गुरुवार, 9 सितंबर 2021

भारतेंदु मिश्र के गीत /नवगीत

भारतेंदु मिश्र के गीत /नवगीत

 

1.किस्से यूं न गढ़ें 

खाल खींच निर्धन बकरे  की
ढोलक यूं न मढें।

दाढ़ी टोपी तिलक सजाकर 
किस्से यूं न गढ़ें।

मुक्त हो गए कुछ 
कागज के टुकड़े देकर
मजदूरों की तरह 
आठ दस ईंटें लेकर
निर्मित होते हुए भवन की

दसवीं मंजिल चढ़ें।
तालाबंद किताबी जीवन 
अनुभव तो करने से होगा
पढ़ लिखकर भी अब तक 
हमने बेकारी का ही दुख  भोगा
कभी हाथ रिक्शे में 
जुतकर दो डग आगे बढ़ें।

 देह खटेगी जिस दिन बाबू!
ज्ञान धरम  सब उड़ जाएगा
और शाम रोटी न मिली तो
पेट पीठ से जुड़ जाएगा
मोची के सूए में साहब!
धागा बनकर कढ़ें।

 बड़े इन्किलाबी,जज्बाती 
शब्दों को बघार लेते हो 
इस संक्रमण दौर में भी तुम  
अपना हित संवार लेते हो 

बहुत सिखया इसको उसको
थोड़ा खुद को पढ़ें।

2.मनुवाद

ऊपर भी मनुवाद नहीं है
नीचे भी मनुवाद नहीं है।

 यहीं बीच के कुछ लोगों में
छिड़ी हुई है हल्दीघाटी
शिखरों पर चढ़ कर देखो तो
दिखता कहीं  विवाद नहीं है

जफर और किसनू में लेकिन
होता अब संवाद नहीं है।

 ये जो सोया  मध्यवर्ग है
इसको कैसे कौन जगाए 
सोच बिरानी  ,घर छोटा सा 
दिल से, इनकी नाक बड़ी है
बात करेंगे परंपरा की
कल क्या खाया याद नहीं है।

जात बड़ी है जिन लोगों की 
मुंह ढँक कर वो  रोते  भी हैं 
सपना बस  अभिजन बनने का  
लूट मुफ्तखोरी जारी है  
जाति धर्म के काकटेल बिन  
आता उनको स्वाद नहीं ।

3.दृश्य ये अजीब है

 दृश्य ये अजीब  है 
मर रहा गरीब है 
कितना बदनसीब है 
सामने सलीब है ।

भक्त मर गए सभी 
राजनीति सड़  गयी 
थक के गिर पड़ा है जो 
मौत के करीब है ।

सबका घर बना दिया 
अपना तन गला लिया 
खट  गया मशीन सा 
कितना बदनसीब है ।

भूख से बहुत लड़ा 
और सड़क पे खड़ा 
गाँव को कदम बढ़ा 
मर रहा गरीब है ।

पोटली भी हाँथ में 
गर्भवती साथ में 
दुधमुंहा भी गोद में 
सामने सलीब है ।

भूख और मौत की 
खून से लिखी कथा 
पत्थरों की आँख में 
झांकता  अदीब है ।

4.राधा की पाती 

सुनो द्वारिकाधीश ! 
राधिका का है ये कहना 
प्रभु जी ! दूर दूर रहना ।

 छुआछूत की ये बीमारी 
आयी सब पर विपदा भारी 
भयो अपावन काल कोरोना 
तन बिछोह सहना ।

टेर बजाओ बंसी उन्मद  
सात सुरों की महिमा अनहद 
महारास की छेड़छाड़ मत 
गरबा में करना ।

शंकित है ये दुनिया सारी 
ब्याकुल हैं ब्रज के नर नारी 
रुकमिनि से बतलाना हो तो 
मुंह ढककर रहना ।

5.रामलखन 

 तिकड़म की दुनिया मे रहकर
बहुत जी गए रामलखन
बड़े-बड़ों के बीच
छुपे-रुस्तम निकले तुम रामलखन।

 अपनी शर्तो पर जीने का हस्र
यही सब होना था
घरवालों को बीच राह मे
छोड़ गए तुम रामलखन।

कविता छूटी, दुनिया छूटी
सारे सपने छूट गए
सच्चाई का कच्चा साँचा
छोड़ गये तुम रामलखन।

 कल जिसको उँगली पकड़ाई
वह मासूम हथेली थी
बस उस पर उँगली का छापा
छोड़ गए तुम रामलखन।


