नवनीत-1
"भोथर छूरी"
नव पीढ़ी को
जाति वर्ण का,
ज्ञान जरूरी है।
वरना अपनी
गौरव गाथा,
भोथर छूरी है।।
इसके ही दम
झुकी रीढ़ को,
फिर से तानेंगे
हम अभिमानी
पुरखों जैसे,
पुनः दहाड़ेंगे।।
समय कहे
सागर मंथन की,
फिर मजबूरी है।।
अपने रत्न
विरासत अपनी,
नहीं बाँटना है
कौए हंस
बने हैं उनके,
पंख छाँटना है
हम ही हैं
कौटिल्य यहाँ के,
हम ही सूरी है।।
सफल न हो यदि
समझाने में,
कथा कुंभ ड्रामे
दोष वंचितों
के सिर मढ़ के,
कर दो हंगामे।
यह सत्ता तो
अपने मुख की,
रस अंगूरी है।
हम विंध्याचल
हैं सदियों के,
अपना हैं पानी
फिसलेगा यह
नया हिमालय,
धन का अंबानी
हम सूरज है
जो धरती से,
रखते दूरी है।।
भीमराव 'जीवन' बैतूल
13/10/2020
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नवगीत-2
"मंशा मैली अपनी"
शुद्धिकरण का
मंत्र किये है
मंशा मैली अपनी
गंगाजल से
धोते फिर भी
रही अपावन कफनी
रहे पूजते
गोबर को नित
मार गाय को डंडे
नफरत के
रोबोट बनाते
वहशी हुए त्रिपुंडे
सिखा रहे हैं
भेदभाव की
माला कैसी जपनी
टाँग उठाकर
श्वान मूतते
फिर भी पूज्य ठिकाने
देख दलित को
खाली करते
गाली भरे खजाने
सदियों सुख को
पिये अघाने
चखी न दुख की चटनी
भरे हुए
हर घट में इनके
साजिश के सौ खोखे
कपट दुर्ग में
धन लाने के
लाखों बने झरोखे
स्वर्ग-नर्क के
दंगल इनके
देते रहे पटकनी।
भीमराव 'जीवन' बैतूल
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नवगीत-3
"साँसें साँसत में"
चलें धार पर
रहीं हमेशा
साँसें साँसत में
एक कुल्हाड़ी
और दराती
मिली विरासत में
रोज उज्ज्वला
सिर पर ढोती
लकड़ी का गट्ठर
पथ पर भूखे
देख भेड़िये
देह स्वेद से तर
भूख-प्यास
लेकर बैठी है
देह हिरासत में
कानी-खोटी
सुनकर पाया
दाम इकाई में
नमक-मिर्च भी
लाना मुश्किल
इस महँगाई में
है गरीब का
सस्ता सब कुछ
यहाँ रियासत में
पाँच बरस में
एक बार ही
मंडी खुलती है
जिसमें अपने
जीवन भर की
किस्मत तुलती है
वोट तलक
अपनापन मिलता
हमें सियासत में
•••
भीमराव 'जीवन'बैतूल
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नवगीत-4
"मीडिया"
बड़े सदन में गिरफ्तार हो गया मीडिया।
पनियल आँखें अब जनता की कौन पढ़ेगा?
जन-गण की पीड़ा को सुन सब गूँगे बहरे।
खोद रहे हैं संविधान की जड़ को पहरे।
मौन केमरे उत्प्रेरक से चित्र सजाते,
भेदभाव भाषा के मुद्दों पर हम ठहरे।
हमें विखंडित करने वाले लाल दुर्ग पर,
समरसता का ध्वज फहराने कौन चढ़ेगा?
आखेटक सत्ता ले आयी, नये शिकंजे।
हलधर की गर्दन पर गाड़े खूनी पंजे।
मध्यमवर्गी जनता के सिर, कर के छूरे,
बेदर्दी से लगे हुए हैं, करने गंजे।।
संसद के गलियारों में ये धींगामुश्ती,
करते हुए श्रृगालों से अब, कौन भिड़ेगा?
कौन सँभाले अब घुन खायी मीनारों को।
दावानल से उठे सामयिक अंगारों को।
कर्म भूल जो करे दलाली में कर काले,
लानत ऐसे झूठे कपटी अखबारों को।
नतमस्तक है तंत्र अगरचे, अंध भक्त बन,
इन बिगड़े किरदारों से फिर, कौन लड़ेगा?
भीमराव झरबड़े 'जीवन' बैतूल
29/09/2021
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नवगीत - 5
"साखी भी हार गयी"
कटी नहीं मोटी चमड़ी,
चाकू की धार गयी।
धीरे-धीरे कबिरा की,
साखी भी हार गयी।।
विहान ने बुधिया के घर,
आँखें कभी न खोली।
कोठी में जा सूरज ने,
डाली रोज रँगोली।।
शातिर मतपेटी इनके,
पुश्तों को तार गयी।।1
धूर्त धर्म ने शिखर-शिखर,
ध्वज अपना फहराया।
संविधान समरसता का,
स्वाद नहीं चख पाया।।
घुन विधान के खंबों का,
भरने भंडार गयी।।2
सींच-सींच ममता हारी,
क्षीर नेह से उपवन।
बरगद संस्कारों का धन,
कर न सका आबंटन।।
वृद्धापन की लाठी जो,
सागर के पार गयी।।
धीरे-धीरे कबिरा की,
साखी भी हार गयी।।3
भीमराव 'जीवन' बैतूल
23/09/2021
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