठी आये
वर्षों बीत गये
सोधी मिट्टी वाले सारे
रिश्ते रीत गये
राह देखते धुँधलायी
आँखें सीवानों की
लौटेंगे मन के गोकुल में
कब घनश्याम लिखें ।
आओ इक पाती रूठे
मौसम के नाम लिखें।
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(7)
(हम ललित निबन्ध हो गये )
गीतों के बन्द हो गये
पोर -पोर छन्द हो गये.
पलट रही पुरवाई
पृष्ठ नये मौसम के
तोड़ रहे सन्नाटे
कोकिल सुर पंचम के
गहरे अवसादों में
ठहरे संवादों में
घोल रही हैं सुधियाँ
राग नये सरगम के
प्रीति की यूँ बाँसुरी बजी
प्राण घनानन्द हो गये.
शब्द लगे अखुँवाने
फिर सूनी शाखों में
अर्थ लगे गहराने
महुँआई आँखों में
बौराये भावों में
मौसमी भुलावों में
वायवी उड़ानों के
स्वप्न लिये पाँखों में
मन ने आकाश छू लिया
हम ललित निबन्ध हो गये.
भरमाते हैं मन को
मृग जल इच्छाओं के
भटक रहे पाने को
छोर हम दिशाओं के
अनबूझी चाहों के
अन्तहीन राहों के
सम्मोहन में उलझे
जंगली हवाओं के
खुद को खोजते रहे
कस्तूरी गंध हो गये।
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(8)
बोझ सदी के ढोए
विश्वासों की दरकी गागर
अब किस घाट डुबोए
सोच रही धनिया किसके
काँधें सिर धर कर रोए.
फुर्र हुए आशा के पंछी
मौन हुईं सब डालें
लौट रहीं अनसुनी पुकारें
पत्थर हुये शिवाले
तार -तार तन की चादर
क्या धोए और निचोए.
कभी बाढ़ से जूझे सपने
और कभी सूखे से
लिये खरोंचें मौसम की
दिन हुये बहुत रूखे से
बंजर रिश्तों में आखिर
कितने समझौते बोए.
आगे कुँआ दुःखों का
पीछे चिन्ताओं की खाईं
हुई न घर में शुभ शकुनों की
बरसों से पहुँनाई
दो पल के जीवन की खातिर
बोझ सदी के ढोए.
सोच रही धनिया किसके
काँधे सिर धर कर रोए.
(9)
"अंगारे दिन"
देखे इन आँखों ने कितने
तीखे -मीठे खारे दिन
सोच रहे हैं गुमसुम बैठे
देहरी और दुवारे दिन.
कभी बर्फ -सी शीतल सिहरन
कभी धूप -सी चुभन लिये
क्या दिन थे वे तितली जैसे
कोमल -कोमल छुवन लिये.
रखे हुये हैं अब हाथों में
ज्यों जलते अंगारे दिन.
सरक रही है सर-सर, सर-सर
रेत समय की मुठ्ठी से
गुम हो गये कहाँ सब अक्षर
आते-आते चिठ्ठी से
पलट रहे हैं झोली अपनी
क्या जीते, क्या हारे दिन.
सूने तट पर खड़ा अकेला
देता मन आवाज किसे ?
बीते कल की बात हुई वो
ढूँढे दर -दर आज जिसे
लौट चले जब दूर क्षितिज को
हारे थके बिचारे दिन.
सोच रहे हैं गुमसुम बैठे
देहरी और दुवारे दिन.
(10)
"कथा -कहानी वाले"
कथा -कहानी वाले सारे
जंगल लुप्त हुए
जाने कहाँ उड़ गये कौवे
गिद्ध विलुप्त हुए.
पौ फटते ही झुण्ड बना कर
चिड़ियों का घर आना
लिपे हुये आँगन से जाने
क्या चुग -चुग कर खाना
और नीम पर बैठ चोंच से
पंखों को खुजलाना
देख उन्हें मन का ताजे
फूलों सा खिल- खिल जाना
शेष अभी है जिनकी भीगी
खुशबू साँसों में
अंतर में वो सहज खुशी के
झरने सुप्त हुए.
