गीत 1
मन रखने को मीठी मीठी बातें करता है
अपनी ही बातों से बेटा रोज़ मुकरता है
ज्यों ज्यों बड़ा हुआ है त्यों त्यों बढ़ी बीच की दूरी
पीढ़ी का अंतर कह लो या इसे कहो मजबूरी
खान-पान पहनावा बोली दृष्टिकोण बदले हैं
समझाइश को तर्कों की राजधानी करता है
अपनी ही बातों से बेटा
रोज़ मुकरता है
जो मां पिता हुआ करते थे उसके लिए फरिश्ते
आज उन्हीं से रेशा रेशा उधड़ रहे हैं रिश्ते
आंखों को नदिया कर देता औ सपनों को पानी
शब्दों की कैची से जब सम्मान कतरता है
अपनी ही बातों से बेटा
रोज़ मुकरता है
छूट गया घर द्वार नौकरी जब से बड़ी लगी है
पैसा रुतबा सुविधाओं की अनबुझ प्यास जगी है
देर रात तक जागा करता और देर से उठता
लैपटॉप की सोहबत में ही वक्त गुजरता है
अपनी ही बातों से बेटा रोज़ मुकरता है
एकाकीपन ढोते -ढोते नयन सांझ के छलके
और पुतलियों में अनचाहे घिरने लगे धुंधलके
आशा और निराशा में संवाद हुआ करता है जितनी बात बढ़ाओ उतना दर्द उभरता है
अपनी ही बातों से बेटा रोज़ मुकरता है
ममता बाजपेई
गीत 2
राम के आदर्श पर चलना नहीं स्वीकार हमको सिर्फ उनके नाम की करते रहे जय कार हैं
राम पत्थर से तराशी एक मूरत भर नहीं हैं
या कि पन्नों पर उकेरी एक सूरत भर नहीं हैं
राम मन के रावणों को जीतने की योजना हैं
और अंतस में बिचरते द्वंद का परिहार हैं
राम तप हैं राम साहस त्याग भी वैराग भी
नम्रता सुचिता सहजता सत्य भी अनुराग भी
राम के रामत्व का तो अर्थ केवल चेतना है
राम तो बस आचरण हैं धैर्य के आगार हैं
राम तो विश्वास भर हैं लक्ष्य का सामर्थ्य भी हैं
राम जीने की कला है जिंदगी का अर्थ भी हैं
बीत कर बीता नहीं जो राम अनबीता समय हैं
राम मग हैं राम युग हैं राम ही संसार हैं
है यहां पर कौन जिसने राम के मन को छुआ है
राम के व्यक्तित्व को लिखना कहां संभव हुआ है शब्द के वश में नहीं है भाव के अतिरेक लिखना
आर्त हैं आंखें क़लम की वेदना के ज्वार हैं
ममता बाजपेई
गीत 3
आँखों से नींदें उलीचने वाले दिन
कहाँ गए उल्लास खींचने वाले दिन
दिन जो खट्टी अमियाँ की फाँकों जैसे
दिन जो महकी बगिया की साँसों जैसे
दिन जो ठग्गी मिठुआ की बातों जैसे
दिन जो रंगी फगुआ की तानों जैसे
धरती पर आकाश खींचने वाले दिन
कहाँ गए उल्लास सींचने वाले दिन
दिन जो कोरे बिस्तर पर तकिया जैसे
दिन जो छुप-छुप कर बाँची चिठिया जैसे
दिन जो पैरों में दो-दो बिछिया जैसे
दिन जो रेशम की पीली अंगिया जैसे
बाहों में मधुमास भींचने वाले दिन
कहां गए उल्लास देखने वाले दिन
दिन जो झीने घूंघट की चितवन जैसे
दिन जो रीझे दर्पण की धड़कन जैसे
दिन जो कच्चे यौवन की ठनगन जैसे
दिन जो भीगे मौसम की सिहरन जैसे
