कविवर ईश्वर दयाल गोस्वामी जी का
एक नवगीत
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गांव की सांझ
तप्त पठरिया की नदिया से
इतराती, पर सधी हुई-सी
भरी खेप पनहारिन जैसी
उतर रही है साँझ गाँव में ।
दौड़ लगाकर पूँछ उठाकर
आती हैं गायें रंभातीं ।
भेड़-बकरियाँ बना पँक्तियाँ
चली आ रहीं हैं मिमयातीं ।
बहुएँ जला रही हैं चूल्हे ,
जोड़ रही हैं टूटे कूल्हे ।
धधक रही है छाती इनकी
सासों की कर्कशा काँव में ।
गुंड-कसैंड़ी, कलशे-गगरे,
कूप,नलों पर भीड़ मची है ।
उछल रहीं हैं मधुर गालियाँ,
तना-तनी में रसा-कसी है ।
हार-खेत से आते-आते ,
पोंछ पसीना थकन मिटाते ।
बरगद के नीचे चौरे पर
बैठ गए मजदूर छाँव में ।
काम-धाम की ख़ोजबीन में
बैठे-बैठे उकताते हैं ।
रंगदारों की चाल-ढाल में
लुहरे,जेठे गरियाते हैं ।
मार रहे हैं लट्ठ धुआं में,
हार रहे सब जोग जुआ में ।
गोटी इनकी फंसी हुई है
चौसर के मजबूत दांव में ।
तप्त पठरिया की नदिया से
इतराती, पर सधी हुई-सी
भरी खेप पनहारिन जैसी
उतर रही है साँझ गाँव में ।
कवि का एक चित्र
-- ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी,(रहली),सागर
मध्यप्रदेश ।
मो - 8463884927
प्रस्तुति
वागर्थ
धन्यवाद प्रिय मनोज जी
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन
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