6. बाजार घर में

आगया बाजार घर में
या कि घर बाजार में है।

धर्म बिकता कर्म बिकता
न्याय भी बिकने लगा है
शक्ल खोकर आदमी अब
वस्तु सा दिखने लगा है
मिल रहा सबकुछ यही पर
जो कहीं संसार में है ।
वस्तुए लादे हुए वे
द्वार तक आने लगी हैं
नग्न हो विज्ञापनों में
देह दिखलाने लगी हैं
गाँव की वह शोख लड़की
अब इसी व्यापार में हैं ।

यह अनूठा गाँव जिसमें
ढल गयी दुनिया हमारी
बेचना बिकना यहाँ
नव सभ्यता अब है हमारी
दुधमुंहा भी दूरदर्शन की
निकटतम मार में है ।


7.मदारी की लड़की

सपनों की किरचों पर नाच रही लड़की।

अपने ही झोंक रहे
चूल्हे की आग में
रोटी पानी ही तो
है इसके भाग में
संबंधों के अलाव ताप रही लड़की ।

ड्योढी की सीमाएं
लांघ नही पाई है
आज भी मदारी से
बहुत मार खाई है
तने हुए तारों पर काँप रही लड़की ।

तुलसी के चौरे पर
आरती सजाए है
अपनी उलझी लट को
फिर फिर सुलझाए है
बचपन से रामायन बांच रही लड़की ।

 8.बांसुरी की देह

 बांसुरी की देह दरकी
और उसकी फांस पर
जो फिर रही थी
एक अंगुली चिर गयी है।

 रक्तरंजित हो रहे हैं
मुट्ठियों के सब गुलाब

एक तीखी रोशनी में
बुझ गए रंगीन ख़्वाब

कहीं नंगे बादलों में
किरण बाला घिर गयी है।

गूँज भरते शंख जैसे
खोखले वीरान गुम्बद
थरथराते आग में
इस गाँव के बेजान बरगद
न जाने विश्वास की मीनार
कैसे गिर गयी है ।

9.घमासान हो रहा

 आसमान लाल लाल हो रहा

धरती पर घमासान हो रहा ।

हरियाली खोयी है
नदी कहीं सोई है
फसलों पर फिर किसान रो रहा ।

सुख की आशाओं पर
खंडित सीमाओं पर
सिपाही लहू लुहान सो रहा ।

 चिनगी के बीज लिए
बिदेशी तमीज लिए
परदेसी यहाँ धान बोरहा ।

 10.बेपेंदी के लोटे

 सुविधाओं के तरणताल में
खाते पल पल गोते हैं वो
जिनकी चर्चाएँ होती हैं
बेपेंदी के लोटे हैं वो ।

भरे हुए हों या खाली हों
वो हर वक्त लुढ़क जाते हैं
जिसकी बीन बज रही होती
उसके ही सुर में गाते हैं
बाहर बाहर दीन हीन से
भीतर भीतर मोटे हैं वो ।

अपने मन का कोई निर्णय
लेने की सामर्थ्य नहीं है
सभासदों में शामिल हैं पर
पर इनके मत का अर्थ नहीं है
अफसर की जूती में चस्पां
याकि सुनहरे गोटे  हैं वो ।

पूंछ हिलाते आगे पीछे
पाँव चाटते तलवे घिसते
साहब के रोने पर रोते
साहब के हँसने पर हँसते
तन से चिकने चुपड़े दिखते
लेकिन मन के खोंटे हैं वो ।

11.झुनझुना 

 आदमी के वास्ते ही
आदमी सीढ़ी बना है ।

मोल श्रम का है न कोई
मोल बस बाजीगरी का
लोग कुछ उल्टे खड़े हैं
वक्त है जादूगरी का
और बजता झुनझुना है ।

जाति भाषा वर्ग की
कुछ धर्म की भी सीढ़ियां हैं
खुश रहे शोषक सदा ही
दर्द सहती पीढियां हैं
साफ़ कुछ कहना मनाहै ।

 जब जिसे चाहो खरीदो
जब जहां चाहो लगा लो
सीढियां चढ़कर उतर कर
वक्त को अपना बना लो
जाल वैभव का तना है । 

      
12.शब्द

आसमान से पंछी जैसे
शब्द उतरते हैं
जाने कितने सुख दुःख
मन में उठते गिरते हैं ।

चक्रव्यूह अपना रचते
कुछ अपनी दीवाली
अट्टहास के बिम्ब उभरते
कुछ देते गाली

कवि कुछ कहता नहीं
अर्थ खुद ही सब कहते हैं ।

पता नहीं दुनिया में
कितने लोग हुए होंगे
उनकी भाषाओं में कितने
शब्द हुए होंगे
हम तो बस परिचित शब्दों से