याद रहा आ मुझे गाँव का
वह वट वृक्ष पुराना
मोर ,गिद्ध, तोते ,कौवों का
था जो बड़ा ठिकाना
कहते थे रहती भूतों की
इसमें कई टोलियाँ
दिन ढलते ही थम जाता
उस पथ से आना -जाना
मारा मंत्र किसी ने बरगद
पल में ठूँठ हुआ
और भूत भी जैसे
सब शापों से मुक्त हुये
सुनी हुई दादी से थी
बचपन में एक कहानी
एक राजा था, शीला -लीला
थी उसकी दो रानी
मिला दण्ड ऐसा था
"लीला"को अपनी करनी का
बनी नगर की "कौवा हकनी "
वो पुर की पटरानी
उड़ा ले गई क्या वो" लीला "
सारे कौवों को
या फिर उनके मध्य नये
समझौते गुप्त हुये.
जाने कहाँ उड़ गये
कौवे गिद्ध विलुप्त हुए.
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गीत --(11)
[बहुत दिनों से ]
बहुत दिनों से गीत न मैंने कोई नया रचा
बाँध सकें भावों को ऐसे शब्द नहीं सूझे
रहे भेद मौसम की चालों के भी अनबूझे
बिखर गयीं छन्दों की कडियाँ आपाधापी में
अहसासों में पहले जैसा स्पन्दन नहीं बचा।
सूखी नदी नेह की मन के पत्ते जर्द हुये
संवादों की धूप बिना सब रिश्ते सर्द हुये
बाहर पसरा हुआ दूर तक एक अबोला सा
पर भीतर ही भीतर रहता अन्तर्द्वन्द्व मचा।
समय सारिणी के कोल्हू में जुता हुआ हर दिन
बोझ तले पिस रहीं थकन के आशायें अनगिन
पंख नोचते हैं पिंजड़े में सपनों के पंछी
रहा समय ऊँगली में मुझको बस दिनरात नचा।
लगी झाँकने पानी से धुँधली परछाई सी
छंटने लगी झील के जल से जैसे काई सी
खोल गया यादों की कितनी एक साथ पर्ते
आज पुराने बटुये का इक मुड़ा-तुड़ा पर्चा।
बहुत दिनों से गीत न मैंने कोई नया रचा।
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संक्षिप्त परिचय
मधु शुक्ला
जन्मस्थान ----लालगंज, रायबरेली (उ. प्र.
शिक्षा ------एम.ए.(हिन्दी एवं संस्कृत)
लेखन की विधा - गीत, ग़ज़ल, कहानी समीक्षायें एवं साहित्यिक आलेख ।
प्रकाशन --------देश की प्रायः सभी स्तरीय साहित्यिक पत्र -पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन भोपाल द्वारा निरन्तर कविताओं का पाठ व प्रसारण, देश के अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय काव्य मंचों द्वारा काव्यपाठ , हिन्दी संस्थान लखनऊ, साहित्य अकादमी देहरादून, एवं साहित्य अकादमी भोपाल के मंचों से एकल काव्य पाठ एवं आलेखों का वाचन ।
साथ ही नवगीत के नये प्रतिमान, शब्दायन, गीत वसुधा, नवगीत का लोकधर्मी स्वरूप, गीत सिन्दूरी-गन्थ कपूरी , सदी के नवगीत, नवगीत का मानवतावाद,समकालीन गीत कोश आदि नवगीत के प्रायः सभी उल्लेखनीय संग्रहों में सहभागिता ।
प्रकाशित संग्रह --------"आहटें बदले समय की " गीत संग्रह (2015)
सम्मान ----- अनेक सम्मानों से सम्मानित, जिनमें उल्लेखनीय हैं---------------------------- 0 "आहटें बदले समय की " पुस्तक पर म. प्र. साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा दुष्यन्त कुमार सम्मान -2017
0 नटवर गीत सम्मान 2012
0अभिनव कला परिषद भोपाल द्वारा शब्द शिल्पी सम्मान 2017
0निराला साहित्य संस्था डलमऊ (उ. प्र.) द्वारा मनोहरा देवी कवयित्री सम्मान -2016
0 म .प्र. लेखक संघ द्वारा कस्तूरी देवी महिला लेखिका सम्मान --2021
सम्प्रति --- व्याख्याता (संस्कृत )
शासकीय कस्तूरबा उ. मा. वि. भोपाल( म. प्र.)
सम्पर्क ------6-साई हिल्स, कोलार रोड,
भोपाल -462042 म. प्र.
मोबाइल ---09893104204
Email -----madhushukla111@gmail.com
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