पलकों में एहसास मींचने वाले दिन
कहां गए उल्लास सीखने वाले दिन
ममता बाजपेई
गीत 4
शोख़ अंदाज़ में नर्म आवाज़ में
रात भर बादलों ने कही शायरी
धड़कनों के सुनाए नए शेर कुछ
भावना की तरह धार सा बह गया
चूमकर पंखुरी मौन कचनार की
पल्लवों की नरम सेज पर ढह गया
अंक में भर लिया मदभरी गंध को
सरसराती हवा हो गई सहचरी
हाथ गहकर बरसती हुई बूंद का
वो उतरने लगा झील में ताल में
देख कर फिर धरा के नवल रूप को
वो उलझने लगा रूप के जाल में
बात मासूम सी कुछ कही इस तरह
बात सुनकर धरा हो गई बावरी
साँस के तार सा दृष्टि के हार सा
बंधनों में बंधा तो सरल हो गया
शब्द के सार सा अर्थ के भार सा
अंत में एक पूरी ग़ज़ल हो गया
गुनगुनाने लगी बिजलियां फिर उसे
प्रीति के राग से हर दिशा गुंजरी
ममता बाजपेई
गीत 5
जब-जब किया समय ने घायल
तब तब हमने क़लम उठाई
दबा हुआ था जो सीने में लगा कठिन दुनिया से कहना
लेकिन कहने से भी ज्यादा मुश्किल था चुप रहकर सहना
तब हमने कोरे पन्नों पर गीतों की यह फसल उगाई
संवेदन के हल कुदाल से मन की माटी को पलटाया थोड़ी पीड़ा थोड़ी खुशियां कुछ सपनों का खाद मिलाया
सींचा बेचैनी के जल से बो दी उसमें ग़ज़ल रुबाई
जब गाया हमने तड़पन को सबको अपनी लगी कहानी मेरी पीर जगत की होकर बनी तरल नदिया का पानी धार धार बहती है अब तो घाट घाट फिरती बौराई
हमें पता ही नहीं चला कब गीतकार बन गए अचानक भूल गए मन की मृगतृष्णा दुख के चर्चे हुए अमानक हंस वाहनी के चरणों में अर्पित साँसों की शहनाई
जब-जब किया समय में घायल
तब तब हमने कलम उठाई
ममता बाजपेई
गीत 6
छाँव के नज़दीक आकर धूप ने कान में कुछ कुनकुनी बातें कहीं
बात सुनते ही न जाने क्या हुआ
खिल गया मौसम बहारें आ गईं
लाज की झरने लगी मंदाकिनी
रूप की शीतल फुहारे छा गईं
रीझते मनुहारते परिवेश ने प्रीति की घनघोर बरसातें कहीं
शब्द जब संवेदना में ढल गए
शेष कहने को नहीं कुछ भी रहा
आवरण झीने हुए अभिमान के
दृष्टि ने फिर दृष्टि से सब कुछ कहा
मौन भाषा के मुखर संवाद ने
गुनगुनाती चांदनी रातें कहीं
सुर्ख सिंदूरी सुबह सा मन हुआ
धुंध सी छटने लगी हर ओर से
देह की देहरी लिखे रंगोलिका
स्वप्न बतियाते नयन की कोर से
कल्पनाओं के उमगते वेग ने
धड़कनों की घात प्रतिघातें कहीं
ममता बाजपेई
[ गीत 7
फूटती संवेदनाऐं साध कर गीत रसवंती लिखे मैंने
पृष्ठ पलटे कुछ पलाशों के कुछ तहें कचनार की खोली चिट्ठियां बाँची गुलाबों की रातरानी साँस में घोली
बाँह फागुन की गुलाबी थामकर
गीत बासंती लिखे मैंने
पर्वतों की गोद जब छोड़ी अर्थ जाना तब किनारों का पनघटों की प्यास पहचानी रूप ओढा चांद तारों का अधखुली पलकें ख़ुमारी आँज कर