खेला करते हैं ।

चीटी चावल ,पर्वत जंगल
सूर्य समंदर से
गौतम ईसा ,गांधी लेनिन
और सिकंदर से
नई चेतना लेकर ये सब
रोज उभरते हैं ।

शब्दों की दुनिया भी है
बिलकुल अपनी जैसी
करते नवसामंत
रोज सबकी ऐसी तैसी

निर्धन जन के शब्द
जूझकर जीते मरते हैं ।

 13.तट हैं हम

तट हैं हम धारा के
हमको सब सहना है

इस गहरी नदिया के
संग संग बहना है ।

 मरघट हैं मेले हैं
सुख दुख हैं, हलचल है
मंदिर है मस्जिद है
कीकर है पीपल है
ये संगी साथी हैं
इनका क्या कहना है ?

 जो कागज पर चढ़कर
धारा में बहते हैं
मछुआरे उनको ही
प्रगतिशील कहते हैं
हमने तो सन्नाटे का
चीवर पहना है ।

 सपने हैं अस्थिशेष
लाशें हैं आखों में
फटता है मन हर दिन
हादसों धमाकों में
कटती है रजत देह
फिर भी चुप रहना है ।

 

14.नए रस्ते

 कह रहे गुडमार्निंग
हंसकर
भूल बैठे हैं नमस्ते
खड़े लादे हुए बस्ते ।

 
अब न गुल्ली और डंडा
अब न कंचे खेलते हैं
हैं सभी महंगे खिलौने
और आंसू बहुत सस्ते ।

 
अब न दादी की अंगुलियाँ
हामिदों को याद आतीं
खेलते कम्पूटरों से
मुट्ठियाँ हर वक्त कसते ।

 
अब न चाचा हैं ,बुआ हैं
सभी अंकल सभी आंटी
देखते हैं दूरदर्शन
खोजते हैं नए रस्ते ।

 

15.मेरा घर आंगन

पूर्वमुखी मेरा घर आंगन भीज रहा है
पच्छिम से कुछ ऐसे बादल आये हैं।

इनमें पानी नहीं
सिर्फ तेज़ाब भरा है
रूप रंग ये कैसा
जीवन पर उतरा है
आज कंटीले झाड़ यहाँ अंकुराये हैं।

पीली होकर घास
यहाँ हरियाती है
बीमारों की संख्या
बढ़ती जाती है
थोथे गर्जन और धुंएँ के साये हैं।

अब तो सभी हवा में
बातें करते हैं
व्याकुल हुए किसान
भूख से मरते हैं
मोबाइल वो लिए हुए मुंह बाये हैं ।

16.बरगद

मैं घना छतनार बरगद हूँ
जड़ें फ़ैली हैं अतल पाताल तक।

अनगिनत आये पखेरू
थके मांदे द्वार पर
उड़ गए अपनी दिशाओं में
सभी विश्राम कर
मैं अडिग निश्चल अकम्पित हूँ
जूझकर लौटे कई भूचाल तक।
जन्म से ही ग्रीष्म वर्षा शीत का
अभ्यास है
गाँव पूरा जानता
इस देह का इतिहास है
तोड़ते पल्लव जटाएं काटते
नोचते हैं लोग मेरी खाल तक।

अँगुलियों से फूटकर
मेरी जड़ें बढ़ती रहीं
फुनगियाँ आकाश की
ऊचाइयां चढ़ती रहीं
मैं अमिट अक्षर सनातन हूँ
शरण हूँ मैं लय विलय के काल तक ।

परिचय
भारतेन्दु मिश्र 






इस कड़ी में अस्सी के दशक से गीत लिख रहे डॉ भारतेन्दु मिश्र के नवगीत प्रस्तुत हैं।'अंशुमलिनी' पत्रिका के नवगीत अंक(1988 ) का संपादन।पहला नवगीत संग्रह #पारो-1991 में प्रकाशित हुआ।#अभिनवगुप्त पर खण्डकाव्य (1994 ), ग्यारह नवगीतकारों के संकलनका संपादन-  #नवगीत एकादश( 1994),#कालाय तस्मै नमः( सतसई-1998)
छंदोबद्ध कविता की आलोचना #'समकालीन छंद प्रसंग'( 2013)अवधी नवगीत पुस्तक - 'कस परजवटि बिसरी'(2000 )
 नवगीतों के अलावा आप नवगीत आलोचना के लिए भी जाने जाते हैं।



 संपर्क- सी-45/वाई -4

दिलशाद गार्डन, दिल्ली -110095

फोन- 9868031384

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