गीत लजवंती लिखे मैंने
उंगलियों के नरम पोरों में अनगिनत संभावनाएं थी
पर हथेली की लकीरों में नाचने की भूमिकाऐं थीं बांसुरी से तार दिल के बांधकर गीत बैजंती लिखे मैने
विस्मयदिक बोध से रिश्ते प्रश्नवाचक हो गया जीवन पूर्ण वाचक चिन्ह से सपने संधि के विच्छेद सी तड़पन दर्द की सारी लकीरें लांघ कर
गीत अरिहंती लिखे मैंने
ममता बाजपेई
गीत 8
फिर किसी संवेदना की चीख गूंजी फिर किसी उन्माद ने मूँछें मरोड़ी
एक दहशत सी हवा में घुल रही
क्रूरता के नित्य नूतन सिलसिले हैं
पोत कर कालिख़ समय के पृष्ठ पर
कौन सा इतिहास हम रचने चले हैं
फिर किसी मृगलोचना ने मान खोया
फिर किसी संताप ने आंखें निचोड़ीं
बढ़ रहे बेखौफ अंधी राह पर
सभ्यता के दिग्भ्रमित बागी क़दम
छोड़ पावन प्रेम करुणा न्याय को
जा रहे आखिर कहां किस ओर हम
फिर किसी आराधना के हाथ काँपे
फिर किसी विश्वास ने उम्मीद तोड़ी
क्यों हुए इतने जटिल व्यवहार में
क्यों प्रकृति के हो गए प्रतिकूल हम
ज़िन्दगी के पांव में गड़ने लगे
क्यों हुए आखिर नुकीले शूल हम
फिर किसी संचेतना ने प्रश्न पूछे
फिर किसी एहसास में निश्वास छोड़ी
ममता बाजपेई
गीत 9
सुख ने सदा तरेरी आंखें दुख ने हमको बहुत सम्हाला
दबे पाँव आया चुपके से धीरे से कुंडी खटकाई
भींच लिया भरकर बाहों में और पीठ पर धौल जमाई बैठ गया गलबहियाँ होकर आंखों को पुरनम कर डाला
पुष्प गुच्छ टूटे सपनों का थमा दिया मेरे हाथों में
पूरी रात खुली पलकों से गुज़र गई बातों बातों में बेचैनी की कथा सुना कर दिया नींद को देश निकाला
फिर समझाए सूत्र समय के सिर पर फेरा हाथ प्यार से चेतन कर लो अपने मन को हो जाओगे मुक्त भार से उम्मीदों के द्वार बंद कर
जड़ लो इच्छाओं पर ताला
दुख की सख्त कलाई गहकर
आने लगा रास अब जीना धीरज के प्याले में भरकर सीख गए चिंताएं पीना जीवन का सारांश सिखाकर अंधियारे में भरा उजाला
ममता बाजपेई
गीत 10
नानी रख दो फोन चलो खेलें
सोफे पर नाना कमरे में फोन खेलती नानी
अपनी ही दुनिया में गुमसुम कहते नहीं कहानी
जान रहे दुनिया की बातें मुझसे है अननोन
चलो खेलें
ऑफिस में पापा बिजनेस में बिजी बहुत है मम्मा
उनकी अपनी है मजबूरी अपने छम्मा छम्मा
गाड़ी बंगले का है शायद उनके सिर पर लोन
चलो खेलें
खेल खिलौने तो ढेरों हैं लेकिन यार नहीं है
बाग बगीचे मोर कबूतर के उपहार नहीं है
एक फ्लेट में दो कमरों का छोटा सा है जोन
चलो खेलें
सुबह सवेरे की हड़बड़ में चल देता हूं पढ़ने
होमवर्क का बोझ पीठ पर आंखों में है सपने
थकी थकी लगती है अब तो सांसो की रिंगटोन
चलो खेलें
ममता बाजपेई
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